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ग़लतफ़हमी

“माफ़ कीजिए यह सीट हमारी है।”

सुबह के सात बज रहे थे और लंदन से पेरिस जाने वाली यूरोस्टार ट्रेन चलने ही वाली थी। हम दोनों समय से पंद्रह मिनट पहले ही अपने डिब्बे में आ गये थे। मैंने सामान लगेज रैक में टिका कर अपनी सीटें चेक कीं और चैन की साँस लेते हुए आराम से अपनी जगह पर पसर गया। कांता के चेहरे पर यूरोस्टार में पहली बार सफ़र करने का उत्साह तो था ही, अब तक की बाधा रहित यात्रा का संतोष भी। कांता के लिए यात्रा का हर पहलु पूर्व निर्धारित करना बहुत आवश्यक रहता है। मुझे सूक्ष्म नियोजन से हमेशा चिढ़ रही है। मेरा मानना है कि कुछ चीज़ें संयोग पर छोड़ देने का अपना ही मज़ा है। लेकिन कोशिश करने पर भी मैं कांता को बहाव के साथ बहने पर कभी राज़ी नहीं कर पाया हूँ। लंदन में पिछले चार दिन बिलकुल योजना अनुसार ही बीते थे। जहाँ तक संभव था कांता ने हर चीज़ का पहले से प्रबंध कर रखा था। जो भी टिकटें इंटरनेट से एडवांस में ख़रीदी जा सकती थीं, ख़रीद ली गयी थीं – चाहे वो एयरपोर्ट से शहर तक पहुँचाने वाली हीथ्रो एक्सप्रेस की हों या फ़िर किसी नाट्यशाला की। रेस्टोरेंट्स में ईमेल से रिज़र्वेशन करा दिया गया था। होटल का प्रबंध सेंट पैन्क्रास ट्रेन स्टेशन से दस एक मिनट की पैदल दूरी पर किया गया था तांकि आज सुबह टैक्सी का झंझट न रहे।
मुझे सुबह जल्दी उठने की थकावट हो रही थी। पाँच-सात मिनट की झपकी लेने की इच्छा से आँखें बंद की ही थीं कि उस पुरुष की शुष्क और कठोर आवाज़ कानों में पड़ी।

“मैं आप ही से कह रहा हूँ। यह सीट हमारी है,” उसने अधिक इंतज़ार न करते हुए अपनी बात को दोहराया।

मैंने अलसाई हुई नज़र ऊपर उठाई तो सामने एक श्वेत युगल को खड़ा पाया। लग रहा था गाड़ी पकड़ने के लिये इन्हें ख़ूब भागना पड़ा होगा। दोनों अभी तक हाँफ रहे थे। वैसे दोनों हृष्ट-पुष्ट डील-डौल के थे। उम्र पैंतीस के आस-पास, पुरुष निश्चय ही छह फुट से लम्बा और महिला पाँच फुट सात आठ इंच से कम नहीं। दोनों काफ़ी लदे हुए भी थे। कैरी-ऑन बैग, बैकपैक, हाथों में थैले और वस्त्र इत्यादि।

“लगता है आप को ग़लतफ़हमी हुई है,” मैंने उसके लहजे पर ध्यान न देते हुए नम्रता से जवाब दिया।

“आप की दोनों विंडो सीट्स कैसे हो सकतीं हैं?” उस ने झुंझला कर कहा।

“क्यों नहीं हो सकतीं?” कांता से चुप नहीं रहा गया। “मैंने स्वयं सोच समझ कर, इंटरनेट से, आमने-सामने की दोनों विंडो सीट्स ख़रीदीं हैं। जब यूरोस्टार को इस में कोई दिक़्क़त नहीं तो आप को किस बात की परेशानी है?” कांता ने अपने अध्यापिका वाले अंदाज़ में सख़्ती से कहा।

“आप अपनी टिकटें एक बार जाँच क्यों नहीं लेते?” उस ने थोड़ा ढीला पड़ते हुए कहा। लहजे से निर्देश की बजाय आग्रह अधिक झलक रहा था। इस से पहले कांता कोई और तीखा जवाब देती, उस की साथिन बीच में बोल पड़ी; “प्रिय, तुम ख़ुद ही अपनी टिकटें क्यों नहीं जाँच लेते?”

