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गीतः लोक जीवन-स्पन्दन की कलात्मक अभिव्यक्ति

आदिरूप में लोकगीतों का आविर्भाव पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व के साथ ही हुआ होगा। वैसे तो सृष्टि के हर स्पन्दन में लय और संगीत विद्यमान है। नदियों की कल-कल हवाओं की थिरकन झरनों की अनुगूँज भौरों की गुंजार कोयल की तान शिशुओं की मुस्कान किसानों के श्रम बादलों की गर्जन दामिनी की चमक पक्षियों की कलरव आदि सबमें एक नैसर्गिक संगीत विद्यमान है। प्रकृति का यह आदिम संगीत मानव जीवन में ऊर्जा एवं ताजगी का संचार करता है। प्रकृति के हर क्रिया-व्यापार में एक लय है और यह लय भंग ही प्राकृतिक आपदा और उथल-पुथल है महाविनाश है।

कविता की सबसे बड़ी अनिवार्यता उसकी लय है उसमें विद्यमान गेयता है। निराला ने कविता को छन्दों के बन्धन से मुक्त कराने का जो कार्य किया है वह भी एक आवश्यकता थी। लेकिन निराला ने कविता में अन्तःसंगीत की अनिवार्यता को भी नहीं नकारा। निराला-रचित मुक्तछंद की कविताओं में अन्तःसंगीत सर्वथा विद्यमान है। परन्तु आज मुक्तछंद के रूप में लिखी जाने वाली कविता शैली का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसमें विद्यमान काव्यत्व का समाप्त होते जाना है। आज कविता और ललित गद्य में अन्तर स्पष्ट करना कठिन होता जा रहा है।

मार्मिक पीड़ा की चरम पराकाष्ठा में कविता का जन्म हुआ। क्रौंच की पीड़ा आदि कवि के कण्ठ से श्लोक के रूप में - मा निषाद लययुक्त होकर जन्मी। लेकिन मुक्तछन्द के नाम पर आज के शौकिया कवि अपनी असमर्थता को छिपाकर कविता के साथ खिलवाड़ कर रहें है और इसी कारण कविता धीरे-धीरे आम जनता से कटती जा रही है। कविता तो भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति है। चिलचिलाती धूप में धान की रोपाई करती महिलाओं के मुख से गीत स्वतः निकल पड़ते हैं जिनसे उनकी थकान मिटती है। भोर की बेला में घर में चक्की चलाकर आटा पीसती हुई महिलाओं के गीत जागरण का संदेश देते हैं। गीत तो मन की मुक्त अवस्था की अभिव्यक्ति है। आचार्य रामचन्द शुक्ल ने कविता की परिभाषा देते हुए लिखा है - “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्तावस्था के लिए वाणी जो विधान करती है उसे कविता कहते हैं।”

गीतों की सबसे लोकप्रिय शैली लोकगीत है। ‘लोकगीत’ का अर्थ है लोक परिवेश से जन्मा एवं वहीं की गायन शैली मे गाया जाने वाला गीत। यानी एक ऐसा गीत जो लोकरंग एवं लोकतत्वों को अपने में समाहित किए हो और लोककंठों द्वारा लोकधुनों में गाया जाय। वैसे गीत तो मानव जीवन का स्वर है मनुष्य की जययात्रा का वरदान है। पाश्चात्य दाशर्निक हीगेल ने गीत के सम्बन्ध मे लिखा है - “गीत सृष्टि की एक विशेष मनोवृत्ति होती है। इच्छाविचार और भाव उसके आधार होते हैं।” डॉ. राजेश सिंह ने अपनी पुस्तक ‘नवगीत का उद्भव एवं विकास’ में गीत एवं संगीत को परिभाषित करते हुए लिखा है - ’राग-रागिनियों से सज्जित गान को संगीत कहा गया है और छन्दबद्ध गेय रचनाओं को गीत।‘

लोकगीतों में गेयता प्रमुख होती है। अपनी गेयता के कारण ही लोकगीत जनमानस को आह्लादित एवं उर्जस्वित करते हैं। लोकगीत संगीत की एक विधा भी है। विश्व का कोई भी ऐसा देश नहीं होगा जिसमें लोकगीत न गाये जाते हों। लोक जीवन की वास्तविक अभिव्यक्ति लोकगीतों मे ही होती है। लोक जीवन की बहुरंगी छवियाँ लोकगीतों में व्यक्त होती हैं। भारतवर्ष में कजरी, होली, चैता, बिरहा, आल्हा आदि हिन्दी भाषी क्षेत्रों के प्रमुख लोकगीत हैं। इतना ही नहीं गाँवों मे जीवन के विविध संस्कारों से जुड़े गीत भी गाये जाते हैं। इन गीतों में - जन्म के समय गाये जाने वाला गीत - सोहर एवं लचारी, विवाह के समय बन्ना-बन्नी, गीत पूजा आराधना के समय देवी-देवताओं से जुड़े गीत बहुत प्रसिद्ध हैं। ये ग्रामगीत स्रुत परम्परा से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को अवदान के रूप में मिलते गए है। न तो इसके शब्दों एवं भावों में कोई विशेष परिवर्तन हुआ है और न ही इनकी गायन शैली में। ये ग्राम-गीत पारम्परिक धरोहर है जो ग्रामीण महिलाओं के कण्ठहार है। हालांकि इन गीतों में व्यक्ति स्वातंत्र्य के भाव ही प्रमुख है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि ये गीत अपने इसी सहज रूप में भी बने रहेंगे।

