अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

गुलमेंहदी की झाड़ियाँ 

उस दिन धूप बहुत तेज़ थी। सुबह से ही लू चल रही थी। रेल्वे ब्रिज की रोड से उठती गर्म हवा सड़क के ऊपर दीख रही थी।मानो कोई पारदर्शक पर्दा हवा में डोल रहा हो। गर्मी के कारण रोड पर जगह-जगह पानी गिरे होने का भ्रम हो रहा था। डामर पिघलकर फिसलन भरी हो गई थी। इस रोड से चलकर, ब्रिज के नीचे उतरते समय वह पिघली डामर से सावधान रहती थी। पिछले साल ऐसी ही गर्मी में रोड से उतरते समय उसकी चप्पल डामर में फँसकर टूट गई थी। चप्पल ऐसी टूटी कि फिर जुड़ नहीं पाई। उसे पूरी गर्मी नंगे पैर ही चलना पड़ा था। पिछले साल वह पूरी गर्मी पिघलते डामर पर नंगे पैर चली थी। पिघलते डामर वाली रोड पर तपती धूप में नंगे पैर चलते हुए उसे तक़लीफ़ होती थी। पैर का तला जलने लगता। वह थोड़ी देर तक ब्रिज के नीचे खड़े रहकर ख़ुद को तैय्यार करती थी, कि वह इस जलते पुल को कैसे पार करेगी। फिर वह अँगूठे और एड़ियों को रोड पर टिकाकर और पैर का तला ऊपर खींचकर तेज़ी के साथ दौड़ती सी रोड पार करती थी। वह पूरी गर्मी माँ से चप्पल के लिए ज़िद करती रही। उसने माँ से चप्पल के लिए बहुत ज़िद की। वह रोती झींकती सी ज़िद करती थी। तब जाकर उसे नई चप्पल मिल पाई। बरसात बाद उसे माँ ने नई चप्पल लाकर दी। अब वह पिघली डामर पर सतर्क होकर चलती है। इस चप्पल को वह डामर में फँसाकर खोना नहीं चाहती है।

रोड से नीचे उतरकर रेल्वे का यार्ड है। यार्ड से ओव्हर ब्रिज और स्टेशन दोनों दिखते हैं। पर गर्मियों की दोपहर में, दोनों जगह वीरानी सी छाई रहती है। दिन की, भरी दोपहर की वीरानी, जो रात के चिर-परिचित सन्नाटे से कहीं ज़्यादा भयावाह होती है। चमकते सूरज के साथ का सन्नाटा, जो रात के सन्नाटे से ज़्यादा मनहूस होता है। रेल्वे स्टेशन में सवारी गाड़ी, महज़ रुकने के नियम के कारण रुकती है। ना कोई चढ़ता है और ना कोई उतरता है। ओव्हर ब्रिज पर भी कोई नहीं दिखता है। एक्का-दुक्का थ्री व्हीलर या कोई ट्रक थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल में, मुर्दानगी को चीरते हुए दिख जाते हैं।

वह यार्ड के पास तक उतर आई। तपती हुई पटरियों पर, एक मालगाड़ी खड़ी है। वह यहाँ तीन दिन से खड़ी है। उसके वैगनों के गेट लटके हुए हैं। आने के बाद वह इस मालगाड़ी की छाया में क्षण भर को सुस्ताती है। उसकी काली देह में जगह-जगह खरोंच के निशान हैं। जब वह अपने काम में मशगूल रहती है तब गुलमेहँदी की सूखी डाल गर्म हवा के झोंकों के साथ उसके शरीर से रगड़ जाती है और ऐसा एक और निशान बना देती है। उसकी फ़्रॉक में बटन नहीं हैं। पीठ पर वह व्ही के आकार में खुली रहती है। कभी-कभी वह इतनी ज़्यादा खुल जाती है कि उसकी एक बाँह कुहनी तक उतर आती है और फिर वह एक झटके के साथ उसे कंधे पर चढ़ा लेती है। उसके रूखे बिखरे बाल, उसके छोटे-नाज़ुक कन्धों पर गुच्छे के गुच्छे बिखरे रहते हैं। धूप में जब वह काम करती है, तब उसका सिर बहुत खुजाता है। वह बुरी तरह से बाल खुजलाती है और फिर उसके बाल नारियल के जूट की तरह खड़े हो जाते हैं।

