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घर (डॉ. कनिका वर्मा)

लोग कहते हैं कि 
घर इंसानों से होता है दीवारों से नहीं
आशियाना रिश्तों से बनता है 
ईंट-पत्थरों से नहीं 

 

घर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हर रोज़ 
दिन से रात हो जाती है
सड़कों पर भटकते हुए 
कई अजनबियों से मुलाक़ात हो जाती है

 

भूगोल पढ़ते-पढ़ते 
नक़्शों से प्यार ना होना आसान नहीं
पर कौन सा रास्ता घर को जाता है -
ये अनुमान नहीं

 

कभी लगता है घर तो 
मेरी माँ के आँचल में ही है
जिस में खेल-कूद के बड़ी हुई, 
उस पिता के आँगन में ही है


कभी लगता है घर तो उसके दिल में है, 
जिसने प्यार को नई परिभाषाएँ दीं
घर तो उसकी रूह में है, 
जिसके स्पर्श ने मेरे बदन को नई सीमाएँ दीं

 

कभी लगता है घर तो 
उस मासूम में है जिसे मैंने जन्म दिया
घर तो उसकी सरल मुस्कान में है 
जिसने मेरा प्रतिबिम्ब लिया

 

कभी पैसे को घर समझा 
कभी काम को
कभी मेहनत को घर समझा 
कभी आराम को

 

कभी आज़ादी में 
घर को ढूँढ़ा कभी बंदिश में
कभी अपनों में 
घर को ढूँढ़ा कभी रंजिश में

 

घर तो उनकी बातों में भी नहीं है 
जो कहते हैं इसे समझो अपना ही घर
घर तो उन विचारों में भी नहीं है 
जिनमें मैं भरती हूँ उड़ान हर पहर


कभी घर मिला किसी की आँखों में 
कभी किसी के मन में
कभी घर मिला किसी के शब्दों में 
कभी किसी के तन में


जब संबंधों को घर समझा तो 
वही बंधन प्रतीत हुए
मेरे ज़िंदा जज़्बात 
रिश्तों की मजबूरियों में फँस अतीत हुए

 

अपने घर में सुविधा से घिरी हुई 
मैं घर को रही हूँ खोज
एक घर से दूसरे घर भटकती हुई 
मैं ठहराव ढूँढती हूँ रोज़

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