गोधूलि बेला
काव्य साहित्य | कविता निलेश जोशी 'विनायका'1 Sep 2020
ढल रहा है सूरज
तपती दुपहरी के बाद
छू गया पवन शीतल
तन को तपाने के बाद।
दे रहा झोंके समीर
हिल रहे प्रफुल्लित पात
पूरा हुआ ज्यों विरह काल
हो मिलन की मधुर रात।
गूँज उठे स्वर गोधूलि में
टिटहरी की टी-टी के साथ
कोयल की कुहू-कुहू से
पुलकित मन ले हाथों में हाथ।
पंख फैलाए खग निश्चिंत
लौट रहे नीड़ों में अपने
जो रहा बाट कोई आँखें फाड़
देख रहा है रातों के सपने।
छा गई है लालिमा पश्चिम में
अरुण प्रभा अनंत में जा पड़ी है
आ गई है रंभाती गायें
अपने खूँटे पर जा खड़ी हैं।
दिन के उजाले पर अब
छाया अँधेरे की छाने लगी है
लंबी होकर परछाई अपनी
छोड़ साथ जाने लगी है।
धड़कनें धड़कते हृदय की
सुन रहा हूँ मैं मौन रहकर
मौसम शांत है आज प्रकृति का
बहा रही है मुझे यह कौन बहकर।
आश्वस्त रव कीर के
खेल रहे मयूर नीरवता से
घोल रहे सुधा रस नव
प्रेम-पट खोल रहे जीवटता से।
चादर अँधेरे की घनी
चढ़ने लगी नभ में धीरे-धीरे
मुस्काया चाँद और टिमटिम तारे
चंचल चंद्रिका संग धीरे-धीरे।
बज उठी है घंटियाँ सब ओर
नगाड़े बज रहे देवालयों में
आरतियाँ हो रही हैं शायद
पाषाण मूर्तियों की मंदिरों में।
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