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गोश्त की गंध

(प्रेषक -रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु)

दरवाज़ा उसके बारह वर्षीय साले ने खोला और सहसा उसे अपने सामने देखकर वह ऐसे सिकुड़ गया जैसे उसके शरीर से एक मात्र नेकर भी खींच लिया गया हो। दरवाज़े की ओट लेकर उसने अपने जीजा के भीतर आने के लिए रास्ता छोड़ दिया। वह अपने साले के इस उम्र में भी पिचके गालों और अस्थिपंजर-से शरीर को हैरानी से देखता रह गया।

भीतर जाते हुए उसकी नज़र बदरंग दरवाज़ों और जगह-जगह से झड़ते प्लास्टर पर पड़ी और वह सोच में पड़ गया। अगले कमरे में पुराने जर्जर सोफ़े पर बैठे हुए उसे विचित्र अनुभूति हुई। उसे लगा बगल के कमरे के बीचों-बीच उसके सास -ससुर और पत्नी उसके अचानक आने से आतंकित होकर काँपते हुए कुछ फुसफुसा रहे हैं।

रसोई से स्टोव के जलने की आवाज़ आ रही थी। एकाएक ताज़े गोश्त और ख़ून की मिली जुली गंध उसके नथुनों में भर गई। वह उसे अपने मन का वहम समझता रहा पर जब सास ने खाना परोसा तो वह सन्न रह गया। सब्ज़ी की प्लेटों में ख़ून के बीच आदमी के गोश्त के बिल्कुल ताज़ा टुकड़े तैर रहे थे। बस, उसी क्षण उसकी समझ में सब कुछ आ गया। ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज़ पहनकर बैठे हुए थे, ताकि वह उनके हाथ से उतारे गए गोश्त रहित भाग को न देख सके। अपनी तरफ़ से उन्होंने शुरू से ही काफ़ी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था, पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्‌ढों को नहीं छिपा सके थे। सास भी बड़ी चालाकी से एक फटा-सा दुपट्टा ओढ़े बैठी थी ताकि कहाँ-कहाँ गोश्त उतारा गया है, समझ न सके। साला दीवार के सहारे सिर झुकाए उदास खड़ा था और अपनी ऊँची-ऊँची नेकर से झाँकती गोश्त रहित जाँघों को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था। उसकी पत्नी सब्ज़ी की प्लेट में चम्मच चलाते हुए कुछ सोच रही थी।

“राकेश जी, लीजिए....लीजिए न!” अपने ससुर महोदय की आवाज़ उसके कानों में पड़ी।

“मैं आदमी का गोश्त नहीं खाता!!” प्लेट को परे धकेलते हुए उसने कहा। अपनी चोरी पकड़े जाने से उनके चेहरे सफ़ेद पड़ गए थे।

“क्या हुआ आपको?....सब्जी तो शाही पनीर की है!”.....पत्नी ने विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए कहा।

“बेटा, नाराज़ मत होओ....हम तुम्हारी ख़ातिर में ज़्यादा कुछ कर नहीं....” सास ने कहना चाहा।

“देखिए, मैं बिल्कुल नाराज़ नहीं हूँ,” उसने मुस्करा कर कहा, “मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना माँस परोसना बन्द कीजिए। जो ख़ुद खाते हैं, वही खिलाइए। मैं ख़ुशी-ख़ुशी खा लूँगा।”

वे सब असमंजस की स्थिति में उसके सामने खड़े थे। तभी उसकी नज़र अपने साले पर पड़ी । वह बहुत मीठी नज़रों से सीधे उसकी ओर देख रहा था। सास-ससुर इस क़दर अचंभित थे जैसे एकाएक किसी शेर ने उन्हें अपनी गिरफ़्त से आज़ाद कर दिया हो। पत्नी की आँखों से आँसू बह रहे थे। यह सब देखकर उसने सोचा....काश, ये गोश्त की गंध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!

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