वह मालगाड़ी की छाया में, पटरी के किनारे पड़े गिट्टी के ढेर पर थोड़ी देर बैठी रही। रोज़ वह सुन्दर के आने तक इसी तरह बैठी रहती है। सुन्दर उससे छोटा है और उसकी माँ की झुग्गी के पास ही रहता है। पहले वह एक होटल में काम करता था। उसने, उसे एक बार वह होटल दिखाया था। जहाँ वह रहती है, उससे थोड़ी दूर एक देसी शराब की दुकान है और उसी के पास वह होटल है। वह वहाँ बर्तन साफ़ करने वालों की मदद करता था। साबुन और राख से मंजी प्लेट, गिलास धोने का काम। पहले होटल के मालिक ने उसे पानी लाने के काम में लगाया था। पर वह पानी की बाल्टी उठा नहीं पाता था, सो उसे बर्तन माँजने का काम मिल गया। उसको महीने के ढ़ाई सौ रुपये मिलते थे। होटल के मालिक ने उसकी पगार पचास रुपये और बढ़ाने की बात की थी। पर एकलफड़ा हो गया। एक रोज़ सरकारी दफ़्तर से कोई इन्सपेक्टर आया और होटल मालिक को कहने लगा कि इतने छोटे लड़के से वह काम नहीं करवा सकता है। मालिक ने उसे समझाया। सुन्दर ने भी कहा कि उसके लिए यह काम ठीक ठहरता है। उसको कोई परेशानी नहीं है। उस रोज़ तो वह इन्सपेक्टर चला गया, पर हफ़्ता-दस दिन बाद पुलिस का एक आदमी आया और होटल के मालिक को अपने साथ ले गया। लफड़ा बहुत बढ़ गया था। कोर्ट-कचहरी तक का चक्कर हो गया था। फिर एक रोज़ मालिक ने सुंदर के पगार का हिसाब किया और उसकी छुट्टी कर दी। सुंदर के बाप ने मालिक से ख़ूब मन्नत माँगी। गिड़गिड़ाया भी। पर वह नहीं माना बोलने लगा- उसको कोई झंझट नहीं चाहिए। इसलिए उसने सुंदर को निकाल दिया है। फिर सुंदर को होटल वाला काम नहीं मिल पाया और वह भी उसके साथ कचरा बीनने आने लगा। आज भी जब वह सुंदर से होटल वाले काम के बारे में पूछती है, तो वह होटल की बातें और क़िस्से सुनाने लगता है। उसके पास उस होटल के बहुत से क़िस्से हैं। तरह-तरह के लोग जो उस होटल में आते थे। ज़्यादातर दारूबाज़ लोग रहते थे, पर कुछ लोग बड़े नेक थे। एक आदमी ने तो एक बार सुंदर को पचास रुपये का नोट दे दिया था। उस रोज़ सुंदर को बहुत अच्छा लगा था। सुंदर के बापू ने उस पैसे से सुंदर को फेरी वाले के पास से एक हाफ़ पेन्ट ख़रीद दी थी। उस होटल के क़िस्से सुनाते वह नहीं थकता है। जब भी वह पूछती, वह उसे कोई ना कोई नया क़िस्सा सुना ही देता है। फिर वह कभी-कभी उदास हो जाता है, उससे पूछता है कि क्या उसे फिर से होटल वाला काम मिल पायेगा? वह उस इन्सपेक्टर को गाली भी देता है, जिसके कारण उसकी नौकरी चली गई। वह इन्सपेक्टर सुंदर को चाल्ड लेबुर(चाइल्ड लेबर) कहता था। पता नहीं इसका क्या मतलब है। बडा अजीब सा शब्द है - चाल्ड लेबुर। कभी-कभी वह सुंदर को चिढ़ाती है - चाल्ड लेबुर और वह पटरी के किनारे पड़ी गिट्टी को उठाकर मुट्ठी में भर लेता है। एक दो बार तो उसने उसे गिट्टी से मार ही दिया था। लेकिन फिर भी, जब उसका मन करता है वह सुंदर को इसी तरह चिढ़ाती है। उसने कई लोगों से पूछा था, कि चाल्ड लेबुर के क्या मायने हैं। पर उसे कोई नहीं बता पाया। पर सुंदर को चिढ़ाने के लिए यह शब्द बड़ा अच्छा है- चाल्ड लेबुर।

उसने ओव्हर ब्रिज की ओर देखा। शायद तपती रोड पर से उठती गर्म हवा की लहरदार आकृति और रोड पर बिखरे पानी की तरह दिखने वाले धोखे में, सुंदर दिख जाय। आज देर हो गई। वह नहीं आया। वह थोड़ी देर तक देखती रही। शायद ओव्हर ब्रिज से उतरता हुआ, छोटे गुड्‌डे की तरह सुंदर दिख जाये। पर वह नहीं दिखा।