एक लम्बा साँस छोड़ते हुए उस ने अपना सामान नीचे रखना शुरू किया - जब हाथ खाली हुए तो जेबें टटोलने लगा। ज़ाहिर है वह टिकटें रख के भूल चुका था। “क्या टिकटें तुम्हारे पास हैं?” उस ने अपनी साथिन से हताशा में पूछा।

इस बीच गाड़ी चल चुकी थी। मेरी नज़र गलियारे के दूसरी तरफ पड़ी तो उस तरफ़ की चारों सीटें खाली दिखाई दीं। अब और यात्रियों के आने की संभावना न के बराबर थी।

“चिंता मत कीजिए, आप यहाँ बैठ सकते हैं,” स्थिति को सँभालने की इच्छा से मैंने शीघ्र अपनी सीट छोड़ते हुए कहा। और उतनी ही शीघ्रता से, कांता को प्रतिक्रिया का अवसर न देते हुए, मैं गलियारे के दूसरी तरफ था। कांता के चेहरे से अप्रसन्नता स्पष्ट झलक रही थी। मेरे बार-बार इशारा करने पर वह बड़े बेमन से उठी और मेरी ओर आ गयी। “किस तरफ़ बैठना पसंद करोगी?” मैंने फुसलाते हुए पूछा, यह जानते हुए कि उसे गाड़ी की चाल के विपरीत बैठना अच्छा नहीं लगता।

“आप को ऐसा करने की क्या ज़रूरत थी?” उस ने अपनी मरज़ी की सीट पर बैठते हुए कहा। “यह लोग भी तो इधर आ कर बैठ सकते थे। मुझे इन लोगों का ऐसा व्यवहार बिलकुल अच्छा नहीं लगता। हम इन के माँ-बाप की उम्र के हैं, थोड़ा भी लिहाज नहीं!” उसने अब शिष्टतावश हिंदी में बोलते हुए कहा ताकि उन्हें हमारी बातों की भनक न लगे।

यह लोग या तो कैनेडियन थे या अमेरिकन। इन का अंग्रेज़ी भाषा का उच्चारण यह स्पष्ट कर रहा था। हाव-भाव और पहरावे से पढ़े-लिखे व्यावसायिक लग रहे थे। यात्रा के दौरान इन से एक अच्छी बातचीत हो सकती थी, मैं मन ही मन यह सोचे बिना न रह सका - यद्यपि कांता को सहयात्रियों से अकारण बातें करने की मेरी आदत कतई पसंद नहीं थी। ख़ैर, फ़िलहाल तो मुझे मौजूदा समस्या का समाधान करना था। कांता को प्रयास से प्राप्त की हुईं सीटें छोड़ देने का अभी तक मलाल था। लेकिन वास्तव में इस गाड़ी में विंडो सीट्स का कोई विशेष महत्व नहीं था। डिब्बे के पक्ष मोटे कांच के काफ़ी बड़े पैनल से बने हुए थे। किसी भी सीट से दोनों ओर का बाहरी दृश्य अच्छी तरह दिख रहा था। और यूँ भी हमें बदले में दो विंडो सीट्स मिल गयीं थीं। यह समझ में आते ही कांता का ग़ुस्सा जाता रहा। ‘शायद अच्छा ही हुआ’, उस ने सोचा होगा। अब कम से कम, मेरा सहयात्रियों से बिना मतलब गप्पें लगाने का कोई अंदेशा नहीं था।

कांता ने साथ लाया हुआ खाने-पीने का सामान निकाला और हम नाश्ता करने में जुट गये। गलियारे के पार, थोड़ी देर एक दूसरे की बगल में बैठने के उपरांत, वे लोग भी अब आमने-सामने की विंडो सीट्स पर बैठे हुए नाश्ता कर रहे थे। “हमारे वहाँ बैठने से तो इन्हें बड़ी आपत्ति थी!” कांता से कहे बिना रहा नहीं गया।

