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गाँधीजी का दूत

(रचनाकाल – 1967)

 

भारत की आज़ादी की लड़ाई में बड़े-बड़े नेताओं को याद करते समय हम उनके सहयोगियों की भूमिका अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। लेकिन सच तो यह है कि इन अल्पज्ञात व्यक्तियों के योगदान के ज़िक्र के बग़ैर भारत का इतिहास समझा ही नहीं जा सकता। अब अटपटे से लगनेवाले निर्णय लेने के पीछे आख़िर क्या मजबूरी थी? शीर्षस्थ नेता उस समय भी एक-दूसरे पर भद्दे आरोप लगाते थे या उनका आचरण कुछ अलग हट कर था? गाँधीजी का रवैया कैसा था? – ऐसी बातें जानने के लिए हमें पुराने दस्तावेज़ों का सहारा लेना होगा। 

सुधीर घोष का उदाहरण लीजिये। हममें से बहुत कम को यह ज्ञात होगा कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ खट्टे-मीठे सम्बन्ध होने के बावजूद उस समय की शालीनता के अनुरूप पण्डितजी न केवल घोष के विचारों का सम्मान करते थे, बल्कि 1962 में चीनी आक्रमण के बाद उन्होंने घोष को ही सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमरीका से सम्बन्ध मज़बूत करने के लिए दोनों देशों की लम्बी यात्राओं पर भेजा था। 

लेकिन यह तो आज़ादी के बाद की बात हुई। सुधीर घोष केवल 29 वर्ष की अवस्था में स्वतंत्रता आंदोलन के शीर्ष नेता, 77 वर्षीय महात्मा गाँधी, से कुछ ऐसे जुड़े कि अन्त तक अलग नहीं हुए। बात अप्रैल 1946 की है। लगातार सत्रह दिनों तक मुस्लिम लीग और कांग्रेस के नेताओं को सत्ता-हस्तान्तरण के बारे में अपना पक्ष समझाने के बाद कैबिनेट मिशन एक सप्ताह के लिए कश्मीर चला गया ताकि उसकी अनुपस्थिति में कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपने सहयोगियों के साथ भली-भाँति विचार-विमर्श कर लें। भारत-त्याग के सम्बन्ध में उसका निश्चय लगभग पक्का था। 10 अप्रैल को प्रख्यात उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला ने मिशन के सदस्यों से अपने घर भोज के अनन्तर पूछा, "आम ख़याल है कि आप भारत-त्याग का निश्चय कर चुके हैं, किन्तु वायसराय और उनके ब्रिटिश कर्मचारियों के विषय में लोगों को शंका है। यदि वायसराय आपके साथ सहयोग न करें, तो?" 

सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स ने तुरन्त उत्तर दिया,"तो फिर हम वायसराय को भी साथ लेकर ही लौटेंगे।"

गुमनाम पत्रः बापू टूट गये

इस समय की एक घटना के बारे में गाँधीजी के मुख्य निजी सचिव प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ’द लास्ट फ़ेज़’ में लिखा हैः

“कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव पर विचार कर ही रहे थे कि 28 अप्रैल अपराह्न गाँधीजी को संदेश मिला कि लॉर्ड पेथिक-लॉरेन्स और सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स उनसे अविलम्ब मिलना चाहते हैं। मुलाक़ात भंगी बस्ती में भी हो सकती है और वायसराय भवन के उद्यान में भी, किन्तु वे वायसराय भवन के उद्यान को ही पसन्द करेंगे क्योंकि वहाँ पूरा एकान्त मिलेगा जबकि भंगी बस्ती जाने से बात फैल जाएगी। शाम को गाँधीजी वायसराय भवन गये, उद्यान में गोल जलाशय के पास वार्ता आरम्भ हुई, और गाँधीजी को पता चला कि कांग्रेस के अन्दर कुछ गोलमाल होने लगा है। कैबिनेट मिशन को कांग्रेस में गाँधीजी के एक सहकर्मी का पत्र मिला था, लेकिन गाँधीजी या कांग्रेस कार्यसमिति को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं थी। इस रहस्योद्घाटन से गाँधीजी स्तब्ध रह गये।”

लॉरेन्स और क्रिप्स का उक्त संदेश सुधीर घोष ही गाँधीजी के पास ले गये थे, और उन्होंने ही इस बात पर भी ज़ोर दिया था कि गाँधीजी के साथ एकान्त में बातचीत से ग़लतफ़हमी दूर की जानी चाहिये। प्यारेलाल ने पत्र की बात से गाँधीजी के स्तम्भित रह जाने की बात तो लिखी, पर यह नहीं बताया कि वह पत्र मौलाना आज़ाद ने लिखा था और किसी भी सहकर्मी को उसकी जानकारी नहीं थी।

मौलाना ने अपनी पुस्तक ’इण्डिया विन्स फ़्रीडम’ में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कैबिनेट मिशन से उनकी वार्ता का विवरण दिया है। भारत की साम्प्रदायिक समस्या के बारे में उन्होंने लिखा है, "सम्प्रदाय के तौर पर मुसलमान अपने भविष्य के बारे में बहुत उद्विग्न थे। हाँलाकि वे कई प्रदेशों में बहुसंख्यक थे और प्रादेशिक स्तर पर उन अंचलों में उनके लिए भय का कोई कारण न था, लेकिन समग्र देश में वे अल्पसंख्यक थे और इस कारण उन्हें स्वाधीन भारत में अपनी मर्यादा-प्रतिष्ठा निरापद न रह पाने की आशंका थी।" ब्रिटिश कैबिनेट मन्त्री भी ऐसा ही सोचते थे। साम्प्रदायिक समस्या और उसके समाधान के सम्बन्ध में मौलाना के और मिशन के विचारों में कोई अन्तर न था, यह बात मौलाना ने उक्त पुस्तक में स्वीकार भी की है। मुसलमानों की आशंका के निवारण के लिए मौलाना का सुझाव था कि संघीय शासन व्यवस्था में सत्ता को यथासम्भव विकेन्द्रित रखा जाए, केन्द्र पर केवल प्रतिरक्षा, संचार साधनों, और विदेश नीति का दायित्व रहे, और प्रदेश बाक़ी मामलों में यथासाध्य स्वाधीन रहें। अपनी पुस्तक 'गाँधीज़ एमिसरी' में घोष लिखते हैं: 

“यह कोई अस्वाभाविक बात न थी, मौलाना का उद्देश्य भी अच्छा था। किन्तु उद्देश्य कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे बेख़याली में अपनी सीमा से बाहर जा रहे थे। शायद उन्होंने सोचा होगा कि इतिहास उन्हें एक महानायक के रूप में स्वीकार करेगा और आनेवाला युग कहेगा कि मौलाना के साम्प्रदायिक समाधान के फलस्वरूप ही ब्रिटेन की सरकार सत्ता हस्तान्तरित करने में समर्थ हो सकी। इतिहास में इस प्रकार स्मरणीय बन जाने के लोभ में ही उन्होंने अपनी अधिकार-सीमा का उल्लंघन किया था।”

पंडित नेहरू असामान्य गुण-सम्पन्न तो थे, पर भावुक भी थे। वही कांग्रेस में मौलाना आज़ाद के सबसे बड़े हितैषी थे। दूसरी ओर, सरदार पटेल वज्रनिश्चय पुरुष थे। उनकी व्यावहारिक बुद्धि भी बड़ी तीक्ष्ण थी। वे कांग्रेस में मौलाना के सबसे कट्टर आलोचक थे। मुस्लिम धर्मशास्त्रों के सुपण्डित मौलाना के पर्याप्त उदारमना होने के बारे में सरदार को सन्देह था। उधर गाँधीजी मौलाना की सच्चाई के प्रति आस्थावान तो थे, किन्तु उन्हें मौलाना की योजना में पाकिस्तान का बीज दिखने लगा था। 

मिशन ने 29 अप्रैल को कुछ मूल नीतियों के आधार पर मौलाना की योजना से अत्यधिक मिलती-जुलती योजना प्रस्तुत की, और विचार-विमर्श के लिए कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों के समक्ष 1 मई को शिमला चलने का प्रस्ताव रखा। इस सुझाव ने गाँधीजी को परेशान कर दिया। मिशन ने उन्हें यह समझाने की भरसक चेष्टा की कि शिमला वार्ता में भाग लेने से कोई क्षति नहीं होगी, पर गाँधीजी की उलझन समाप्त नहीं हुई। गुमनाम पत्र की वज़ह से उनका अन्तर एक प्रचण्ड झंझावात से प्रताड़ित था। कहीं कोई गड़बड़ी हुई है यह तो वे समझ गए थे, पर यह नहीं तय कर पा रहे थे कि वह गड़बड़ी कहाँ है, क्या है।

सोमवार को गाँधीजी मौनव्रत रखते थे, फिर भी चित्त की अशांति दूर करने के लिए उन्होंने सुधीर घोष को बुलवाया और उनके आते ही कुछ लिख कर एक काग़ज़ उनकी ओर बढ़ाया। घोष ने वह काग़ज़ वर्षों सहेज कर रखा। उस पर लिखा था: 

“क्रिप्स से कहो मेरी पार्टी बड़ी होगी। सब मैनरविल में नहीं ठहर सकते हैं। मैं कहीं जाना नहीं चाहता हूँ। शिमला में कहीं आराम से रहने को मिल सके तो जाना चाहूँगा। दिल चाहता है न जाऊँ। मुझे छोड़ दें तो ठीक होगा। यह सब ब्लेकर से बात करो। नैतिक बात भी है। दुनिया को एक बात कहते हैं और मेरे को दूसरी कहते हैं। उसमें मुझे क्यों डालें? तुम पर मेरा विश्वास है। मैं मानता हूँ तुम्हारा ईश्वर पर विश्वास ज़िन्दा विश्वास है। इसे सोचो और कुछ पूछना है तो पूछो।”

गाँधीजी के चेहरे पर वेदना देख घोष का हृदय टूक-टूक होने लगा। उन्होंने क्रिप्स को गाँधीजी की परेशानी की बात बताते हुए कहा कि गाँधीजी की बातचीत में भाग लेने की इच्छा नहीं है और वे शिमला नहीं जाना चाहते। सुन कर क्रिप्स भी विचलित हुए। गाँधीजी के मनस्ताप का कारण जानने के लिए उन्होंने घोष से देर तक बातचीत की। क्रिप्स ने कहा कि जिस नीति के आधार पर वे कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच वार्ता कराने की चेष्टा में लगे हैं, उसमें गाँधीजी की आपत्ति को वे समझ नहीं पा रहे क्योंकि इस सम्बन्ध में स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद से उनकी साफ़-साफ़ बात हो चुकी है। मौलाना ने इस आशय का पत्र भी लिखा है कि कांग्रेस के अन्दर चाहे जितना भी मतभेद हो, उन्हें विश्वास है कि अन्ततः उनकी बात मान ली जायेगी।    

घोष ने वापस आकर गाँधीजी को पत्र की बात बतायी। मौलाना का नाम सुन कर गाँधीजी स्तम्भित हो गये, पूछा, “क्रिप्स की बात तुमने ग़लत तो नहीं सुनी? या फिर, उनकी बात ग़लत तो नहीं समझी?”

घोष ने कहा, “मुझसे कहीं कोई भूल नहीं हुई।”

लन्दन स्थित इंडिया कन्सिलियेशन ग्रुप के सदस्य होरेस अलेक्ज़ैन्डर भी वहीं उपस्थित थे। उन्होंने अकेले में घोष को सान्त्वना दी, "गाँधीजी को लगा गहरा आघात उनके चेहरे से साफ़ स्पष्ट था, किन्तु तुम क्या करते? उन्हें बताने के सिवाय चारा भी क्या था?"

गाँधीजी उस रात सो नहीं सके। अगली सुबह उन्होंने घोष को निर्देश दिया कि वे मौलाना का पत्र दिखाने के बारे में क्रिप्स की रज़ामन्दी मालूम करें। क्रिप्स ने बताया कि मिशन की समझ में मौलाना के सभी साथियों को पहले से ही उस पत्र की जानकारी होनी चाहिए थी, किन्तु गाँधीजी के अनुरोध के मद्देनज़र उन्हें पत्र दिखा देना ही श्रेयस्कर होगा। उन्होंने अपने निजी सचिव जॉर्ज ब्लेकर द्वारा पत्र दिलवा दिया। 

गाँधीजी ने भंगी-बस्ती के अपने छोटे-से कमरे में पत्र पढ़ा और सामने पड़ी डेस्क पर दबा कर रख दिया। तभी मौलाना के आने की सूचना मिली। उस समय कमरे में गाँधीजी के अलावा घोष, राजकुमारी अमृत कौर, और प्यारेलाल थे। मौलाना को गाँधीजी से बातचीत के दौरान किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति नापसन्द थी। अतः सूचना मिलते ही यह सभी लोग हट गये। कमरे में ही एक ओर लकड़ी के पार्टीशन के पीछे अमृत कौर और प्यारेलाल गाँधीजी का काम किया करते थे। गाँधीजी ने उन्हें इजाज़त दे रखी थी कि किसी से भी बातचीत क्यों न हो रही हो, वे वहाँ बैठे रह सकते हैं। इसलिए उस दिन गाँधीजी और मौलाना की बातचीत अमृत कौर और प्यारेलाल ने सुनी। गाँधीजी ने सीधा सवाल किया कि जो बातचीत चल रही है, क्या उन्होंने उसके विषय में वायसराय को कोई पत्र लिखा है। मौलाना ने साफ़ इन्कार कर दिया। उन्हें क्या पता था कि वे जिस पत्र के अस्तित्व से इन्कार कर रहे थे, वह उनसे थोड़ी ही दूर गाँधीजी की डेस्क पर पड़ा था! 

मौलाना के जाने के बाद गाँधीजी ने वह पत्र घोष को दे दिया। अमृत कौर ने उस पत्र की एक प्रतिलिपि भी बना ली थी, पर गाँधीजी के निर्देश पर उसे नष्ट कर दिया गया। मौलाना ने उस छोटे-से पत्र में मिशन से गाँधीजी तथा प्रस्ताव के बारे में उनकी ग़लतफ़हमी से विशेष चिन्तित न होने का आग्रह किया था। मौलाना ने यदि यह ठान रखा था कि वे मिशन के प्रस्ताव को कांग्रेस से स्वीकार करा लेंगे, तो उन्हें ऐसा कहने का अधिकार था। उन्होंने शायद सोचा था कि उससे देश का उपकार होगा। किन्तु जिस सहकर्मी पर वे जीवन-भर विश्वास करते रहे थे वह इस तरह असत्यगामी हो सकता है, इस अनुभूति ने गाँधीजी को बड़ी वेदना पहुँचायी।

गाँधीजी ने दुःख के इस माहौल में सरदार वल्लभभाई और एक अन्य सहकर्मी को अपनी मानसिक अशान्ति की बात बतायी और उसके बाद उनके निकटवर्ती लोगों में मौलाना के पत्र की बात ज़ाहिर हो गयी। पण्डितजी यह राज़ जान कर ख़फ़ा हो गये, लेकिन उनका ग़ुस्सा मौलाना आज़ाद पर नहीं, सुधीर घोष पर था। उनके अनुसार घोष ने अनिष्ट पहुँचाने के उद्देश्य से ऐसा किया था। बाद में सरदार पटेल ने घोष को बताया कि देश के भाग्य-निर्माण की ऐतिहासिक बातचीत के दौरान पण्डितजी ने गाँधीजी की उपस्थिति में घोष के व्यक्तित्व और आंदोलन में उनकी भूमिका की कड़ी आलोचना की, क्योंकि गाँधीजी के निजी सचिव न होने और कोई स्पष्ट परिचय न होने के बावजूद घोष उनके प्रतिनिधि के रूप में समय-बेसमय पचासों बार ब्रिटिश सरकार के मन्त्रियों से मिलते थे। 

कार्य समिति की बैठक से बाहर निकलते ही सरदार पटेल ने घोष से कहा, "तुम्हारे सम्बन्ध में पण्डितजी के दिल में सन्देह दिखता है। उनके ख़याल में तुम्हारी भूमिका बड़ी रहस्यपूर्ण है। मुझे यह सुनकर बुरा लगा।"

घोष ने व्यग्रतापूर्वक पूछा, "बापूजी ने क्या कहा?"

