अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

घोषणा पत्र

वृद्धाश्रम में किसी प्रकार की असुविधा नहीं थी। सेवानिवृत्त उच्चाधिकारी व आर्थिक दृष्टि से समृद्ध वृद्धाश्रम के आवासी पूरा भुगतान करते थे और इसलिये ठसक से रहते थे। वहाँ कार्यरत कर्मियों, नौकरों, चाकरों को पैसे के ज़ोर पर ख़ुश रखने की कला में सब पारंगत थे। भौतिक रूप से वह सब कुछ था वहाँ, जिसके होने को सुखमय जीवन कहते हैं।

दो महीनों से यहाँ हैं। खाना-पीना, मौज-मस्ती, हँसी-ठट्ठा सब कुछ है मगर दुख-सुख बाँट सकें ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला है उन्हें। फ़ेस बुक फ़्रैन्ड हर एक है, फ़्रैन्ड एक भी नहीं है। आत्मीय स्पर्श का अहसास कहीं से भी नहीं मिलता है।

बेटे-बहू में से किसी ने घर छोड़ने के लिये नहीं कहा था मगर मोटी पेन्शन का अन्दर बैठा घमण्ड, सम्पत्ति के किराये का अहंकार, सम्पन्नता के नागफन पर बैठा दर्प उन्हें समझौते करने से रोकता था। कहते नहीं थे मगर व्यवहार से साफ़ था, बेटे-बहू को उनका हस्तक्षेप पसन्द नहीं था। इसलिये घर छोड़ आये। 

ख़ूब सोचा। मंथन किया। फ़ैसले पर पहुँचे कि घर लौटेंगे। निश्चय किया कि स्टाम्प पेपर पर बाक़ायदा घोषणा पत्र तैयार करेंगे और बेटे-बहू को दिखायेंगे। लिखेंगे कि भविष्य में हर काम को अनदेखा करते हुए सिर झुकाकर घर में रहेंगे। न किसी को रोकेंगे, न किसी से कुछ कहेंगे। यथासम्भव घर के हर काम में सहयोग देंगे।

घोषणा पत्र टाइप हो गया। दो लोगों को गवाह के रूप में हस्ताक्षर करने थे। वृद्धाश्रम में रहने वाले अनेक लोगों को घोषणा पत्र के सभी सोलह बिन्दु पढ़ाये। हर एक ने पढ़े ज़रूर मगर घोषणा पत्र पर गवाह के रूप में हस्ताक्षर करने से सब कन्नी काट गये।

वे समझ नहीं पा रहे हैं, निर्णय ग़लत है या सही?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. कामनाओं का कुहासा