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गागर भर सागर

ज़रूरतों के चलते दबती है वो,
तपती हुई डगर चलती हुई वो,
बूँद-बूँद की आस में भटकती रही,
गागर धर शीश अथक चलती रही॥


दुर्बल काया धूसरित पट ओढ़ निकली,
प्यासी निगाहें, अधरों पर पपड़ी जमी,
दुखी हो मन निराशाओं से घिरता हुआ,
पर आशा का एक दीप भी जलता रहा॥


सारंग ना सही चंद घूँट तो हो,
निर्मल न सही मलिन ही हो,
दुर्गम सही पर मिलना तो हो,
तर जाए कंठ सूखा उम्मीद तो हो॥


महलों सा न हो तो मड़ई ही सही,
गर शीतल ना तो ऊष्ण ही सही,
शुद्ध ना रहे फिर अशुद्ध ही सही,
स्वस्थ ना तो काया रुग्ण ही सही॥


जीवन की आस लिए बस भटक रही,
लिए कण्ठ रूखे, नयन लोर से भरी,
निर्जन वीरान सी अवनी बस बंजर रही,
इक बूँद न मिली और दरिया ढूँढ़ रही॥


तितिक्षा की पराकाष्ठा बन वो निकल पड़ी,
झाड़ियाँ बिखरी धरा हर ओर दिखती रही,
है कैसा ये मंजर सोच तलैया ही ढूंढती रही,
गागर भर सागर चाह में पग-पग बढ़ती रही॥

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