वल्लभभाई बोले, "बापू ने मात्र एक बात कही – ’उसको मैं नहीं छोड़ सकता।’ बस, पण्डितजी चुप हो गये।"
यह पण्डितजी और घोष के अनुराग-विराग मिश्रित सम्बन्ध की सूचना थी। 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण तक दोनों का सम्बन्ध ऐसा ही रहा।

ख़ैर! उसी दिन घोष ने क्रिप्स के पास फिर जाकर कहा कि गाँधीजी के साथ अक्षुण्ण सम्पर्क रखने के लिए उन्हें सभी बातें स्पष्टतः बता देनी चाहियें। सलाह मानते हुए क्रिप्स बोले, "पहले मैं मौलाना के पास जाऊँगा और उन्हें यह सुयोग दूँगा कि वे सब बातें स्वयं स्पष्ट कर दें। यदि वे राज़ी नहीं हुए तो मैं गाँधीजी के पास जाकर उन्हें सबकुछ बता दूँगा।"

तदनुसार, क्रिप्स ने पहले मौलाना से सब बता देने का आग्रह किया पर मौलाना राज़ी नहीं हुए। फिर क्रिप्स ने गाँधीजी के सामने वास्तविकता ज़ाहिर कर दी। यह सुनकर दुःखी लॉर्ड पेथिक-लॉरेन्स ने भी घोष के सामने गाँधीजी से व्यक्तिगत बातचीत करने की इच्छा ज़ाहिर की। वे भी क्रिप्स के साथ भंगी-बस्ती जाना चाहते थे, किन्तु भारत सचिव का वहाँ जाना उचित नहीं था – तरह-तरह की चर्चा उठ खड़ी होती। अतः क्रिप्स ने घोष से कहा कि यदि उस शाम वे गाँधीजी को वायसराय हाउस के पीछेवाले उद्यान में ला सकें तो बहुत अच्छा होगा, दोनों टहलते-टहलते बात कर सकेंगे।

शाम को दोनों नेताओं ने गाँधीजी से शिमला चलने का आग्रह किया। पहले चाहे जो-कुछ भी हुआ हो, आगे उनके और कांग्रेसी नेताओं के गाँधीजी का उपदेश-परामर्श पाने के लिए बापू का शिमला में होना ज़रूरी था। अन्ततः गाँधीजी ने अनुरोध स्वीकार कर लिया।

बापू ने ठीक ही कहा था

दिसम्बर 1946 में यह साफ़ हो गया कि कांग्रेस और लीग के बीच चल रहा संघर्ष समाप्त नहीं होने वाला। अन्तरिम सरकार में दोनों के ही प्रतिनिधि थे और वहाँ भी दोनों के बीच संघर्ष चल रहा था। पहले यह तय हुआ था कि 9 दिसम्बर को संविधान-सभा का अधिवेषण बुलाया जाएगा, किन्तु अब सबके सहयोग से संविधान-निर्माण का कार्य आरम्भ करने में लीग कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी। संविधान-निर्माण-सम्बन्धी ब्रिटिश प्रस्ताव की स्वीकृति वापस लेते हुए उसने मुम्बई में जो प्रस्ताव स्वीकार किया था, उसे भी रद्द नहीं किया जा सकता था। इस प्रकार, लीग का अन्तरिम सरकार में शामिल न होना ही अधिक युक्तिसंगत होता। पर युक्ति का सहारा वह ले कहाँ रही थी! जिन्ना ने इस विषय पर वक्तव्य देते हुए कहा कि संविधान-निर्माण का प्रस्ताव कांग्रेस ने भी स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने यह भी कहा कि एक ओर असम तथा बंगाल और दूसरी ओर पंजाब, सीमाप्रान्त, बलूचिस्तान, तथा सिन्ध के प्रस्तावित संघ निर्माण पर कांग्रेस को आपत्ति है। कुल मिला कर भारत की राजनीतिक स्थिति लगभग वैसी ही हो गयी थी जैसी 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन से पहले थी। वही पुराना सवाल फिर सामने था – "पाकिस्तान, या अखण्ड भारत?"

यह सब देख ब्रिटेन की लेबर सरकार ने तय किया कि समस्या के समाधान के लिए वह पुनः प्रयत्न करेगी। दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में उसने लन्दन में दोनों पक्षों के नेताओं की बैठक आयोजित की। आरम्भ में नेहरू लन्दन जाने को राज़ी नहीं थे, किन्तु ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने एक व्यक्तिगत पत्र लिख कर उन्हें इसके लिए सहमत किया। फलतः 2 दिसम्बर को नेहरू, सरदार बलदेव सिंह, जिन्ना और लियाकत अली खाँ लन्दन पहुँचे। पर जैसी कि आशंका थी, यह बैठक भी असफल रही। तदुपरान्त6 दिसम्बर को लेबर सरकार ने एक विज्ञप्ति जारी की, जिसमें अपने प्रादेशिक संघ-निर्माण-विषयक प्रस्ताव को ठुकराते हुए उसने कांग्रेस से अपील की कि वह इसे स्वीकार कर संविधान-सभा में मुस्लिम लीग के योगदान का पथ प्रशस्त करे।  विज्ञप्ति में यह भी कहा गया कि यदि संविधान-सभा यह तय करेगी कि इस मौलिक प्रश्न को व्याख्या के लिए भारत के संघीय न्यायालय में पेश किया जाए, तो ऐसा हो सकेगा। किन्तु यह काम शीघ्रतापूर्वक करना होगा और संघीय न्यायालय की सम्मति मिलने तक संविधान-सभा में अन्तर्भुक्त दोनों प्रादेशिक संघों की बैठक स्थगित रहेगी। इस पर 22 दिसम्बर को कांग्रेस-कार्यसमिति ने घोषणा की कि अन्य पक्ष यदि मामले को संघीय न्यायालय में पेश करने अथवा इस सम्बन्ध में उसकी राय मानने को तैयार न हों, तो उसे न्यायालय में पेश करना व्यर्थ होगा। उसने यह बात पुनः दोहरायी कि कैबिनेट मिशन की योजना में प्रादेशिक स्वशासन की व्यवस्था थी तथा इस सम्बन्ध में संविधान-सभा के विभिन्न अंशों के मतदान की ब्रिटिश सरकार की व्याख्या प्रादेशिक स्वशासन की मूल नीति के विरुद्ध है। इस प्रकार, निष्कर्ष यह निकला कि गाँधीजी ने 14 नवम्बर के पत्र में घोष को जो लिखा था और जिसकी जानकारी घोष ने क्रिप्स और पेथिक-लॉरेन्स को भी दी थी, वही ठीक था। गाँधीजी ने लिखा था – "ब्रिटिश लोग यदि यह सोचते हैं कि भारत में पूर्णतः शान्ति स्थापित न होने तक वे देश नहीं छोड़ेंगे, तो वे एक असम्भव स्वप्न देख रहे हैं। वे जो कर सकते हैं, और जो उन्हें करना ही होगा, वह यह है कि सत्ता ग्रहण करने के इच्छुक योग्य दल को शत-प्रति-शत सत्ता सौंप दें, यथाशीघ्र सेना के ब्रिटिश अंश को समाप्त करें, और बाक़ी अंश को विघटित कर दें। शान्तिपूर्वक सत्ता-हस्तान्तरण का यही आदर्श मार्ग है। कैबिनेट अब तक इस बात को नहीं समझ सका है।"

लेबर सरकार सचमुच यह बात नहीं समझ सकी। उसने इस अभिमत को स्वीकार नहीं किया और आगे चलकर कांग्रेस तथा लीग के नेताओं के लिए ’शॉक ट्रीटमेंट’ की व्यवस्था की। 20 फ़रवरी को ब्रिटिश लोकसभा में एटली ने घोषणा की कि दोनों मुख्य दलों के बीच समझौता हो या नहीं, ब्रिटिश सरकार 1948 के जून महीने तक भारतीयों को सत्ता सौंप देने के लिए कृतसंकल्प है। समझौता न होने की स्थिति में विभिन्न प्रदेशों तथा देशी राज्यों को शनैः-शनैः सत्ता सौंपी जा सकती है। केन्द्रीय सरकार की बागडोर किसे थमायी जाय, इस प्रश्न पर भी नये सिरे से विचार किया जा सकता है। सत्ता ब्रिटिश भारत के केन्द्रीय शासन में शामिल किसी एक दल को समग्र रूप से हस्तान्तरित की जाए, कई क्षेत्रों में वर्तमान प्रादेशिक सरकारों को दी जाए, या किसी ऐसी संस्था को जिससे भारतीय जनसाधारण को अधिक लाभ हो, ब्रिटिश सरकार उस मुद्दे पर विचार करेगी। उसी विज्ञप्ति में एटली ने घोषणा की कि लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउण्टबैटन को भारत के वायसराय-पद पर नियुक्त किया जाएगा। 