तभी उसे रेल्वे के स्कूल की एक सी ट्रिन्न।.... करती घण्टी सुनाई दी। वह थोड़ा घबरा गई। आज बहुत देर हो गई और उसने अब तक अपना काम शुरू नहीं किया। वह उठ खड़ी हुई। पर दूसरे ही क्षण उसे लगा वह थोड़ी देर सुंदर का और इन्तज़ार कर सकती है। फिर वह जल्दी-जल्दी काम करेगी। थोड़ी देर और.....। थोड़ी देर में कुछ नहीं होता।....पर दूसरे ही पल उसे लगा कि, जल्दी-जल्दी काम करने से गुलमेंहदी की टहनियों का ध्यान नहीं रहता। वे पूरी देह को खरोंच डालती हैं। पर इससे कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता। देह पर पड़ने वाली खरोंच धीरे-धीरे ख़ुद ही ठीक हो जाती है। बस एक खुरण्ट रह जाता है और खुरण्ट के झड़ने के बाद एक चिकनी चमड़ी वाली लकीर.....। पता नहीं यहाँ कितनी गुलमेंहदी उगी है और हर साल बढ़ती जा रही है। कहीं-कहीं तो वह रेल की पटरी तक बढ़ आई है। जब मुनिस्पलिटी की कचरा फेंकने वाली गाड़ी आती है, तब वह बहुत सी गुलमेंहदी की झाड़ियों को कुचल देती है। पर फिर भी वह हर साल उग आती है। वह और सुंदर अक्सर इन झाड़ियों के छोटे-छोटे फल तोड़कर इकट्ठा कर लेते थे। उन्होंने एक दो बार ये फल खाये भी। उन्हें ये फल बड़े अच्छे लगते थे। पर एक दिन फल खाने के बाद सुंदर के पेट में बहुत दर्द हुआ और वह वापस घर चला गया। उसकी तबियत ख़राब हो गई। उस रोज़ माँ ने उसे भी फटकार लगाई और गुलमेंहदी के बीज नहीं खाने को कहा। तब से उन्होंने उसे खाना बंद कर दिया है।

वह उठ खड़ी हुई। उसकी छोटी-छोटी हथेलियाँ पसीने से भीग गईं थीं और हथेली की लकीरों में फंसा काला मैल चिपचिपा रहा था। उसने अपना हाथ अपनी फ़्रॉक से पौंछा। अपनी हथेली की लकीरें देखकर उसे एक बात याद आई। रोज़ जब वह आती है, तब ओव्हर ब्रिज से पहले, रोड की पटरी पर आम के पेड़ के नीचे एक बाबा बैठते हैं। वे लोगों का हाथ देखते हैं। जाने हाथ में क्या देखते हैं। एक बार उसकी इच्छा हुई कि बाबा से पूछे कि वे हाथ में क्या देखते हैं। क्या वे उसका हाथ देख सकते हैं? पर फिर वह रुक गई। उसने अपना हाथ देखा। पूरे हाथ में पसीना था और लकीरों में फंसा काला मैल चिपचिपा रहा था। उसे अपने पर शर्म आई। ऐसा गंदा हाथ वह बाबा को कैसे दिखा सकती है। किसी दिन हाथ साफ़ कर आयेगी, तब दिखायगी। पर फिर मौक़ा नहीं बना। फिर आजकल तेज़ गर्मियाँ हैं, सो बाबा नहीं बैठते हैं।

उसने मालगाड़ी के ख़ाली वैगन को देखा और उसके पास आकर खड़ी हो गई। वैगन का दरवाज़ा लटक रहा था। उसने एक हाथ से वैगन के दरवाज़े के किनारे की सरियों को पकड़कर वैगन के नीचे लटकते लोहे के क्ल्ौंप में अपना एक पैर फंसाया और दूसरा लटकते दरवाज़े की लोहे की पट्टी पर टिकाया और वैगन पर लटक सी गई। उसने दरवाज़े की भीतर झाँककर देखा। वैगन ख़ाली थी। जैसे किसी ने पूरी वैगन में झाडू लगा दी हो। कोयले का एक टुकड़ा भी नहीं था। ..... स्साले सब ले गये..... उसने मन ही मन सोचा। उसे उन लोगो पर बहुत ग़ुस्सा आता है। वे रेल्वे लाइन के पार वाली झुग्गियों में रहते हैं। वे बहुत बड़े लड़के हैं। उससे और सुंदर से कहीं ज़्यादा बड़े। सुना है जब रेल्वे वाले वैगन का सारा कोयला उतार लेते हैं, तब वे सब शाम को यहाँ आते हैं और वैगनों में पड़ा बाक़ी कोयला झाड़ पोंछकर पूरी रात इकट्ठा करते हैं और फिर सुबह सुबह चंपत हो जाते हैं। एक बार सुंदर ने एक वैगन से कुछ कोयला निकाल लिया था और कचरा भरने के अपने बोरे में छिपा लिया था। सुंदर का बाप बहुत ख़ुश हुआ। सुंदर के बाप ने सुंदर से कहा था, कि वह रोज़ कुछ कोयला ले आया करे। पर थोड़ा सावधान रहे, किसी को पता ना चले। सो सुंदर कचरे के बोरे में नीचे कोयला भरता और और ऊपर कचरा। इस तरह वह छिपाकर कोयला ले जाता था। फिर कुछ दिन वह भी ले जाती रही। माँ ने उससे कुछ नहीं कहा। पर इतना ज़रूर कहा कि रोज़ ले आया कर। पता नहीं यह बात उन लड़कों को कहाँ से पता चल गई। सुंदर कहता है, ज़रूर यार्ड के उस बूढ़े चौकीदार ने बताया होगा जो अक्सर उन दोनों को वहाँ से भगा देता है। राम जाने सच क्या है? पर एक दिन वे लड़के वहाँ आ गये और उन्होंने सुंदर और उसकी पिटाई कर दी। सुंदर को तो उन्होंने रेल्वे की पटरी पर ही पटक दिया था। उस दिन को याद करके वह आज भी बुरी तरह डर जाती है। वह कचरा बटोरते समय सतर्क रहती है कि कहीं वे लड़के न आ जायें। उसने सोच रखा है कि अगर वे आ गये तो वह गुलमेंहदी की झाड़ियों में छुप जायेगी......। उसे गुलमेंहदी के छोटे-छोटे काँटों से डर जो नहीं लगता। तो वह छुप जायेगी। सुंदर भी छुप जायेगा, फिर वे उन्हें ढूँढ नहीं पायेंगे। जिस दिन उन लड़कों ने उसे और सुंदर को मारा था, उस दिन वह बहुत रोई थी। वो और सुंदर रोते-रोते अपनी झुग्गी तक गये थे। सुंदर के तो पैर से ख़ून भी निकल आया था। माँ ने सुंदर की चोट को पानी से साफ़ किया था। उस रोज़ उसने माँ से कहा था, कि वह अब कचरा बीनने नहीं जायेगी। वे लड़के फिर आ गये तो। पर माँ ने उसकी एक ना सुनी। उस दिन उसे अपनी माँ पर बहुत ग़ुस्सा आया था। उस दिन से उसे माँ किसी राक्षस की तरह लगती हैं। जो जल्लाद की तरह उससे कचरा बिनवाती है और ख़ुद मस्ती करती रहती है। उस दिन उसने माँ से कह दिया था, कि वह कचरा बीनने नहीं जायेगी। कहीं लड़के फिर आ गये तो....। पर माँ ने उसकी एक ना सुनी। जब वह ज़िद करने लगी तो माँ ने उसकी सुताई कर दी। वह बहुत रोई और फिर उसे यहाँ रोज़ की तरह आना पड़ा। सुंदर को भी आना पड़ा। उसने सुंदर को समझाया था कि, कुछ नहीं होता .... वे लड़के भला अब क्यों आयेंगे। वे उनके हिस्से का कोयला जो नहीं लेते। उसने उस बूढ़े चौकीदार को भी बता दिया है, कि वे कोयला नहीं लेते हैं, वे अब कोयला नहीं लेंगे। तो फिर वे क्यों आयेंगे? उसने सुंदर को समझाया और सुंदर समझ गया था। उसे अच्छा लगा कि सुंदर समझ गया। वह बड़ी जो है। उसकी बात तो समझेगा ही। समझना ही चाहिए। वह सुंदर से बड़ी है। वह सुंदर को समझा चुकी है .....ऐसा सोचकर उसे अच्छा लगा। उसे अच्छा लगा कि वह बड़ी है। पर सुंदर को समझाने के बाद, वह ख़ुद डरती रही थी। वह आज तक डरती है। सुंदर नहीं डरता है। क्योंकि सुंदर को वह समझा चुकी है। सुंदर को विश्वास हो गया है, कि वे लड़के अब नहीं आयेंगे। पर वह डरती है। सो उसने सोचा है कि अगर वे आ गये तो वह गुलमेंहदी की झाड़ी में सुंदर के साथ छुप जायेगी।

वह वैगन से नीचे उतर आई। ....... उसके मन में अब भी गालियाँ थीं ...... स्साले, भोसड़ी के, हरामी...... सारा बचा हुआ कोयला ले गये। वैगन में झाड़ू लगाकर ले गये।

उसने गिट्टी के ढेर पर रखा अपना बोरा उठाया और कचरा बीनने लगी। टूटे कांच के टुकडे, प्लास्टिक की टूटी फूटी चीज़ें, काग़ज़ और गत्ते की चीज़ें........ वह बड़ी तेज़ी से बटोर रही थी। उसे मालूम है, उसे क्या बटोरना है और क्या नहीं? माँ कह रही थी, पंचू (कबाड़ वाला) आजकल हर चीज़ देखकर लेता है। मोल-भाव भी ज़्यादा करने लगा है। कचरे की कोई भी अच्छी चीज़ उसकी निगाह से नहीं बच सकती। पहले वह कांच और प्लास्टिक के टुकड़े बटोर लेती है और फिर कपड़ों की चिंदिया, रद्दी और गत्ते के टुकड़े बटोरती है। फिर वह धूल भरे कचरे के ढेर को अपने हाथों से उलट-पलट देती है। वह कचरे को भीतर तक खखोलती है। ढेर को उखाड़ती है। कांच के कुछ और टुकड़ों और प्लास्टिक के नये टुकड़ों के लिए, वह कचरे से लगभग लड़ती सी है।

वह पूरी तन्मयता से अपने काम में लगी रहती है। उसके सामने सब हार जाते हैं, तपती, झुलसा देने वाली लू, आग उगलता सूरज, सब उसके सामने हार जाते हैं। बीच-बीच में थककर वह थोड़ा रुक लेती है। उसका तांबई चेहरा, सूरज की रोशनी में दमकता सा है। कचरे से बटोरी हर चीज़ वह अपने बोरे मे बेतरतीब ढंग से भरती जाती है। एक ढेर से कचरा बटोर लेने के बाद वह बोरा अपनी पीठ पर लटकाये, दूसरे ढेर की ओर बढ़ जाती है। बीच-बीच में वह रेल्वे स्टेशन की ओर देखती है। ख़ासकर तब जब कोई ट्रेन वहाँ आकर रुकती है। कभी-कभी वह पलटकर ओव्हर ब्रिज की ओर देख लेती है। क्या पता सुंदर आता हुआ दीख जाय? पता नहीं आज क्यों नहीं आया? 

पहले-पहल जब उसने कचरा बीनना चालू किया था उसे यह काम अच्छा नहीं लगता था। वह बहुत जल्दी थक जाती थी। पर अब वह इस काम की अभ्यस्त हो गई है। कभी-कभी कचरे में उसे कोई अच्छी अनमोल सी चीज़ मिल जाती है। अभी कुछ दिनों पहले उसे कचरे में शाहरुख खान की पूरी साबुत फोटो मिली थी। वह फोटो बिल्कुल ठीक थी। बस उसका कांच एक तरफ़ से चटक गया था। शाहरुख खान उसे अच्छा लगता है। उस फोटो को पाकर वह बहुत ख़ुश हुई। फिर उसने उस फोटो को झाड़-पोंछकर अपनी झुग्गी में लगा लिया। कभी-कभी कचरे से कुछ अच्छी चीज़ें मिल जाती हैं। उसे अब कचरा बुरा नहीं लगता है। उसे लगता है, पता नहीं उसमें से क्या ना निकल आये? कांच और प्लास्टिक के टुकड़े बटोरते-बटोरते कभी कभी कुछ अनमोल निकल ही आयेगा। इतना अनमोल कि उसकी ख़ुशियों का ठिकाना न हो। पता नहीं क्या है? पर इतना तय है कि कचरा अब उसे बुरा नहीं लगता। उसे उसमें कुछ उम्मीद सी लगती है।

उस दिन भी उसे कचरे से एक अद्‌भुत चीज़ मिली। एक पेंसिल। एक पूरी साबुत पेंसिल। बस वह एक तरफ़ से थोड़ा टूटी थी, बाक़ी वह पूरी ठीक थी। उस पेंसिल को पाकर उसे ख़ुशी हुई। वह अपना बोरा लेकर वापस गिट्टी के ढेर पर आकर बैठ गई। उसने पैंसिल को अपने दाँतों से छीला। एक अजीब सा कसैला स्वाद उसके मुँह में भर गया। और फिर गत्ते के एक टुकड़े को वह पेंसिल से गोदने लगी।

गिट्टी के ढेर पर बैठे-बैठे उसने अपनी फ़्राक ठीक की। घुटने मोड़े और ठीक उसी स्टाइल में बैठ गई, जैसा कि रेल्वे स्कूल के बच्चे अपनी बैंचों पर बैठते हैं। पैंसिल से काग़ज़ को गोदते-गोदते वह सोचने लगी, कि अगर वह स्कूल जाती तो क्या-क्या होता? कैसा लगता? .....वह कई बार तरह-तरह की बातें सोचती रहती है। ख़ासकर कचरा बीनते समय जब वह बिल्कुल अकेली होती है, तब तो वह जाने कहाँ-कहाँ की बातें सोचती रहती है। पर स्कूल की बातें सोचना उसे सबसे अच्छा लगता है।

कचरा बीनते समय स्कूल की घण्टी थोड़े-थोड़े समय बाद सुनाई देती है। आजकल बच्चों की परीक्षा चल रही हैं। सो स्कूल नहीं लगता है। हर गर्मी ऐसा ही होता है। पिछले साल भी ऐसा ही हुआ था और इसके पिछले साल भी। कुछ दिनों में स्कूल की छुट्टी हो जायेगी। स्कूल बंद हो जायेगा। स्कूल की घण्टी की आवाज़ भी आना बंद हो जायेगी। सुंदर बता रहा था कि सब स्कूल गर्मियों में बंद हो जाते हैं। फिर कोई भी स्कूल नहीं जाता है। ज़ोर की गर्मियाँ जो पड़ती हैं। ऐसी तेज़ गर्मी में सब लड़के लड़कियाँ अपने घर में रहते हैं। तपती लू में, पूरी दोपहर वे घर में ही रहते हैं। ....... उसने आकाश की ओर देखा। उसकी आँखें चुंधिया गईं। उसे लगा उसका चेहरा जल ना जाये। उसने तेज़ी से अपने चेहरे को अपने हाथों के बीच दबा लिया।

रेल्वे वाला स्कूल ब्रिज के ठीक पहले पड़ता है। घण्टाघर चौराहे से ब्रिज की ओर मुड़ते समय रोड के किनारे-किनारे दूर तक स्कूल की बाउण्ड्री है। वह अक्सर उस रास्ते से गुज़रते समय ठिठक जाती है और स्कूल की बाउण्ड्री के बीच बनी लोहे की जाली से स्कूल के अंदर झाँकती है। कुछ दिनों पहले जब स्कूल चलता था, वह कभी-कभी क्षण भर को रुक कर बाउण्ड्री के जंगले से स्कूल के अंदर झाँकती थी। उसे ऐसा करना अच्छा लगता था। वह आज भी जबकि स्कूल बंद है, आते वक़्त बाउण्ड्री के अंदर झाँक लेती है। वह अजीब सी प्रतीक्षा कर रही है, जाने कब स्कूल खुलेगा और बच्चे आयेंगे? 

कभी कभी वह सोचती है, अगर वह स्कूल जाती तो क्या-क्या होता? वह बाउण्ड्री से दिखने वाले किनारे के कमरे में बैठती है। उस कमरे में उसकी उम्र के बच्चे बैठते हैं। वह जो किनारे वाली खिड़की है, रोड से बिल्कुल सटी हुई। बस उसी खिड़की के पास। अगर वह स्कूल जाती तो वह वहीं बैठती। उन बच्चों की ड्रेस बड़ी अच्छी है। ख़ासकर लड़कियों की। काले जूते, सफ़ेद मोजे, सफ़ेद ब्लाउज, नीला स्कर्ट, सफ़ेद रिबन ........... और तो और बिल्कुल एक से गहरे नीले रंग के बस्ते।

................हाथों के बीच चेहरा दबाये-दबाये उसके चेहरे की जलन कुछ कम हो गई थी। उसने गुलमेंहदी की झाड़ियों की ओर देखा और फिर अपनी मैली कुचैली फ़्रॉक की ओर। यह फ़्रॉक माँ ने लाकर दी थी। किसी के घर वह खाना माँगने गई थी और उसने उसे यह फ़्रॉक दे दी थी। जब यह फ़्रॉक नई थी, तब गुलाबी सफ़ेद रंग की थी। अब इसका कोई रंग नहीं है। धूल, पसीना और धूप खाकर यह सिर्फ़ एक मैला-कुचैला कपड़ा भर रह गई है। उसके पास बस यही एक फ़्रॉक है। ... उसने सोचा वह माँ से ज़िद करेगी कि, उसे नई फ़्रॉक ला दे। भले माँ उसे डाँटे, उसे मारे। पर वह ज़िद करेगी। ज़रूर करेगी।

