फ़ुटपाथ
काव्य साहित्य | कविता ज्योति मिश्रा1 Nov 2019
चहुँओर शोर ही शोर है,
धरा रक्त से सराबोर है,
वो चला गया, जो रौंद कर,
नहीं उसपर किसी का ज़ोर है॥
मासूम से थे फूल वो,
समझा जिसे था, धूल वो,
कचरों से लेकर, चिथड़ों तक,
जीवन था उनका शूल वो॥
सिर रख के उसका गोद में,
अश्रु थे बहते जा रहे,
ममतामयी के, हिय से बस,
थे दर्द वो चिल्ला रहे॥
था क्षत - विक्षत सा शव उधर,
सिर था कहीं, और धड़ किधर,
कोई तो खोज के ला दो अब,
मेरे स्वामी की काया इधर॥
घावों का था वर्षण हुआ,
उद्धत का उत्कर्षण हुआ,
चूड़ी टूटी, सिंदूर धुल,
मानवता का तर्पण हुआ॥
चक्षु शून्यता से भर गए,
हृदय थे पत्थर हो गए ,
मनुज, मनुज के सम्मुख ही,
विषपान करते रह गए॥
ये शयन का न स्थान है,
न इस बात से, तू अनजान है,
थी भीड़ उनसे, ये कह रही,
गंतव्य तेरा शमशान है॥
नभ को ही छतरी ही जाना था,
सड़कों को आश्रय माना था,
लाचार, बेबस जीवन का,
फ़ुटपाथ ही इक ठिकाना था॥
महलों का राजकुमार है,
माना सब उसके पास है,
फ़ुटपाथ के जीवन को भी,
क्या कुचलने का अधिकार है??
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
नज़्म
कविता
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं