अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ग़रीब की जुगत

सात-आठ बरस का वह कमज़ोर सा बालक सड़क के बीचों-बीच था।

तेज़ रफ़्तार गाड़ियों की हेडलाइट की तीव्र रोशनी से या डर से बीच में ही बेहोश होकर गिरा तो एक गाड़ी उसे बचाते-बचाते भी उसके बहुत क़रीब आकर रुकी।  पीछे से आ रही दूसरी गाड़ी भी लगभग उससे टकराती हुई रुकी। हॉर्न और घिसटते टायरों की ध्वनि वातावरण में गूँज गई और कई गाड़ियाँ एक के पीछे एक रुक गईं। बौखलाए हुए लोग गाड़ियों से निकल पड़े और राह चलते भी रुक गए. . . भीड़ हो गई।

“अरे किसका बच्चा है यह?”

“देखो ज़्यादा चोट तो नहीं लगी?”

“भाई साहब आपने बहुत बचा दिया इसको।”

“बेहोश है यह तो!”

“कोई है क्या इसके साथ?”

“चलो चलो अस्पताल ले चलो।”

“कौन झमेले में पड़ेगा?”

“ले चलो भाई आजकल इलाज का पैसा सरकार दे रही है।”

“घायल को अस्पताल पहुँचाने वाले पर कोई कार्रवाई भी नहीं की जाएगी।”

“कौन छोड़ देता है इतने छोटे बच्चों को अकेला!”

“वह सब छोड़ो अभी इसको अस्पताल ले चलो।”

“शायद कहीं गुम चोट आई हो होश में तो नहीं है अभी भी।”. . .

सड़क पार करने को  एक किनारे खड़े बुज़ुर्ग ने अपनी आँखों से देखा था की तेज़ गति से चलते ट्रैफ़िक के बीच से वह दो डरे हुए बच्चों को हाथ पकड़ कर लगभग घसीट रही थी। बड़ा वाला तो वाहनों से डरकर सड़क पार ही नहीं करना चाहता था, वह ज़बरदस्ती खींच लाई थी। फिर उसने बीचों-बीच उसका हाथ छोड़ दिया और दौड़कर किनारे हो गई।

बच्चे के गिरने, गाड़ियों के रुकने और कोलाहल के बीच वह धीरे से  फ़्लाईओवर के खंभे की ओट में हो गई थी. . .

सारा ट्रैफ़िक थमा हुआ था। बुज़ुर्ग सड़क पार करके खंभे के पीछे खड़ी महिला के पास पहुँचे तो उन्हें देख वह जाने लगी।

उन्होंने हाथ पकड़ कर रोक लिया और कड़कते हुए बोले,  “क्यों किया ऐसा? लड़का मर जाता तो?”

कातर स्वर में वह बोली - "बाबू साहेब छह महीने पहले ठेकेदार गाँव से लाया था। अगले मोड़ पर जो बिल्डिंग बन रही है उसमें मैं और इसका बाप दिहाड़ी पर मजदूरी करते थे।  रोटी की गुजर हो रही थी। पिछले पंद्रह दिन से बिल्डिंग का काम रोक दिया गया, इस जुगत में कि लोगों को साफ हवा मिले. . . हवा साफ हुई कि ना, सो तो मैं ना जानूँ लेकिन हमारी तो रोटी रुक गई। दो दिन से भूखा था बच्चा। उसकी भूख और न देखी गई। वहाँ बीच में इसलिए छोड़ दिया कि जिंदा अस्पताल पहुँच गया तो जब तक इलाज चलेगा, रोटी मिलेगी और जिंदा ना बचा तो रोटी से हमेशा को मुक्ति मिलेगी. . . गरीब की यही जुगत बाबू!"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

व्यक्ति चित्र

कविता - क्षणिका

कविता

लघुकथा

गीत-नवगीत

स्मृति लेख

कहानी

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. नर्म फाहे