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गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श

ज्यों ही सुबह सुबह अख़बार के माध्यम से गर्दभों के नवनिर्वाचित बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के प्रधान को पता चला कि सरकार कूड़े के ढेरों के पास असरी-पसरी गायों की रक्षा के लिए गौ कैबिनेट की स्थापना कर गायों  के बहाने अपनों के उज्ज्वल भविष्य के बारे में सोच रही है तो गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के प्रधान आग बबूला हो उठे। हर प्रकोष्ठ के प्रधान का पहला उत्तरदायित्व यही होता है बात की तह तक जाने से पहले ही  उसका आग बबूला हो जाना। वह चाहे अजगर बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ का प्रधान हो, चाहे सांड बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ का।

अपने नए नए दायित्व का पूरी ईमानदारी  से निर्वाह करने के लिए तब आनन-फानन में उन्होंने गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के सदस्यों की अपने घर में मीटिंग बुला डाली। जैसे ही आदमी  के वेश में समाज के इधर-उधर बिखरे गणमान्य गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के सदस्य उनके घर आए तो गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के प्रधान ने अपनी बीवी को चाय के साथ नमकीन बिस्कुट जितनी देरी से हो सके उतनी देरी से लाने की हिदायत देने के बाद उन्हें सजोश संबोधित करना शुरू किया, "हे हमारे चराचर गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के विवेकहीन सदस्यो! जिसका देश के विकास में सबसे अधिक योगदान रहा है, मीडिया की ख़बरों से ही पता चला है कि उन्हें उनके अधिकारों से तो वंचित रखा ही जा रही है पर अब . . ." वे कुछ देर खाँसने के लिए रुके। इस बीच उन्होंने तिरछी आँखों से यह भी देख लिया कि उनकी बात को कौन कौन गंभीरता से ले रहा है।

वे खाँसने को रुके तो उनकी रुकावट को भरने के लिए मौक़ा पाकर गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के उपप्रधान ने कहा, " बंधु! यह कौन सी नई बात है? यह तो सदियों से होता आया है। आजतक हमें गंभीरता से लिया ही किसने? हमने ख़ुद भी तो आज तक अपने को गंभीरता से कहाँ लिया?" 
“तो तुम क्या चाहते हो कि हमारी बारी में भी ऐसा ही हो? अगर गर्दभों के साथ हमारी बुद्धिजीवी कार्यकारिणी के वक़्त भी ऐसा ही हुआ तो लानत है हम गर्दभ समाज के नवनिर्वाचित नव बुद्धिजीवियों को। भाई साहब! ऐसा हुआ तो गर्दभों और आदमियों के बुद्धिजीवी प्रकोष्ठों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा।"

 “तो??”

 “तो क्या? हम गौ कैबिनेट की तरह अपने संरक्षण हेतु गर्दभ कैबिनेट की स्थापना सरकार से करवाकर ही रहेंगे। अब जुल्म बरदाश्त से बाहर हो रहा है।"

" पर उनकी हर कैबिनेट में तो हम चोरी छिपे पहले से ही मौजूद हैं," बैठक की गंभीरता को काम करने के बहाने मनोनीत व्यंग्यकार गधे बुद्धिजीवी सदस्य ने कहा तो अन्य बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के सदस्य पहले से भी गंभीर हो गए।
 "अगर ऐसा है तो भी तो गर्दभ कैबिनेट की मांग तो कोई नहीं कर रहा है?"

"देखो छोटे भाई! इतिहास गवाह है कि अपनों के सबसे बड़े दुश्मन अपने ही होते आए हैं। दूसरे, माँगने से लोकतंत्र में कुछ नहीं मिलता। जलसे, जुलूस, तोड़फोड़ कर ही मिलता है। सब संसद में जाने से पहले यही कहते हैं कि हमें वोट दो! हम जीतकर केवल अपनी जात बिरादरी की आवाज उठाएँगे, अपनी जात बिरादरी के हितों की ही रक्षा करेंगे, पर जैसे ही वे हमसे वोट लेकर वहाँ जाते हैं, अपनी जात बिरादरी को भूल जाते हैं। उन्हें याद रहता है तो बस, अपना परिवार।"

 "तो??"