कुछ ही देर में गाड़ी समुंदर के नीचे बनी लगभग पचास किलोमीटर लम्बी सुरंग में प्रवेश करने वाली थी। यह फ़ासला लगभग बीस मिनट का था। डिब्बे में रोशनी रहेगी इस बात से तो आश्वस्त था लेकिन बीस मिनट सुरंग में रहने के विचार से मन घबरा रहा था। तंग, घुटे हुए स्थान मुझे वैसे ही विचलित करते हैं और ऊपर से किसी अनहोनी की आशंका! यूरोप में कई बार रेलगाड़ी से सफ़र कर चुका था परन्तु दो-तीन मिनट से अधिक किसी सुरंग से गुज़रने की नौबत नहीं आई थी। काश आस पास की सीटें खाली न होतीं! बातचीत में बीस मिनट बीतते क्या देर लगती? अब कांता से इतनी देर नयी क्या बात हो सकती थी? कांता मेरा भय जानती थी। उसने पर्स से कुछ काग़ज़ निकाले और मुझे आगे की यात्रा का विस्तृत विवरण देने लगी। सुनते हुए कब आँखें बंद हो गयीं पता ही नहीं चला।

“देखो फ्रांस आ गया है,” उसने मुझे झकझोरते हुए कहा। अब आपसी बातचीत की अपेक्षा हम बाहर का दृश्य देखने में मग्न हो गये। खेत-खलिहान, गाँव, क़स्बे तेज़ी से पीछे छूटते जा रहे थे। पेरिस पहुँचे तो लगा जैसे सवा दो घंटे की यात्रा समय से पहले ही समाप्त हो गयी हो।

वे दोनों जल्दी-जल्दी अपना सामान बटोर कर गाड़ी से उतर गये। मैं भी अपना सामान समेटने खड़ा हुआ तो गलियारे में गिरे हुए दो पासपोर्ट देख कर चौंक गया! उठाते ही पता चल गया कि कैनेडियन पासपोर्ट थे। इस बीच कांता की दृष्टि मेरी ही ओर थी।

“अरे यह क्या? क्या यह असली हैं?” उस ने पास आ कर आश्चर्य से पूछा।

“तुम्हें नकली लग रहें हैं?” मैंने पासपोर्ट खोल कर तसल्ली करते हुए कहा।

एक क्षण के लिए हम दोनों सोचने लगे कि क्या किया जाये।

“आप जल्दी उन के पीछे जाइये, वे लोग निकल जायेंगे,” कांता ने व्यग्रता से कहा।

“ठीक है। मैं सामान यहीं प्लेटफार्म पर रख देता हूँ। तुम यहीं मेरा इंतज़ार करना।”

“देखो, मेरे आने से पहले यहाँ से हिलना नहीं,” मैंने जाते-जाते फिर दोहराया।

हालाँकि हमारे सेक्शन में सीटें खाली थीं लेकिन प्लेटफार्म पर काफ़ी लोग थे। भाग कर उनका पीछा करना असंभव था। मैंने एक बेंच पर खड़े हो कर पहले उन्हें दूर से तलाशने की कोशिश की। उस पुरुष का क़द लम्बा था इस लिए वह जल्दी ही मेरी नज़र में आ गया। वे लोग अधिक दूर नहीं थे लेकिन मुख्य प्रतीक्षालय से पहले उन तक पहुँचना आवश्यक था, वहाँ की ज़बरदस्त भीड़ में वे दोबारा गुम हो सकते थे। मैं किसी तरह भीड़ में रास्ता बनाते हुए तेज़ क़दमों से उनके पीछे हो लिया।

"हेलो, हेलो ज़रा एक मिनट रुकिए तो!” मैंने पास पहुँचते ही ऊँची आवाज़ में पुकारना शुरू कर दिया। वह दोनों ठिठक कर रुके और पीछे मुड़ कर आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगे।

“आप के पासपोर्ट,” मैंने पास आ कर कहा।

वह दोनों हाथों से अपनी जेबें टटोलने लगा। जैसे मेरी बात पर विश्वास न हुआ हो या फिर निश्चित करना चाहता हो कि वाकई उस के पासपोर्ट गुम हैं।