............वह फिर से स्कूल के बारे में सोचने लगी। जब पहली-पहली बरसात होती है, तब स्कूल की खिड़कियों से बच्चों के कई छोटे-छोटे हाथ खिड़की के बाहर निकल आते हैं। हर बच्चा पानी की बूँदें अपने हाथ में लेने के लिये मचल उठता है। पूरे स्कूल में शोर सा मचने लगता है। खिड़की से बाहर निकले हाथ, पानी की छोटी-छोटी बूँदों में घूमते हैं। उठते और गिरते हैं। बच्चों में होड़ सी लग जाती है। स्कूल के टीचर उन्हें डाँटते हैं और उनके हाथ खिड़की के अंदर करवाते हैं पर हल्ला मचता रहता है। बहुत देर बाद ही, बच्चों का शोरगुल थम पाता है। उसने सोचा स्कूल के बच्चे तो पागल हैं भला बरसाती पानी में हाथ नचाना कोई अच्छी बात है। उसे तो बरसात से डर लगता है। जब बरसात चालू होती है, उसका मन भारी हो जाता है। क्योंकि उसे फिर पानी में भीगते हुए कचरा बीनने का काम करना पडता है। पूरे यार्ड में पानी और कीचड़ भर जाता है। तेज़ पानी में भागकर कहीं जाया भी नहीं जा सकता। वह बूढ़ा चौकीदार भी यार्ड की शेड में उन्हें खड़ा नहीं होने देता है। अगर कोई मालगाड़ी खड़ी हुई तो वह और सुंदर उसमें घुस जाते हैं। पर ज़्यादा देर को नहीं। क्योंकि फिर काम भी तो करना होता है। पिछले साल माँ ने पॉलीथिन को सीकर एक बरसाती बना दी थी। पर वह भी ज़्यादा टिक नहीं पाई .....। बरसात तो ख़राब होती है। पता नहीं स्कूल के बच्चों को बरसात कैसे अच्छी लगती है। और वे पगलाये से चिल्लाते हैं। वह स्कूल में होती, तो बच्चों को समझाती कि बरसात अच्छी नहीं है। बरसात ख़राब है।

पर क्या स्कूल के बच्चे उसकी बात मानते? .....उसे विश्वास है कि स्कूल के बच्चे उसकी बात मानते। अगर नहीं मानते तो वह मनवा लेती। उसकी बात तो माननी पड़ती है। सुंदर नहीं मानता था, पर अब मानने लगा है। उसकी हर बात में सुंदर हामी भरता है। उसे लगता है, वह समझदार है और चीज़ों को ज़्यादा बेहतर जानती है। सो उसकी बात सुनी जानी चाहिए। सुंदर सुनता है और उसकी बात मानता है। स्कूल के बच्चे भी मानते। नहीं मानते तो वह मनवा लेती। वह ज़्यादा समझदार जो है। ..... ऐसा सोचकर उसे अच्छा लगा।

उसे अपने पैरों में जलन सी महसूस हुई। गर्मियों में दोपहर दो बजे के बाद उसे ऐसी जलन महसूस होती है। उसने यार्ड के किनारे लगे नल को देखा और आसपास उस चौकीदार को भी। जब उसे यह विश्वास हो गया कि वह कहीं नहीं है, तो वह नल की ओर चली गई .....।

लौटी तो सूरज पश्चिम की ओर उतरने लगा था। गर्मी और तेज़ हो गई थी। उसने बुझी नज़र से ओव्हर ब्रिज की ओर देखा .....। सुंदर शायद अब नहीं आयेगा। पर एक अजीब सी उम्मीद उसे है। वह आता है, तो उसे अच्छा लगता है। गर्मियों के सन्नाटे में, उसे अकेले काम करना अच्छा नहीं लगता है। सुंदर आता है, तो वे दोनों बातें करते हैं। साथ-साथ कचरा बीनते हैं। साथ-साथ सुस्ताते हैं। ..... अकेले में उसका मन भारी हो जाता है। अगर गर्मियाँ नहीं होती, तो उसे बोरियत नहीं होती।
एक बार वह और सूरज स्कूल के अंदर तक चले गये थे। उस दिन स्कूल का मेनगेट खुला था। स्कूल का चौकीदार भी नहीं दीख रहा था। वे दोनों थोड़ी देर बाहर खड़े रहे। फिर सुंदर ने भीतर चलने को कहा। पहले तो उसने सुंदर को मना कर दिया। उसे यूँ खड़ा रहना अच्छा लग रहा था। उसकी भी इच्छा हो रही थी, कि एक बार भीतर तक देखकर आये। स्कूल की कक्षायें, खेलने वाला मैदान, स्कूल के टीचर, .....पता नहीं क्या-क्या तो होता है? पर चौकीदार के भय के कारण उसने सुंदर को मना कर दिया। पर दूसरे ही क्षण उसे लगा कि चौकीदार भला क्या करेगा? धक्का देकर बाहर कर देगा ...... बस और कुछ तो नहीं करेगा ना। ऐसा सोचने के बाद वह भी स्कूल के भीतर तक जाने को तैयार हो गई। उसे लगा एक बार जाया जा सकता है। फिर स्कूल का गेट भी तो बंद ही रहता है। मौक़ा कहाँ मिलता है। उस दिन वो और सुंदर भीतर तक गये थे। स्कूल के मेन गेट से भीतर तक एक रोड थी, जिसके दोनों ओर घास उगी हुई थी। घास के किनारे-किनारे सुंदर फूल उगे थे। वह सुंदर के साथ उस कमरे की खिड़की के पास तक गई थी, जिस कमरे के बच्चे उसे सबसे अच्छे लगते हैं। जिस कमरे के बारे में वह सोचती है कि अगर वह स्कूल गई तो वह वहीं बैठेगी। वे दोनों थोड़ी देर तक खिड़की के पास खड़े रहे थे। खिड़की के किनारे बैंच पर एक लड़की बैठी थी। उस लड़की ने उन दोनों को देखा था। वह लड़की उन दोनों को टुकटुका कर देख रही थी। जैसे वे दोनों कोई अजीब सी चीज़ हों। ..... लेकिन थोड़ी ही देर में उसने देख लिया था कि, चौकीदार वापस आ गया था और उसकी नज़र उन दोनों पर पड़ गई थी। उसने तेज़ी के साथ सुंदर का हाथ पकड़ा और दोनों भागते हुए स्कूल के बाहर निकले गये। स्कूल का चौकीदार स्कूल के गेट तक उन्हें पकड़ने उनके पीछे भागा, पर वह पकड़ नहीं पाया और वे दोनों भाग निकले। ...... उस बात को याद करते हुए उसे हँसी आती है, और उसने सोच रखा है, कि वे दोनों फिर से एकाध बार स्कूल के अंदर तक जायेंगे। पर स्कूल का गेट उस दिन के बाद से उन्हें कभी खुला नहीं मिला। जब वे दोनों स्कूल के पास से गुज़रते हैं, स्कूल का चौकीदार उन्हें अजीब सी हिक़ारत भरी निगाह से ताकता है। उन्हें स्कूल की बाउण्ड्री के पास भी नहीं जाने देता है। अगर उसकी निगाह पड़ जाये, कि वे दोनों स्कूल की बाउण्ड्री के पास खड़े हैं, तो वह उन्हें डपटकर भगा देता है।