उन दिनों सूचना और प्रसारण विभाग लन्दन हाई कमीशन में एक जन-सम्पर्क अधिकारी नियुक्त करने की बात सोच रहा था। यह विभाग पटेल के ही ज़िम्मे था। वल्लभभाई ने निश्चय किया कि अगले कुछ महीनों के महत्व को देखते हुए घोष को वहाँ रह कर यह काम सम्भालना चाहिए। घोष को काम तो पसन्द था, पर उन्होंने गाँधीजी की अनुमति लेनी चाही। गाँधीजी नोआखली के दंगाग्रस्त गाँवों के दौरे पर थे। उनका सान्निध्य ही विपन्न लोगों का सहारा था। घोष से लन्दन की बात सुनकर गाँधीजी बोले, "वहाँ जवाहरलाल का अपना आदमी, कृष्ण मेनन तो है ही। तुम वहाँ क्यों जाना चाहते हो? न, यह प्रस्ताव मुझे नहीं जँचा। मेरा ख़याल है, वहाँ जाकर तुम झंझट में पड़ जाओगे और तुम्हारे कारण मैं भी दुश्चिन्ता से घिर जाऊँगा। तुम झंझट में पड़ो, यह मैं नहीं चाहता। वल्लभभाई शक्तिशाली व्यक्ति हैं, विरोधियों का मुक़ाबला करना उन्हें अच्छा लगता है। किन्तु हर कोई उनकी तरह झंझटों का सामना नहीं कर सकता, यह बात वल्लभभाई नहीं समझते। न, उनके प्रस्ताव से मैं ख़ुश नहीं हूँ। तुम वल्लभभाई से इस बारे में एक बार और बात करो। जवाहरलाल को भी सब-कुछ बताओ। वे लोग जो ठीक समझें, वह करो।"

दिल्ली आकर घोष ने वल्लभभाई को गाँधीजी के विचार बताए। उन्होंने कहा, "बात मेरी समझ में नहीं आती। इससे कृष्ण मेनन का क्या सम्पर्क है? भारत सरकार और कृष्ण मेनन के बीच कोई सम्बन्ध है ही नहीं। वे वहाँ ग़ैर-सरकारी तौर पर हैं, इण्डिया लीग चलाते हैं। भारतीय हाई कमीशन से उनका क्या लेना-देना? क्रिप्स और पेथिक-लॉरेन्स जैसे समर्थ लोगों के साथ तुम्हारे इतने घनिष्ठ सम्बन्ध हैं और तुम उनके विश्वासपात्र हो, इस बात को लेकर मेनन को थोड़ी ईर्ष्या हो सकती है किन्तु वे तुम्हारा क्या कर लेंगे? तुम सरकारी काम से जा रहे हो। बापू यह सब नहीं समझते। कैसे समझेंगे? उन्हें सरकारी कामकाज तो चलाना नहीं पड़ता! मेरे ख़याल में तुम्हारा लन्दन जाना ही उचित है। हमारे लिए माउण्टबैटन अनजाने हैं, इसलिए क्रिप्स और पेथिक-लॉरेन्स से सीधा सम्पर्क रखना ज़रूरी है।"

वल्लभभाई को लन्दन में घोष को नियुक्त करने में थोड़ी कठिनाई भी उठानी पड़ी। वायसराय ने उन्हें लिखा कि कांग्रेस से घनिष्ठता के कारण घोष का समग्र भारत सरकार की ओर से बोलना सम्भव नहीं होगा। किन्तु सरदार पटेल दृढ़ निश्चयी थे। उन्होंने वायसराय को जवाब दिया कि उनका परामर्श मानना सम्भव नहीं क्योंकि बात लन्दन में राजदूत की नहीं बल्कि जन-सम्पर्क अधिकारी की नियुक्ति की है, और चुना हुआ व्यक्ति केम्ब्रिज का स्नातक और जन-सम्पर्क का अच्छा ज्ञाता होने के कारण उपयुक्त है। यदि उस समय वल्लभभाई को तनिक भी आभास होता कि छः महीने के अन्दर ही कृष्ण मेनन को लन्दन में हाई कमिश्नर नियुक्त कर दिया जाएगा, तो वे घोष को नहीं भेजते। गम्भीर दायित्व को देखकर घोष काम स्वीकार करना चाहते थे, और अन्ततः अपनी मंशा उन्होंने गाँधीजी को बता दी। उन्हें पहली मार्च को पालम हवाई अड्डे के लिए सपत्नीक रवाना होते समय गाँधीजी का तार मिला –

"ईश्वर तुम्हारी सहायता करें – बापू।"

रवाना होने से पहले घोष नेहरूजी से मिलने गए। वैसे तो नेहरूजी के घर के दरवाज़े घोष के लिए ख़ुले थे, पर उन्होंने कोई विशेष प्रसन्नता ज़ाहिर नहीं की। गम्भीरतापूर्वक बोले, "वहाँ तो स्टैफ़र्ड क्रिप्स से अक्सर मुलाक़ात होगी?" घोष ने जवाब दिया, "हाँ, मैं उनसे निकट सम्पर्क रखना चाहता हूँ।" इस पर नेहरूजी ने कहा. "तुम नहीं जानते, उनसे जितना अधिक मिलोगे, उन्हें उतना ही कम जानोगे।" घोष को क्रिप्स-जैसे आदमी के बारे में ऐसी धारणा विचित्र लगी। घोष को कृष्ण मेनन के बारे में गाँधीजी की आशंका याद थी और डर था कि मेनन उनके काम में बाधा डाल सकते हैं, इसलिए उन्होंने नेहरूजी से मेनन से मिलने के लिए परिचय पत्र माँगा। नेहरूजी ने एक सूखे-संक्षिप्त पत्र में लिख दिया कि वल्लभभाई पटेल घोष को भारतीय सूचना विभाग का भार ग्रहण करने के लिए लन्दन भेज रहे हैं, मानो स्पष्ट कर रहे हों कि इस नियुक्ति में उनका कोई हाथ नहीं। उन्होंने यह भी  लिखा कि उन्हें घोष की इस काम से सम्बद्ध योग्यता की जानकारी नहीं है, और उन्होंने घोष को कृष्ण मेनन के सम्पर्क में रहने को कहा है।  

हालाँकि पत्र में परिचय कम और चेतावनी अधिक थी, फिर भी घोष ने यथासमय उसे मेनन के सम्मुख प्रस्तुत किया। वे क्रिप्स के नाम वल्लभभाई की चिट्ठी भी लेते गए थे, जिसकी वजह से उन्हें क्रिप्स से निष्कपट और उदार व्यवहार मिला। वल्लभभाई को एक पत्र में यह बताते हुए घोष ने लिखा कि भारतीय-विषयक मामलों में क्रिप्स ही मुख्य व्यक्ति हैं।  उनका कहना है, "असल में तुम लोग यह चाहते हो कि हम कांग्रेस के साथ पक्षपात करें ताकि वह मुस्लिम लीग को दबा सके। हम तटस्थ हैं, ऐसा नहीं कर सकते। कांग्रेस को मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करना होगा।" घोष ने पत्र में लिखा कि क्रिप्स और उनके सहकर्मी शायद 16 मई की विज्ञप्ति में घोषित ब्रिटिश प्रस्ताव को यथेष्ट महत्व न देने के कारण कांग्रेस नेताओं से क्षुब्ध हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि भारत की तत्कालीन समस्या के पीछे पण्डितजी का जुलाई का वक्तव्य है जिसमें उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश प्रस्ताव को मान लेने के बावजूद कांग्रेस पर कोई दायित्व नहीं आया है और वह उस सम्बन्ध में जो चाहे कर सकती है। वो समझते हैं कि इस बात ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल कर रख दी है। घोष ने तर्क न करने की सलाह देते हुए लिखा कि क्रिप्स और उनके सहकर्मी यह चाहते हैं कि कांग्रेस किसी भी प्रकार मुसलमानों के मन से समस्त शंकाओं को दूर करते हुए अपनी 6 दिसम्बर की कैबिनेट मिशन प्रस्ताव की मंज़़ूरी को स्पष्ट करे। घोष ने एटली, क्रिप्स, और पेथिक-लॉरेन्स से मिले आभास के बारे में बताते हुए लिखा कि वे लोग क्रमशः सत्ता-हस्तांतरण को आवश्यक नहीं समझते और सोचते हैं कि जिन्ना जैसे बुद्धिमान व्यक्ति जल्दी ही समझ जाएँगे कि उस तरह मिलनेवाले पाकिस्तान से उनका कोई फ़ायदा नहीं होगा। जिन्ना के मन में यह विचार आने के बाद कांग्रेस अगर ब्रिटिश व्याख्या की अपनी विवेचना को स्पष्ट कर दे तो माउण्टबैटन को ऐसे निर्देश के साथ भेजना सम्भव होगा जिससे वे मुस्लिम लीग को संविधान सभा के अन्तर्गत ला सकें। घोष ने इन बातों के मद्देनज़र नये वायसराय के साथ उन्मुक्त मैत्री की नीति अपनाने का सुझाव दिया।

नये वायसराय, यानी लॉर्ड माउण्टबैटन, को 20 मार्च को लन्दन से रवाना होकर 22 मार्च को नयी दिल्ली पहुँचना था। उससे ठीक पहले, 19 मार्च को, उन्होंने घोष से मुलाक़ात की। वे भारत सचिव के कार्यालय में अपना कार्य-भार समझ रहे थे तभी उनके निजी सचिव कैप्टन लैसेल्स ने घोष से इस मुलाक़ात का आग्रह किया। पहली भेंट में ही पुराने मित्र जैसा व्यवहार करते हुए माउण्टबैटन ने बताया कि उन्होंने सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स और भारत सचिव से घोष के बारे में बहुत कुछ सुन रखा है और वे गाँधीजी से उनकी घनिष्ठता से भी वाक़िफ़ हैं। अपनी प्रस्तावित भारत कार्य-प्रणाली का परिचय देते हुए माउण्टबैटन ने कहा कि नयी दिल्ली पहुँच कर वे सबसे पहले गाँघीजी से ही मिलना चाहते हैं, पर चूँकि नेहरूजी के प्रयास के बावजूद गाँधीजी बिहार के दंगाग्रस्त क्षेत्र से अभी दिल्ली लौटने को तैयार नहीं, इसलिए घोष को गाँधीजी के नाम एक पत्र लिखकर माउण्टबैटन के हवाले करना होगा। उस पत्र में घोष और माउण्टबैटन की बातचीत का विवरण और गाँधीजी से दिल्ली आने का अनुरोध शामिल होना चाहिए।

गाँधीजी से मुलाक़ात के लिए वायसराय के स्तर का व्यक्ति सुधीर घोष जैसे आदमी से परिचय-पत्र माँगे, कितनी विचित्र बात थी! लॉर्ड वेवल इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते थे। स्पष्टतः नये वायसराय इस मामले में अधिक विचक्षण थे। घोष ने अगली सुबह पत्र दे दिया। बाद में उन्हें महात्माजी का पत्र मिला, जो इस प्रकार थाः

पटना,
21-5-47
चिरंजीव सुधीर और शान्ति,

तुम्हारे सभी पत्र मिले, पर इस समय काम का इतना बोझ है कि बहुत ज़रूरी पत्रों का ही जवाब दे रहा हूँ। तुमसे मुझे विशेष कुछ नहीं कहना, अगर तुम बताना चाहो तो सुनूँगा। वायसराय  के बारे में मुझे जो कुछ करना पड़ा है वह तुम जानते ही होगे। हम एक-दूसरे को पसन्द आये हैं। घटनाएँ ही साबित करेंगी कि वे किस धातु के बने हैं। लेकिन जैसा कि नौ-सेना के आदमी के लिए स्वाभाविक है, वे ख़ूब मेहनत कर रहे हैं।

वहाँ तुम दोनों की ही परीक्षा हो रही है। तुम लोग ससम्मान सफल होओगे, इसमें मुझे सन्देह नहीं है। शान्ति कैसी है? उसका स्वास्थ्य अच्छा तो है? वह वहाँ क्या सीख रही है?

मेरा काम बहुत कठिन है, किन्तु उसके बारे में कुछ कह नहीं सकता। जब इसे हाथ में लिया था तब ही इसकी दुरूहता को भाँप लिया था। आशा है, तुम्हें कुछ भारतीय अख़बार मिल रहे होंगे। अगाथा और अन्य बन्धुओं को मेरा स्नेह। उम्मीद है कि कार्ल हीथ की तबियत अब पहले से बेहतर होगी।

तुम दोनों को मेरा प्यार।

बापू

पत्र किसी बच्चे की लिखावट में था और अन्त में गाँधीजी ने अपने हाथ से दो पंक्तियाँ लिखी थीं – "कल तुम्हें जो पत्र लिखा था उस पर भूल से ग़लत पता लिख गया। यह पत्र उसी की नक़ल है। मूल  पत्र मैंने अपने हाथ से ही लिखा था।" वे इतने दुःखी और निस्संग थे, फिर भी यह बताना न भूले कि उन्होंने पत्र ख़ुद अपने हाथ से लिखा था। वे समझ गये थे कि किसी दूसरे की लिखावट में उनका पत्र पाकर घोष को दुःख हो सकता है। उनके प्रेम की गम्भीरता इस एक वाक्य से ही स्पष्ट हो जाती है। गाँधीजी की लिखावट वाला मूल पत्र भी ब्रिटिश डाक-विभाग की कार्यपटुता से घोष को देर-सबेर मिल ही गया। उस पर लिखा पता था – "सुधीर घोष, हाउस ऑफ़ कॉमन्स, लन्दन।" 

कुछ समय बाद गाँधीजी की आशंका सत्य सिद्ध करता घोष की परेशानियों का दौर शुरू हो गया। उन्हें पण्डितजी का ’व्यक्तिगत’ पत्र मिलाः

17, यॉर्क रोड
नयी दिल्ली, भारत
6 अप्रैल, 1947

प्रिय सुधीर,
    
लन्दन में 'भारत-बन्धु' के गठन के बारे में अख़बार में पढ़ कर विस्मय हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसी समितियों का गठन अच्छा है, पर मुझे लगता है कि सरकारी तौर पर ऐसा प्रयास सुविधाजनक नहीं हो सकता। कांग्रेस ने भी कभी ऐसी कोशिश नहीं की है क्योंकि संस्थागत-पृष्ठभूमि ऐसी संस्थाओं के मूल्य कम कर दिया करती है। भारत सरकार के प्रयासों पर तो यह बात और ज़्यादा लागू होती है। इस प्रयत्न को ग़लत समझा जा सकता है और दलीय प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।
    
मैंने इस बारे में सरदार पटेल से बात की है और वेलोडी (लन्दन में भारत के हाई-कमिश्नर) को भी लिखा है। अवांछनीय परिणाम के डर से मैं समिति को तोड़ने की बात तो नहीं कहता, पर यह ज़रूर चाहूँगा कि तुम और दूसरे सम्बद्ध लोग इस और ऐसे ही अन्य मामलों में मिलजुल कर कदम उठायें।
    
समिति के सदस्यों की सूची अच्छी है, उनके मिलने-जुलने की व्यवस्था भी बढ़िया है, लेकिन सरकार की ओर से ऐसी कोशिश की बात नहीं जमती। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे भारत सरकार के लिए किये गए आधिकारिक काम को दलीय गतिविधि मान लिया जाय या लन्दन और दूसरे इलाक़ों में लोग उसकी आलोचना करते फिरें। इस समय हम कठिन दौर से गुज़र रहे हैं, हमें अपने काम के बारे में सतर्क रहना चाहिये।

स्नेहपूर्वक तुम्हारा,
जवाहरलाल नेहरू

बात दरअसल सिर्फ़ इतनी थी कि घोष ने कुछ लोगों के साथ ’भारत बन्धु’ नाम से गोष्ठी संगठित करने की चेष्टा की थी। इसके नेता पण्डितजी के पुराने मित्र एच. एस. ब्रेल्सफ़ोर्ड थे। गोष्ठी का उद्देश्य ब्रिटिश जनता को भारत की समस्याओं और असुविधाओं से अवगत कराना था। गोष्ठी का भारत सरकार से कोई सम्बन्ध नहीं था। ब्रेल्सफ़ोर्ड ने पण्डितजी को एक पत्र द्वारा गोष्ठी के कार्यकलाप और उद्देश्यों के बारे में बताते हुए लिखा – "हम इस समिति में दलगत भावना का विचार किये बग़ैर उन सब अंग्रेज़ों को शामिल करना चाहते हैं जिनका भारत के प्रति मैत्री-भाव है और जो स्वाधीनता के नवयुग में घनिष्ठ तथा परस्पर-मर्यादापूर्ण सम्बन्ध रखना चाहते हैं। इसके सदस्य सिर्फ़ ब्रिटिश लोग ही हो सकते हैं। कुछ भारतीयों ने ग़लतफ़हमी में इसे इण्डिया लीग के समानान्तर संस्था मान लिया है, जो सही नहीं है। इसका उद्देश्य और संगठन बिल्कुल ही भिन्न है।"

लेकिन ब्रेल्सफ़ोर्ड के पत्र का कोई फल न निकला। जैसा कि आगे प्रस्तुत नेहरू के पत्र से ज़ाहिर है, विवाद बढ़ता ही गया।