"तो क्या? हम अबके सरकार पर पूरा दबाव बनाएँगे कि वह गौ कैबिनेट की तरह ही गर्दभ कैबिनेट की स्थापना भी शीघ्र करे वर्ना हर चुनाव में ख़ाम्याज़ा भुगतने को तैयार रहे। हम जानते हैं कि नेता किसी और से डरे या न, पर वोट से बहुत डरता है।"

"हाँ! ये तो करना ही होगा। वर्ना हम इस धरती पर सबसे अधिक होने के बाद भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते लड़ते मर जाएँगे।"

“मित्रो! गाय और हमारी तुलना करके देखा जाए तो हम उसके बराबर हैं। हममें और गाय में क्या समानता नहीं? हमारे वंश की भी वही राशि है जो उसके वंश की है। उसके भी चार टाँगें हैं तो हमारे भी चार टाँगें हैं। उसके भी दो कान हैं तो हमारे भी दो कान हैं। उसके पास भी एक मुँह है तो हमारे भी एक ही मुँह है। उसके पास एक नाक है तो हमारे पास भी एक ही नाक है। उसके भी एक पूँछ है तो हमारे भी एक ही पूँछ है। उसके पास भी एक आत्मा है तो हमारे पास भी उसी ईश्वर का अंश आत्मा है। वह भी धर्म  को ढोती है तो हम भी धर्म को ढोते हैं। वह भी घास खाती है तो हम भी घास खाते हैं। वह भी कचरे के ढेर के पास सारा दिन खड़ी रहती है तो हम भी कचरे के ढेर के पास सारा दिन पड़े रहते हैं। बस, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि वह दूध देती है और हम लीद। पर सरकार यह क्यों नहीं समझती कि हमारी लीद से ही घास की पैदावार बढ़ती है। जब हम लीद करते हैं तो उससे घास की गुणवत्ता बढ़ जाती है।  गाय तब ही दूध दे पाती है जब हमारी पीठ पर लादकर उसे चारा लाया जाता है।"

"पर इस दलील पर तो कल को सांड, भैंसे भी सरकार के आगे दावा ठोक देंगे कि उनके हितार्थ, रक्षार्थ, संवर्धनार्थ सांड कैबिनेट, भैंसा कैबिनेट की स्थापना भी की जाए।"

“तो इसमें बुराई ही क्या है? जागरूकता से ही लोकतंत्र मज़बूत होता है। दावा ठोकना लोकतंत्र में गधे से गधे का भी मौलिक अधिकार है। किसका दावा चल निकलता है, वह इस बात पर निर्भर करता है कि किसके दावे ने किसको कितना ठोका। गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ का प्रधान होने के नाते मैं आप सब बुद्धिजीवियों के सम्मुख सरकार से पूछता हूँ कि क्या सबका साथ ऐसे ही मिल जाता है? सबके साथ के लिए सबका विकास भी तो ज़रूरी है कि नहीं?"

“हाँ! तो??”

 “तो क्या! हमारी पकड़ हर विभाग में मज़बूत होने के बाद भी हमारे साथ ऐसा मज़ाक और वह भी इतना भद्दा? हम सरकार से पूछते हैं कि क्या गौ ही धन है? गधे धन नहीं? लोकतंत्र में हम अपने साथ सब कुछ सहन कर सकते हैं, पर मज़ाक नहीं। अब हमारे साथ मज़ाक बहुत हो लिया गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के सम्माननीय सदस्यो! हमने आजतक सब कुछ सहा है, तानाशाही में भी और समाजवाद में भी। पर अब अपने साथ और मज़ाक नहीं होने देंगे," कहते कहते गधा बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ के प्रधान ने अपने गिलास में बची आधी चाय एक ही घूँट में पी ली यह सोच कर कि जो वे चाय पीने को ज़रा और रुके तो उनके बोलने के टाइम पर दूसरा ही हाथ साफ़ न कर जाए कहीं। पर शुक्र ख़ुदा का! चाय मुँह जलाने लायक़ न बची थी। वैसे उनका चाय से जो मुँह जल भी जाता तो क्या हो जाता? जिनको एक बार अपनी ज़ुबान सबके ऊपर रखने की बीमारी हो जाती है वे जले मुँह भी बाज़ नहीं आते। 
अशोक गौतम 
 

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