“आप ही के हैं। मैंने देख लियें हैं।“

“हे भगवान!” दोनों के मुँह से एक साथ निकला। उस ने पासपोर्ट मेरे हाथ से लिए, जल्दी से उन्हें खोल कर देखा और सिर हिला कर अपनी संतुष्टि व्यक्त की।

“ओह मेरे भगवान! आप ने तो हमारी छुट्टियाँ बर्बाद होने से बचा लीं। आप का बहुत बहुत धन्यवाद,” महिला ने कृतज्ञता से कहा।

“स्वागत है!” मैंने स्वाभाविक औपचारिकता से उत्तर दिया। “वैसे आप कैनेडा में कहाँ रहते है? मेरा नाम विजय सूरी है। हम लोग मोंट्रियाल से हैं। मुझे ऐसा लग रहा था कि आप कैनेडियन हो सकते हैं।”

“क्या संयोग है?” उसने चहकते हुए कहा। “हम दोनों भी मूलतः मोंट्रियाल से ही हैं। वहीं पैदा हुए, वहीं पले-बढ़े। आज कल कैलगरी में रहते हैं। आप मोंट्रियाल में क्या करते हैं?”

“मैं एक डॉक्टर हूँ। मोंट्रियाल जनरल हॉस्पिटल में कार्डियोलॉजिस्ट हूँ।”

“वाकई! तब तो आप मेरी माँ को शायद जानते हों? शायद नहीं? उन्हें अब काम छोड़े पाँच-छह साल हो चुके हैं – डॉक्टर कैथरीन ब्राउन, वह वहाँ गायनाकोलॉजिस्ट थीं,” महिला ने तुरंत उत्सुकता से पूछा।

“उन्हें कौन नहीं जानता! अच्छी तरह से तो नहीं, लेकिन मैं उन से परिचित ज़रूर था।”

“सचमुच कितनी छोटी है यह दुनिया! हम दोनों डेंटिस्ट हैं। अपने ही क्लिनिक में काम करते हैं। पढ़ाई करने अल्बर्टा आये थे और वहीं रह गये,” पुरुष ने कहा।

उन दोनों का चेहरा अब बिलकुल तनाव मुक्त था। लहजे में मित्रता और सौहार्द्र भाव आ गया था। “मैं रिचर्ड हूँ, रिचर्ड स्मिथ और यह मेरी पत्नी क्रिस्टीन,” रिचर्ड ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा। क्रिस्टीन ने भी तपाक से हाथ मिलाया।

“शादी की दसवीं साल गिरह मनाने निकले हैं। पिछले एक साल से योजना बन रही थी। बच्चों को रिचर्ड के माता-पिता संभाल रहे हैं। कितनी मुसीबत हो जाती अगर पासपोर्ट गुम हो जाते। सारा मज़ा किरकिरा हो जाता। है न रिचर्ड?” क्रिस्टीन भावुक होने लगी।

मुझे अचानक कांता का ख़्याल आया।

“अब मुझे चलना चाहिये। वहाँ मेरी पत्नी मेरा इंतज़ार कर रही है,” मैंने दूर खड़ी कांता की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

“ज़रूर! और एक बार फ़िर आप का धन्यवाद!”

“और हाँ, सीटों को लेकर ग़लतफ़हमी के लिए मैं दिल से माफ़ी चाहता हूँ,” उसने रुक कर कुछ झेंपते हुए कहा।

“कोई बात नहीं। कई सीटें खाली थीं। कुछ परेशानी नहीं हुई,” मैं चलने लगा तो रिचर्ड ने फिर से हाथ आगे बढ़ा दिया। क्रिस्टीन हाथ मिलाने की बजाये गले लग गयी।

कुछ दूर चलने के बाद मैंने अकारण ही मुड़ कर पीछे देखा। वह दोनों अभी तक वहीं खड़े थे। मेरी ही तरफ देख रहे थे। दूर से जैसे ही नज़रें मिलीं तो एक साथ दोनों का हाथ अभिवादन की मुद्रा में उठ गया। मैंने भी अपना हाथ उठा कर उन्हें एक बार फिर अलविदा कहा और शीघ्रता से कांता की ओर चल दिया।

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