अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

गगरी का अंतस

इक रोज़ गई थी दरिया पर गगरी अपनी भर लाने को
सुन्दर सी अपनी गगरी में पावन जल भर इठलाने को
मोहक सी अपनी गगरी में जल भरकर बल खाने को
स्वच्छ सुनहरी गागर को तटिनी से पोषित करने को
 
चली जा रही आत्ममुग्ध सी, गगरी पर अभिमानी सी
स्वर्ण दीप्ति से चमकीली, गगरी पर अपनी गर्वित सी
हर्षित मन से आल्हादित, धुन में अपनी राह चली थी
ठुमक ठुमक कर गगरी लेकर तरंगिणी तट पहुँची थी
 
उत्साहित हो गगरी को मैने सरित-सलिल से सींचा था
उफ़्फ़ लेकिन हाय पलभर में सपनों का मंदिर टूटा था
स्वच्छ सुनहरी गगरी का जल इतना कैसे दूषित था
व्याकुल सी और आहत सी मैं दिशाहीन सी बैठी थी
 
अज्ञानी और अल्पमति मैं बहुत सोच में विचलित थी
गागर को ही बहुत ध्यान से, देखा और फिर पाया था
स्वर्णिम आभा की मेरी गगरी बस बाहर से निर्मल थी
चमकीली मेरी गगरी का अंतस कई तरह से दूषित था
 
गगरी का जो अंतस है, वो मेरे मनवा की मानिंद है
गगरी के बाहर का हिस्सा, मेरी देह के रूपक जैसा
देह को मैंने ख़ूब सजाया, मन को कैसे भूल गई मैं
मन को विस्मृत करके मैंने केवल तन चमकाया था
 
मेरी गगरी के अंतरतम में काला गंदला मैल जमा था
क्रोध, काम के संग वहाँ मद, मोह, लोभ का डेरा था
द्वेषभाव की कालिख के संग अहंकार का तम भी था
बाहर से चारू मेरी गगरी भीतर से हाय कलुषित थी
 
ख़ूब प्रेम से रगड़ी गगरी, करुणा का लेप लगाया था
अहम् को बिसराकर फिर मैंने अंतस को चमकाया था
ईश के पावन प्रेम के जल से फिर गागर भर लाई थी
दर्पण से इस स्वच्छ नीर को पाकर सुख से मुस्काई थी

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सांस्कृतिक आलेख

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं