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घूँघट

इस विषय पर एक लघु पर यथार्थ घटना की चर्चा कर रही हूँ। यह बात सन् 1995 सितंबर-अक्टूबर की है। जब मैं पन्द्रह वर्षीया अति संकोची-शर्मीली व्यक्तित्व हुआ करती थी। पढ़ाई-लिखाई में हमेशा व्यस्त रहने वाली, अनावश्यक भीड़-भाड़, बनाव-शृंगार से पूरी तरह दूर एक दम सीधी-सादी लड़की। 

जाने-अनजाने लोगों द्वारा जिसकी मासूमियत-भोलापन को गँवारपन आकलन करने की भूल कर दी जाती थी। स्थान-परिवर्तन की दृष्टि से कुछ दिनों के लिए मैं कोलकाता के दक्षिणेश्वर में रहने वाले चाचा-चाची के पास गई थी। 

चाचा-चाची की विधवा मकान मालकिन के पाँच बेटे और एक बेटी थी। लगभग पच्चीस से तीस वर्ष की कुँवारी बेटी पल्लवी साढ़े पाँच फ़ीट की लम्बी-चौड़ी, भयंकर क़द-काठी वाली बहुत ही उन्मुक्त विचारों की थी। जिसका कारण भी था बंगाली समाज का उन्मुक्त व्यवहार और वातावरण। सबसे बड़े भाई और सबसे छोटे की शादी हुई थी बाक़ी कुँआरे रह गए थे। उनकी सबसे छोटी भाभी ने अपने पहले वैवाहिक संबंध को छोड़कर, नन्हीं बेटी के साथ प्रेमी संग अर्थात् पल्लवी फूआ के सबसे छोटे भाई संग दूसरी गृहस्थी बसाई थी। 

गृहस्थी के नाम पर दो मंज़िले घर की सीढ़ियों के नीचे वाली जगह में कुछ मुश्किल से पाँच गुणे छह फ़ीट की जगह ही कमरे के रूप में परिवर्तित भाग था। जिसमें ज़मीन पर ही चटाई-कंबल वग़ैरह बिछाकर सोने की व्यवस्था मात्र थी। किसी कोने में कुछ बरतन और एक स्टोव पकाने-खाने की व्यवस्था नाम भर। एकहरे बदन और मध्यम-छोटे क़द के कारण किसी तरह दोनों पति-पत्नी का गुज़ारा हो भी जाता था उतनी जगह में। मिथुन कट बाल में पति का विचित्र रूप थोड़ा मिश्रित व्यक्तित्व का परिचय देता था। भौतिकवादी इस समाज की तुलनात्मक दृष्टि में पूर्णतया अभावग्रस्त श्रीमती जी, भाई पोटा के उपलक्ष्य में मायके जाने के लिए तैयार होने में, सब्ज़ी विक्रेता दूसरे पति की गाढ़ी कमाई, आज से पच्चीस वर्ष पूर्व, छ्ह सौ रुपए रूप-शृंगार, साज-सज्जा के नाम पर एक घण्टे में ख़र्च करके आई थी। वह बहुत ही गौरवान्वित भाव से हमें दिखा रही थी। आश्चर्यचकित हम दोनों उस स्त्री के ताम्बई चेहरे पर व्ययित छह सौ रुपए का परिवर्तनशील फ़र्क़ ढूँढ़ने का असफल प्रयास कर रही थीं। एकांत में चाची बोली-"छ्ह सौ रुपए! छ्ह सौ रुपए में तीनों (पति-पत्नी और बच्ची) भरपूर पौष्टिक आहार लेते तो हृष्ट-पुष्ट शरीर बनता। धन्य हैं ये लोग। बाप रे! कहीं ग़लती से भी ऐसी अन्य स्त्री अपव्यय करे तो उसकी ख़ैर नहीं। मार-पिटाई लगेगी सो अलग। एक घण्टे में जो ब्यूटीपार्लर में उड़ा दी, एक अच्छी साड़ी ख़रीदती तो छह महीने-साल भर पहनती भी, या जाने कितना, कोई अन्य काम हो जाता उतने पैसे से।"

बहुत ज़्यादा संस्कारित बिहारी परिवार में पल्लवित-पोषित मेरे लिए बहुत कुछ असहज-अस्वीकार्य थी फूआ की बातें, और उनके लिए मेरा कोमल, संवेदनशील, संकोचीपन, असहज अस्वीकार्य था। 

(बंगाली समाज में शौच जाने के पहले शरीर पर के सारे कपड़े उतार कर किसी साफ़-सुथरे जगह पर रख कर, एक गमछी या तौलिया मात्र लपेटकर शौचालय में जाने की प्रथा है‌। शौचालय से निकलकर हाथ-मुँह और पूरे शरीर को पोंछ कर या नहाने के बाद ही कपड़े बदलकर घर में घुसना है।)

