गहन तम
काव्य साहित्य | कविता सविता अग्रवाल ‘सवि’1 Jan 2021
तम गहन तम
मन तम गहरा
छाया तम है चहुँ ओर यूँ
जैसे बैठा है कोई पहरा
ख़ाली गागर सा संगीत
चाहूँ लिखना मैं एक गीत
किन्तु न जाने स्वर गुम हैं सब
आकारों की ना कोई मंज़िल
कठिन डगर पर चलना जैसे
तम की गठरी को ढो ढो कर
बूढ़े की लाठी सा संग है
सहना, रहना तम ही तम है
ना कोई छेद जहाँ से आये
किरण उजाले की छन कर कोई
जो पत्थर सी मोटी चादर
चीर कर कुछ प्रकाश फैलाये
धड़कनों में आती जाती
साँसों में मेरी बस जाती
छलती मुझको हर दम तू ही
तम की जंग मैं जीत न पाती
आशा है बस अब एक मेरी
मिले द्वार कोई ऐसा मुझको
जिसमें न हो तम का साया
बिजली दौड़े समग्रता में
और न हो तम, गहरे तम में॥
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