गाँधी धीरे धीरे मर रहे हैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुशील कुमार शर्मा1 Oct 2019
(गाँधी जयंती पर विशेष )
गाँधी धीरे धीरे मर रहे हैं
हमारी सोच में
हमारे संस्कारों में
हमारे आचार व्यवहारों में
हमारे प्रतिकारों में
गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं।
गाँधी 1948 में नहीं मरे
जब एक आताताई की गोली
समा गई थी उनके हृदय में
वो गाँधी के मरने की शुरुआत थी
गाँधी कोई शरीर नहीं था
जो एक गोली से मर जाता
गाँधी एक विशाल विस्तृत आसमान है
जिसे हम सब मार रहें है हरदिन।
हम दो अक्टूबर को
गाँधी की प्रतिमाओं को पोंछते हैं
माल्यार्पण करते हैं
गाँधीवाद, सफ़ाई, अहिंसा पर
होते हैं ख़ूब भाषण
शपथ भी ली जातीं हैं
और फिर रेप होते हैं
हत्याएँ होतीं हैं
राजनीति होती है
और हम तिल तिल कर
मारते जाते हैं गाँधी को।
अभी भी वक़्त है
अंतिम साँसें ले रहे
गाँधी के आदर्शों को
अगर देनी है संजीवनी
तो राष्ट्रनेताओं को छोड़नी होगी
स्वार्थपरक राजनीति
राष्ट्रविरोधी ताक़तों के विरुद्ध
होना होगा एकजुट।
कट्टारपंथियों को देनी होगी मात।
हमें ध्यान देना होगा
स्वच्छता,अहिंसा और सामुदायिक सेवा पर।
बनाये रखनी होगी सांप्रदायिक एकता।
अस्पृश्यता को करना होगा दूर।
मातृ शक्ति का करना होगा सशक्तिकरण।
जब कोई आम आदमी विकसित होता है
तो गाँधीजी उस विकास में जीवित होते हैं।
जब कोई दलित ऊँचाइयों पर जाता है
तब गाँधीजी मुस्कुराते हैं।
जब हेमादास भारत के लिए पदक लाती है
गाँधीजी विस्तृत होते हैं
गाँधीजी भले ही भारत में
रामराज्य का पूर्ण स्थापन नहीं कर सके।
भले ही वो मनुष्य को
बुराइयों से दूर न कर सके।
किन्तु युगों युगों तक उनके विचार
प्रासंगिक रहेंगे।
गाँधी मानवता के प्रतीक हैं।
गाँधी श्रद्धा नहीं सन्दर्भ हैं।
गाँधी व्यक्ति नहीं भारत देश हैं।
गाँधी प्रेरणा नहीं आत्मा हैं।
सुनो
मत क़त्ल करो अपनी आत्मा का
मत मारो गाँधी को।
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