पल्लवी फूआ, जो अक़्सर एक मीटर की लाल पतली गमछी मात्र में, शौच के लिए आते-जाते अपने श्यामल विशालकाय शरीर पर धारण किए हुए, अपने घर के खुले आँगन में पैंतालीस से पैंतीस वर्ष तक के उम्र के भाइयों के बीच नि:संकोच घूमती रहती। जो उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। मैं उनके सारे भाइयों या अन्य लोगों को देखकर औपचारिक सुरक्षात्मक दूरी बनाए रखती। उन्हें शराब के नशे में चूर देख कर तो मेरे प्राण सूखने लगते। उनके गुज़रने के पहले अंदर से मैं झट से दरवाज़े बंद कर लेती।

पल्लवी फूआ एक दिन सुबह-सुबह की ताज़ी घटना का आँखों-देखा सजीव चित्रण, अति उत्साहित होकर कर रही थी, जो इस प्रकार था, "जानती हो माँ! . . . जानती हो भाभी! . . . आज क्या हुआ बाज़ार में?"

(जिसका सारांश कुछ ऐसा था)

कोलकाता में दक्षिणेश्वर के भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में बीच सड़क पर एक-दो सामान और बक्सा-पेटी लिए एक स्त्री घूँघट में बैठी हुई थी। अब वहाँ की खुली संस्कृति में यह दृश्य कुछ वैसा ही अनोखा प्रतीत हो रहा था जैसे जंगली जानवर या सरकस का कोई जानवर शहर में खुला दिख रहा हो या जैसे किसी ने कोई एलियन देख लिया हो? कुछ वैसा ही देखकर हर कोई अचंभित हो रहा था। दर्शकों में प्रत्येक प्रकार के बुद्धि-विवेक वाले लोगों की मौजूदगी थी। 

पूरी तरह ढकी हुई वह गठरी बनी हुई थी। उस स्त्री के अकेली बैठे हुए तीन-चार घण्टे बीत चुके थे। जिस पर बहुत से आवारा, मनचलों की अवसरवादी गिद्ध दृष्टि लगी हुई थी। वो रह-रह कर उसे बार-बार कुछ न कुछ पूछने के बहाने तंग कर रहे थे। वह सबको अनदेखा करने का सफल-असफल प्रयास कर रही थी। अनजानी जगह पर ऐसे में किसी से बात-विचार का कोई मतलब था या नहीं उसके लिए? ये तो वही जाने। पर, वह धैर्यपूर्वक बैठी थी। पहनावे-ओढ़ावे से नई-नवेली ग्रामीण बिहारी दुलहन लग रही थी। 

वहाँ के स्थानीय लोगों में बहुत से बिहारी परिवार वाले भी थे। जिनमें से किसी ने अपनी पत्नी की सहायता से उस स्त्री के वहाँ ऐसे अकेली बैठने का कारण पूछा, तो पता चला कि अपने गाँव से बाहर पहली बार निकली हुई है। सामाजिक रीति-रिवाज़ों से हुई शादी के बाद पति के साथ शहर आई है। कुछ घण्टे पहले उसका पति, बस देखने के बहाने से, वहाँ उसे बिठा कर गया, पर अभी तक नहीं लौटा है, जिसकी प्रतीक्षा कर रही है वह। 

ताली बजाकर अति उत्साहित उसके पति के प्रति, "उस गँवार औरत को छोड़कर भाग गया होगा साला। ऐसा ही होता है।" कहते हुए पल्लवी फूआ ने क़िस्सा समाप्त किया।

इस क़िस्से की समाप्ति के बाद, दुनिया की सबसे अबला नारी रूप में समझ-मान कर मुझे कमरे से बाहर बुला कर फूआ, चेतावनी देना नहीं भूली— "सुन ऐसी रहेगी ना . . . घूँघट! . . . पल्लू! . . . लाजवंती . . . शर्मीली . . . सती-सावित्री रूप में तो ऐसे ही किसी दिन तुझे भी, तेरा पति बीच सड़क पर बिठा कर भाग जाएगा . . . या ले जाकर बाज़ार में बेच देगा . . . समझी?"

मैं आज भी जब भी घूँघट शब्द सुनती हूँ तो पल्लवी फूआ और उस स्त्री की अनायास याद आ जाती है।

जाने उसकी घर वापसी हुई भी या नहीं? कुछ ऐसी ही एक कहानी मेरे गाँव की फूआ भी किसी परिचित परिवार की आपबीती घटना बता रही थी। जाने दोनों में कोई सामंजस्य था या अलग-अलग घटनाएँ थीं। पर, शिकार वही पीड़ित स्त्री रूप में समानता रहती है। 

ख़ैर उम्र के साथ गाहे-बगाहे मैं तो बिना घूँघट के अकेली, अनेकों बार भारत माप चुकी हूँ। मेरे बारे में सुनकर-जानकर पल्लवी फूआ आश्चर्यचकित हो जाएँगी और विश्वास करना मुश्किल होगा कि मैं वही व्यक्तित्व हूँ जिसे वह अक़्सर चिढ़ाती थी। 

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