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल को स्वर्णयुग कहा गया। इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि यह आम जनता के सन्निकट का साहित्य था। भक्तिकाल सामन्ती जकड़न के विरुद्ध मानवीय विद्रोह का काल था। भक्त कवियों ने आम जनता के भावों को वाणी दी। यही कारण है कि कबीर रैदास, सूर, मीरा एवं तुलसी के भक्तिपरक गीत आज भी लोक जनमानस में समादृत हैं। इनकी भजनों की लोकप्रियता का एक महत्वपूर्ण कारण इनका गीत तत्व भी रहा है। अपनी गेयता के कारण हिन्दी भजन आज भी लोकप्रिय है।

लोक जीवन से जुड़ाव का मुख्य स्त्रोत गीत ही है। सोवियत रूस में आज भी आम लोग अपने कवियों की रचनाएँ खूब पढ़ते है। इसका मुख्य कारण वहाँ की कविताओं का गीतात्मक एवं लयात्मक होना है। यदि लोकजीवन का स्पन्दन लयात्मकता के साथ हो लोगों के दुख-दर्द की सही अभिव्यक्ति गीतों में हो तो ये गीत जनमानस की भावनाओं के संवाहक होगें और सही अर्थों में जनगीत बन जायेंगे।

हिन्दी साहित्य में भी गीत परम्परा काफी लम्बी रही है। चर्यागीत भक्त कवियों की रचनाएँ मैथिल कोकिल विद्यापति के गीत इस दृष्टि से एक धरोहर हैं। नयी कविता में एवं समकालीन कवियों मे ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्होने अपनी काव्य-यात्रा गीतों से प्रारम्भ की है। पंडित नरेन्द्र शर्मा, डॉ हरिवंशराय बच्चन, रघुवीर सहाय, गोपालदास नीरज, बुद्धिनाथ मिश्र, सोम ठाकुर आदि ऐसे अनेक कवियों ने हिन्दी गीत धारा को लोकप्रिय विधा बनाया है। हिन्दी काव्य साहित्य में नवगीत की एक समृद्ध धारा है। लेकिन यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक भी है कि गीतों के द्वारा ही जो सामने आ रहा है वहीं उत्तम और सार्थक है सर्वथा सही नहीं है। गीतों में भी नयी कविताओं की तरह निरर्थक रचनाएँ की जा रही है। वास्तव में उत्तम एवं सार्थक रचनाएँ तो रचनाकार की क्षमता एवं उसकी दृष्टि पर निर्भर करती है कि वह किस विधा को कितनी गंभीरता से ले रहा है। गीत की भी अपनी सीमा एवं कविता की भी अपनी सीमा है। कोई भी रचनाकार जिस विधा में अपने को उत्तम तरीके से अभिव्यक्त कर सके उसके लिए वही विधा उत्तम है। भिखारी ठाकुर ने लोकगीत एवं नौटंकी की एक शैली ‘विदेशिया’ को कितना लोकप्रिय बनाया सर्वविदित है। लेकिन इसी तर्ज पर बाद के परवर्ती कवियों द्वारा किया गया कार्य लोकप्रिय नहीं हो सकता।

केवल तुकबन्दी करने एवं स्थल वर्णन भर कर देने से गीतों की रचना नहीं होती है। भावों एवं विचारों के सुन्दर समन्वय के साथ-साथ गीतात्मकता का सही सन्तुलन सफल गीत रचना की अनिवार्यता है। वर्तमान समय के दमघोटूँ परिवेश एवं भ्रष्ट व्यवस्था ने लोगों के भीतर बेचैनी एवं छटपटाहट पैदा कर दी है। वर्तमान परिवेश ने लोगों की सुरुचि को आहत किया है। ऐसे समय में सफल गीतों की रचना करना बड़ा ही कठिन होता जा रहा है। केवल कुरुचि को भुनाकर गीत रचना के द्वारा तालियाँ बजवा लेना आसान है लेकिन लोगों में सुरुचि जगाने वाले कालजयी गीतों की रचना करना बड़ा ही कठिन है। परन्तु इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सार्थक गीत रचनाएँ हो रहीं हैं और आगे भी होती रहेंगी।

लोकजीवन अगर कहीं अपने नैसर्गिक रूप में आज भी सुरक्षित है तो वह है गीतों में। जब तक लोक रहेगा एवं लोक जीवन रहेगा तब तक गीतों में लोकजीवन का स्पन्दन विद्यमान रहेगा एवं भविष्य में जब कभी भी सरस कविताओं का मूल्यांकन किया जाएगा उसमें गीतों का स्थान सर्वोपरि रहेगा।

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