गेहूँ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. कैलाश वाजपेयी23 Apr 2008
ओ मेरे जन्मदाता
मैं हरा गेहूँ
दूध भरा
मेरी यह विनती है
जब मैं थक जाऊँ
और बने रोटी यह मेरी काया
मैं किसी शराबी
अघाये अय्याश की
आँत में न जाऊँ
किसी फटेहाल थके
पेट की जलती भट्टी में
स्वाहा होता हुआ
तृप्ति की धुन गुनगुनाऊँ
वही मोक्ष सही
मोक्ष होगा
मेरे सुनहरे विकास का।
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