नयी दिल्ली,
20 जून, 1947

प्रिय सुधीर,

कुछ दिन पहले तुम्हारे पत्र के उत्तर में मैंने एक छोटा-सा पत्र भेजा है। उसके बाद सरदार पटेल ने उनके नाम तुम्हारे 28 मई के पत्र की एक नक़ल मेरे पास भेजी। वे निश्चय ही तुम्हें अलग से उत्तर देंगे, किन्तु मैं तुम्हें इस विषय में अपनी धारणा स्पष्टतः बताना उचित समझता हूँ।

पहली बात – यह अत्यन्त निरर्थक और भ्रान्त धारणा है कि तुम लन्दन में सरदार पटेल का प्रतिनिधित्व कर रहे हो और मेरा प्रतिनिधि कोई दूसरा आदमी है। यह कहना भी बेवक़ूफ़ी है कि सरकार में पटेल और मैं दो अलग नीतियों का अनुसरण कर रहे हैं। बुद्धिमान लोगों में मतभेद होना  स्वाभाविक है, और कुछ मामलों में हमारे मत भी एक-जैसे नहीं हैं, लेकिन हम घनिष्ठ सहयोग से काम कर रहे हैं। इसकी वजह सिर्फ़ यह नहीं है कि हमारा सम्बन्ध बहुत पुराना है और हमारे मन में एक-दूसरे के प्रति श्रद्धाभाव है, बल्कि यह भी है कि वर्तमान अवस्था में यह सहयोग अत्यंत आवश्यक है। लन्दन में तुम किसी मन्त्री या व्यक्तिविशेष की नहीं, भारत सरकार की नुमाइंदगी कर रहे हो और तुम्हें सरकारी नियम के मुताबिक़ ही चलना होगा।

कभी-कभी सरकारी काम लाल-फीतों में उलझ जाते हैं और इस तरीक़े की निन्दा भी होती है। फिर भी, नियमों के पालन और कार्यपद्धति के प्रति निष्ठा रखने का बड़ा महत्व है। निर्धारित ढंग से काम नहीं होने पर विश्रंखलता और ग़लतफ़हमी का जन्म होता है। लन्दन में हाई कमिश्नर ही तुम्हारे निकटतम वरिष्ठ अधिकारी हैं। तुम्हें उनसे निर्देश तथा हर महत्वपूर्ण काम के बारे में सलाह लेनी चाहिए। वे केवल आधिकारिक तौर पर ही तुम से वरिष्ठ नहीं, वे ज़िन्दग़ी के बारे में भी ज़्यादा जानते हैं। वे लन्दन में बहुत दिनों से काम कर रहे हैं और तुम्हें सही मार्गदर्शन दे सकते हैं। वैसे इसके मानी यह नहीं कि तुम भारत सरकार के सूचना और प्रसारण विभाग, जिससे तुम ख़ास तौर से सम्बद्ध हो, सम्पर्क नहीं रख सकते। 

तुम्हारे पत्र और कुछ अन्य विवरणों से लगता है कि लन्दन में तुम्हारे सामने कुछ समस्याएँ आई थीं। तुम्हारे विषय में कुछ वितर्क भी दिखा। मुझे इस पर आश्चर्य नहीं। आदमी को नयी जगह पर होशियारी से पाँव धरना चाहिए और ख़्वामख़ाह संदेह से बचने के लिए सहकर्मियों की शुभेच्छा पाने की कोशिश करनी चाहिए। भारत की राजनीति इस समय जटिल है। कम-से-कम बाहर से तो ऐसा ही दिखाई पड़ता है, और हालात रोज़ बदल रहे हैं। इस बदलाव को और जिस नीति का पालन करना हो उसे समझ सकना सरकारी मुलाज़िम के लिए आसान नहीं होता। वह यह भी नहीं जान पाता कि नयी सरकार के आने से नीति में कोई बदलाव आया भी है या नहीं।

लन्दन षड़यन्त्रों का क्रीड़ास्थल है। वहाँ भारतीय संगठनों की तादाद कम नहीं है। उनमें से ज़्यादातर सिर्फ़ काग़ज़ों में ही जिन्दा हैं। इंग्लैण्ड प्रवासी भारतीयों में भी तरह-तरह के लोग हैं - कुछ बहुत अच्छे हैं तो कुछ एकदम अवांछनीय भी हैं। कुछ सिर्फ़ दूसरों की कमियाँ ही गिनते रहते हैं। नये शख़्स को ऐसे सभी लोगों का सामना करना होता है। अगर उसके काम करने का तरीक़ा लड़ाई-झगड़ेवाला और विस्तारवादी हो तो उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा।

अपने पत्र में तुमने कृष्ण मेनन और लन्दन में उनके सहकर्मियों के बारे में लिखा है। तुमने इण्डिया लीग का भी ज़िक्र किया है। कृष्ण मेनन को मैं अच्छी  तरह जानता हूँ। उनके और उनके काम के बारे में मेरी राय बहुत ऊँची है। मैं उन्हें अपने सर्वाधिक दक्ष लोगों में गिनता हूँ। उनका काम चमत्कारपूर्ण है और मुझे उम्मीद है कि वे आगे चलकर इससे भी ज़्यादा दायित्वपूर्ण काम करेंगे। इण्डिया लीग में कई तरह के लोग हैं, और भारतीय दृष्टि से वही इंग्लैण्ड में हमारा सबसे ज़्यादा सक्षम संगठन है। उसमें कमियाँ भी हैं, उसने पहले कुछ ग़लतियाँ भी की हैं, लेकिन ऐसा तो भारत या दूसरी जगहों पर स्थित संस्थाओं के बारे में भी कहा जा सकता है। हम इण्डिया लीग के काम का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहते हैं।

तुम्हारे लन्दन पहुँचने के बाद से कृष्ण मेनन इंग्लैण्ड से प्रायः बाहर ही रहे हैं। उन्हें हमारा बन कर कुछ और काम भी करना है। उस काम का दायित्व लेकर वे जल्दी ही इंग्लैण्ड लौटेंगे। तुम्हें उनके साथ सम्पर्क रखना चाहिए, और उन्हें अपनी परेशानी बतानी चाहिए। आम तौर पर तुम्हें वेलोडी के परामर्श के मुताबिक़ चलना होगा। 

उम्मीद है कि तुम जल्दी ही परेशानियों से छुटकारा पा सकोगे। दूसरों पर तो हमारा कोई बस चलता नहीं, इसलिए तुम्हें अपने व्यवहार पर ही क़ाबू पाना होगा। तुम इंग्लैण्ड में अपनी कर्मठता, बुद्धिमानी, मेहनत, और मिलनसारिता के बल पर अच्छा काम कर सकते हो। तुममें सिर्फ़ तज़ुर्बे की कमी और कच्चापन है, जो जल्दी ही ठीक हो जाएगा।

मेरा ख़याल है कि राजनीति से तुम्हारा शुरूआती मेल ही कुछ उल्टा रहा। राष्ट्रीय नीति के एक बड़े काम को लकर तुम एक वरिष्ठ मन्त्री और बाक़ी लोगों के सम्पर्क में आए। दूसरे लोगों की नुमाइन्दग़ी करते-करते तुमने काम करने का ऐसा तरीक़ा अपना लिया है जो स्वाभाविक और ठीक नहीं है। तुम्हें याद होगा कि कुछ महीने पहले हमारी मुलाक़ात के दौरान मैंने तुम्हें आगाह किया था कि इंग्लैण्ड के मन्त्रियों के साथ मेलजोल से सुविधा तो होगी पर कई कठिनाइयाँ भी पैदा हो सकती हैं। वे समझेंगे कि तुम हमारी नुमाइन्दग़ी कर रहे हो, जो कि सच नहीं होगा। इससे हम पर फ़िज़ूल का दबाव पड़ सकता है और कोई पक्ष इस दबाव को झेलने से इन्कार भी कर सकता है।

अब तक मिले तुम्हारे पत्रों से लगता है कि या तो तुमने संयम में रहना नहीं सीखा है या तुम यह नहीं जानते कि भारी ज़िम्मेदारी निबाहनेवालों को आत्मसंयम बरतना चाहिए।

मैं तुम्हें सबकुछ साफ़-साफ़ बता रहा हूँ क्योंकि मैं तुम्हें पसन्द करता हूँ और तुम्हारी तरक्की चाहता हूँ। तुम्हारे काम में कोई रुकावट आए, ऐसा न चाह कर मैं रुकावट को हटाने की ही कोशिश करूँगा। लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम थोड़ा और संयत होकर पद्धति के मुताबिक़ चलोगे। धीरे-धीरे हम सबको और बड़ी ज़िम्मेदारियाँ निबाहनी हैं। इन ज़िम्मेदारियों को ठीक से निबाह सकनेवालों की तादाद बहुत कम है।

यह पत्र अत्यन्त व्यक्तिगत है और इसे किसी को दिखाने की ज़रूरत नहीं। बस, सरदार पटेल और वेलोडी को इसे देखना चाहिए, इसलिए इसकी नक़ल मैं उन दोनों के पास भेज रहा हूँ।

स्नेहपूर्वक, तुम्हारा
जवाहरलाल नेहरू

घोष को इस अनोखी चिट्ठी का कूटनीतिक लहज़ा नहीं भाया। नेहरूजी ऊपरी तौर पर घोष को पसन्द करने, उनकी तरक़्क़ी चाहने, और बड़ी ज़िम्मेदारियाँ उठाने की बात कर रहे थे। लेकिन क्या वे घोष को सचमुच यह बताना चाहते थे कि उन्हें घोष में दायित्व सम्भालने की क्षमता दिखती थी और सन्तुष्ट होने पर वे घोष को कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दे सकते थे?  

अपनी पुस्तक 'गाँधीज़ एमिसरी' (प्रकाशक रूपा एण्ड कम्पनी, 1967, पृष्ठ 214) में घोष लिखते हैं कि नेहरूजी की मंशा उन्हें दायित्व देने की बिल्कुल नहीं थी। घोष के अनुसार नेहरूजी समस्त सद्‌गुणों के बावजूद व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द के मामले में बड़े ज़िद्दी थे और दुर्भाग्यवश नयी दिल्ली में कैबिनेट मिशन की वार्ता के समय से ही वे घोष को नापसन्द करने लगे थे। 

घोष के विचार में उनके आचरण से कांग्रेस पर अनावश्यक बोझ पड़ने की नेहरूजी की आशंका बेबुनियाद थी। घोष क्रिप्स के अनुरोध पर ही उन्हें पत्र लिखते थे। क्रिप्स का कहना था कि घोष के पत्रों से उन्हें भारतीय घटनाओं को समझने में आसानी होती है। घोष भेजने से पहले हर पत्र गाँधीजी को दिखा दिया करते थे, और गाँधीजी की राय में भी इन चिट्ठियों से काम करने में सहूलियत हो रही थी। लॉर्ड वेवेल के अधीन मन्त्री होने के नाते नेहरूजी ब्रिटिश मन्त्रियों के साथ सम्पर्क रखने की स्थिति में नहीं थे। घोष का मानना था कि ऐसी परिस्थिति में ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल तक उनके विचार पहुँचा कर वे महत्वपूर्ण काम कर रहे थे।

घोष को सबसे ज़्यादा दुःख इस बात का था उनके नाम का वह पत्र दरअसल वल्लभभाई पटेल और वेलोडी को लक्ष्य कर लिखा गया था और उसकी नक़ल उन दोनों व्यक्तियों को भेजी गयी थी। यदि नेहरू सचमुच एक शुभेच्छु की तरह परामर्श दे रहे होते, तो दूसरों को नक़ल भेजने की कोई ज़रूरत नहीं होती। पण्डितजी घोष को  पसन्द नहीं करते थे पर यह जानते थे कि सरदार पटेल और गाँधीजी को घोष पर पूरा भरोसा था। कृष्णमेनन और घोष के बीच की अप्रियता के एक छोर पर नेहरू थे तो दूसरे छोर पर थे गाँधीजी और सरदार पटेल।

कुछ समय बाद भारत लौटने पर घोष ने गाँधीजी को वह पत्र दिखाया। बहुत ध्यान से पढ़ने के बाद गाँधीजी बोले, "विचित्र पत्र है। लिखनेवाले महान आदमी हैं, दयालु और उदार भी हैं। एक ओर एक युवक के प्रति उनकी सद्भावना दिख रही है तो दूसरी तरफ़ उस पर इतना दबाव डाला गया है कि पहला उद्देश्य व्यर्थ हो रहा है।"

सरदार पटेल ने उसी पत्र के बारे में 29 जून को घोष को लिखा। "जवाहरलाल के पत्र में कुछ ऐसी बातें हैं जो शायद तुम्हें अच्छी न लगें, पर हताश मत होना। उनके उपदेश को विनम्र मर्यादा के साथ ग्रहण करो और निश्चिन्त रहो। मैं तुम्हारे मन्तव्य को अच्छी तरह समझता हूँ। अपने "निकटतम वरिष्ठ अधिकारी" के सन्तोष के लिए तुम्हें अवश्य ही यथासाध्य चेष्टा करनी पड़ेगी, लेकिन इस आधार पर कैबिनेट मन्त्रियों से सम्पर्क तोड़ने की सलाह मैं तुम्हें नहीं दूँगा। सरकारी कर्मचारियों की आचार-संहिता में ऐसा कुछ नहीं लिखा। यदि कोई तुम्हें सम्पर्क तोड़ने की सलाह देता है, तो अपनी अधिकार सीमा का  उल्लंघन करता है।" 

व्यक्तिगत परेशानी से गाँधीजी को परेशान करना घोष को गवारा न था, सो उन्होंने गाँधीजी को हफ़्तों पत्र नहीं लिखा। उनका पत्र मिलने पर गाँधीजी जवाब देते और इस तरह उनका काम बढ़ता। वैसे भी उन दिनों गाँधीजी निस्संग विषण्णता के दौर से गुज़र रहे थे। उनकी धारणा थी कि समस्त बंधुओं ने उन्हें त्याग दिया है और शेष जीवन उन्हें अकेले ही काटना होगा। ऐसी अवस्था में उनकी चिन्ता बढ़ाना ठीक नहीं था। हाँ, गाँधीजी ज़रूर बीच-बीच में घोष को पत्र लिख दिया करते थे।

भारत पहुँचने के बाद माउण्टबैटन की कार्यवाही से घोष का कोई लेना-देना नहीं था, पर अन्य लोगों द्वारा बनाये विवरण के अनुसार उन्होंने वी. पी. मेनन के सहयोग से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सहयोग की आशा न रहने की स्थिति के लिए कुछ इस प्रकार की योजना बनाई थीः


1. नेतागण भारत का विभाजन हो या नहीं इस बारे में जनसाधारण की राय जानने के लिए निर्धारित तिथि को स्वीकार करते हैं।
2. भारत में एक केन्द्रीय शासन होने पर सत्ता डोमीनियन के आधार पर तत्कालीन संविधान सभा को सौंप दी जाएगी।
3. भारत में दो सार्वभौम राष्ट्र बनने पर दोनों राष्ट्रों की केन्द्रीय सरकार अपनी-अपनी संविधान सभा के प्रति ज़िम्मेदार रहते हुए डोमीनियन के आधार पर सत्ता ग्रहण करेगी।
4. सत्ता हस्तान्तरण चाहे उपरोक्त किसी भी विधि से हो, डोमीनियन स्तर पर संगति के लिए 1935 के संशोधित भारत शासन विधान के अनुसार ही काम होगा।
5. वर्तमान गवर्नर जनरल ही दोनों डोमीनियनों का गवर्नर जनरल रहेगा।
6. देश-विभाजन के सिद्धान्त की स्वीकृति होने पर सीमा-निर्धारण के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाएगा।
7. प्रादेशिक गवर्नरों की नियुक्ति दोनों देशों की केन्द्रीय सरकार की सिफ़ारिश के मुताबिक़ होगी।
8. दो डोमिनियन बनने पर भारतीय सेना को सैनिकों की नियुक्ति के अंचल के आधार पर बाँट दिया जाएगा। दोनों सेनाएँ अपनी-अपनी सरकार के नियन्त्रण में रहेंगी। मिलीजुली इकाइयों का बँटवारा या पुनर्गठन एक समिति द्वारा किया जाएगा। यह समिति फ़ील्ड मार्शल सर क्लॉड, आचिन लेक, और दोनों डोमिनियनों के चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टाफ़ को मिला कर बनेगी। यह काम गवर्नर जनरल और दोनों प्रतिरक्षा मन्त्रियों से निर्मित एक परिषद के तत्वावधान में होगा। यह समिति विभाजन पूर्ण होने समाप्त कर दी जाएगी। 

लॉर्ड माउण्टबैटन 19 मई को यह योजना लेकर लन्दन लौटे। उनकी सरकार के अधिकारी की हैसियत से घोष भी सम्मान-प्रदर्शन के लिए हवाई अड्डे गए। प्रधानमन्त्री एटली और भारत सचिव लॉर्ड लिस्टवेल भी वहाँ गये। बड़े लोगों ने स्वागत किया, घोष एक ओर खड़े रहे। उन्हें देख माउण्टबैटन पास आए और बोले, "सुधीर, धन्यवाद! तुम्हारा पत्र काम कर गया। वे मुझसे मिलने आए।"

मन्त्रिमण्डल से माउण्टबैटन की बातचीत में तय हुआ कि डोमीनियन स्तर तुरन्त प्रदान किया जाए, पर वी पी मेनन का एक डोमीनियन वाला सुझाव स्वीकृत न होकर भारत और पाकिस्तान दो अलग डोमीनियन की बात मानी गयी। एटली ने 3 जून को लोकसभा में घोषणा की कि सत्ता हस्तान्तरण जून 1948 में नहीं बल्कि अगस्त 1947 में होगा। ऐसा ही हुआ भी, पर माउण्टबैटन दोनों डोमीनियनों के गवर्नर जनरल बनने की बजाय भारत के गवर्नर जनरल बने, और पाकिस्तान में इस पद पर जिन्ना को नियुक्त किया गया।

उसी दिन कृष्ण मेनन लन्दन में भारत के उच्चायुक्त बने। जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि घोष वहाँ आगे काम नहीं कर पाएँगे। वल्लभभाई ने उन्हें तार द्वारा सूचित किया कि लॉर्ड माउण्टबैटन चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ लॉर्ड इज़्मे से परामर्श के लिए लन्दन जाने वाले हैं, और उनकी वापसी में घोष भी उनके साथ कुछ दिनों के लिए दिल्ली आ जाएँ। लॉर्ड इज़्मे घोष के नाम गाँधीजी का पत्र लाए थे जिसमें अन्य बातों के अलावा बापू ने लिखा था  कि स्थान छोड़ देना ही घोष के लिए उचित होगा। दिल्ली पहुँचने पर घोष ने पाया कि गाँधीजी ने उनके ठहरने की व्यवस्था बिड़ला हाउस में ही करवा दी थी। उन दिनों गाँधीजी भी वहीं रहते थे। घोष ने उन्हें सारी बात बताई तो गाँधीजी बोले, "कृष्ण मेनन के साथ तुम्हारे मतभेद को लेकर वल्लभभाई और नेहरू के बीच भी संघर्ष चल रहा है। हम दो सिंहों को इस तरह लड़ने नहीं दे सकते। यदि वे लड़ना ही चाहते हैं तो किसी और बात को लेकर लड़ें, तुम्हें लेकर नहीं। जवाहर के पास जाओ और कह दो कि तुम लन्दन में रहने को तैयार नहीं हो।" घोष ने ऐसा ही किया। पुस्तक में इस वृत्तान्त का वर्णन करते समय घोष बताते हैं कि उन्होंने नेहरूजी के बारे में क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा  था, "बापू, मुझे लगता है कि यह कृष्ण मेनन एक दिन पण्डितजी की लुटिया डुबो देगा।" और बापू बोले थे, "मैं तुम्हारी बात समझता हूँ। तुम यही कहना चाहते हो न कि जवाहर महान आदमी ज़रूर हैं पर आदमी नहीं पहचानते? मैं तुमसे सहमत हूँ, पर यह बताओ, भारत में उनसे अच्छा कोई और है?" घोष का उत्तर था, "नहीं, सो तो नहीं है।"

अभिलाषा दबी रही, बापू सो गए

सुधीर घोष को स्वदेश लौटने के बाद कुछ दिनों के लिए हैदराबाद के भारत-विलय में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की सहायता हेतु हैदराबाद भेजा गया। मुंशीजी वहाँ भारत के एजेंट जनरल थे। तत्पश्चात घोष को पटियाला, कपूरथला, नाभा, जिन्द, फ़रीदकोट, कलसिया और नालागढ़ जैसी रियासतों के अस्तित्व परिवर्तन के देशी राज्य विभाग के काम से पंजाब भेजा गया। 1948 की जनवरी में गाँधीजी ने घोष को कुछ दिनों के लिए दिल्ली आने की बाबत पत्र लिखा। वे जानना चाहते थे कि हैदराबाद का विलय सैनिक कार्रवाई के बिना सम्भव होगा या नहीं। इस तरह, एक दैवी संयोग से घोष गाँधीजी के जीवन के अन्तिम तीन दिन – जनवरी 28, 29 और 30 – उनके साथ रहे।

30 जनवरी की दोपहर गाँधीजी ने घोष को बिड़ला भवन के पीछेवाले उद्यान में बुलाया। वे बर्मी किसानों का हैट पहने सुनहरी धूप में बैठे काम कर रहे थे। यह हैट कुछ दिन पहले बर्मा के प्रधान मन्त्री ऊ नू ने दिल्ली यात्रा के दौरान गाँधीजी को भेंट किया था। गाँधीजी ने अगाथा हैरिसन की एक चिट्ठी घोष की ओर बढ़ाई। चिट्ठी के साथ लन्दन 'टाइम्स' पत्रिका की एक कतरन भी थी। अगाथा ने गाँधीजी के दो प्रिय शिष्यों – नेहरू और वल्लभभाई पटेल – के मतभेद की बात लन्दन तक पहुँचने का ज़िक्र करते हुए पूछा था कि क्या वे उस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते?

घोष ने पत्र और सम्पादकीय चुपचाप पढ़ा। लिखना समाप्त कर गाँधीजी स्वगत भाव से बोले, "मैं इसमें क्या कर सकता हूँ?" घोष ने कहा, "इतने बड़े दो महापुरुषों के बीच बोलने का साहस किसी को नहीं, लेकिन इनकी अनबन की चर्चा सब करते हैं। इनसे आपके सिवाय कोई नहीं बोल सकता।" गाँधीजी ने उत्तर दिया, "तुम ठीक कहते हो। लगता है, इस बारे में मुझे ही बात करनी होगी। मैं आज शाम की प्रार्थना के बाद बात कर सकता हूँ। आज चार बजे वल्लभभाई आएँगे, सात बजे जवाहरलाल भी आएँगे। मेरे सोने जाने से पहले आज मुझसे मिल लेना।"

घोष शाम चार बजे देशी राज्य कार्यालय गए जहाँ अधिकारियों और हैदराबाद के मन्त्रियों के बीच बातचीत चल रही थी। शाम पाँच बजे से थोड़ी देर पहले बाहर से एक सज्जन घबराए हुए आए और बोले, "गाँधीजी को गोली मार दी गयी।" सब उठ खड़े हुए लेकिन किसी को भी इस ख़बर पर विश्वास नहीं था, "ऐसे व्यक्ति की भला कोई कैसे हत्या कर सकता है!"

दस मिनट के अन्दर ही घोष बिड़ला भवन पहुँच गए। वहाँ बहुत भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी। घोष ने किसी तरह अन्दर पहुँच कर देखा, गाँधीजी को उसी गद्दी पर लिटा दिया गया था जिस पर बैठकर वे काम करते थे। उनके दोनों प्रिय शिष्य, जवाहरलाल और वल्लभभाई, पास ही बैठे थे। शोकविह्वल नेहरू बापू के कपड़ों से ही मुँह ढँके बच्चों की तरह बिलख रहे थे। 

वज्र-सदृश कठोर व्यक्तित्व के धनी पटेल बापू की नाड़ी पर हाथ धरे स्तम्भित-निर्वाक प्रस्तर-प्रतिमा सदृश बैठे थे, मानो उन्हें आशा थी कि शायद नाड़ी फिर से चलने लगे। वे शाम चार बजे बापू से मिलने आए थे, और गाँधीजी द्वारा नेहरू से मतभेद की बात उठाने पर गम्भीर रूप से विचलित हो गए थे। हृदय का भार हल्का करते हुए वे इतना कुछ बोल रहे थे कि कहानी ख़त्म ही नहीं हो रही थी। शाम पाँच बज कर पाँच मिनट पर गाँधीजी के पौत्र कनु की पत्नी आभा ने प्रार्थना के समय की याद दिलाने के लिए घड़ी सामने कर दी थी। वैसे तो गाँधीजी एक मिनट की देर भी नहीं करते थे, पर उस दिन देर हो चुकी थी। "अब चलना ही होगा" कह कर वे उठ खड़े हुए थे। प्रार्थना सभा की ओर बढ़ते हुए उन्होंने उपस्थित लोगों को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, तो एक शख़्स मानो उनके पैर छूने के लिए बहुत क़रीब जा पहुँचा था। लेकिन उसने गोली चला दी थी, और गाँधीजी ईश्वर का प्रिय नाम, "हे राम", कहते हुए गिर पड़े थे। 

कहानी समाप्त हो गई थी, बापू अपने राम के पास लौट चुके थे। 

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