स्कूल के बच्चे तो बेवकूफ़ से हैं। उस दिन उसने देख लिया। वह लड़की कैसे उन दोनों को टुकुर-टुकुर देख रही थी और वे दोनों उस पर हँस रहे थे। कैसे गबदू-गबदू बच्चे हैं। बेवकूफ़ से। अगर वह इस स्कूल में होती तो इन सब पर अपना रौब गाँठती। और सब उसकी मानते। बिल्कुल मानते। वह मनवा जो लेती है। वह ज़्यादा समझदार जो है। पर बच्चों की सब बातें ख़राब नहीं हैं। उसे उनकी कई चीज़ें अच्छी लगती हैं। जब वो एक साथ गाते हैं। तब कितना सुंदर लगता है। सुंदर बता रहा था, उसको पोयम कहते हैं। हाँ, बस वही। वह कितना अच्छा है। कभी कभी स्कूल के बच्चों की पोयम की आवाज़ रेल्वे के यार्ड तक आती है। कभी-कभी वह और सुंदर उस आवाज़ को ध्यान से सुनकर जानने की कोशिश करते हैं कि वे क्या गा रहे हैं। उसे कोई पोयम वाला गाना नहीं आता है। कुछ फ़िल्मी गाने आते हैं। ख़ासकर शाहरुख खान की फ़िल्मों के गाने। उसकी झुग्गी के पास एक पान की दुकान है। पानवाला कई फ़िल्मी गाने बजाता है। और वह पहचान जाती है कि कौन सा गाना शाहरुख की फ़िल्म का है। उसे उसकी फ़िल्म के सब गाने पता हैं। पर वो गाने अलग तरह के हैं। पोयम वाले गाने में सब बच्चे एक साथ गाते है और सुना है कि वह सिर्फ़ बच्चे ही गाते हैं, जबकि फ़िल्मी गाने फ़िल्म के हीरो हिरोइन गाते हैं। फिर फ़िल्मी गाने समझ में आते हैं। पर पोयम वाला गाना समझ में नहीं आता है। पर फिर भी उसे पोयम वाला गाना अच्छा लगता है। सारे बच्चों की एक सी आवाज़ उसे अच्छी लगती है। उसने कई बार लोगों से जानने की कोशिश की है कि वे क्या गाते हैं? उसने माँ से पूछा, पंचू मामा से पूछा ...... पर कोई नहीं बता पाया कि वे क्या गाते हैं? ....ख़ैर, जो भी हो। पर वे गाते बहुत अच्छा हैं।

लू कुछ कमज़ोर पड़ गई थी। गुलमेंहदी के छोटे-छोटे फूल रेल की पटरी और गिट्टी के ढेर के इर्द गिर्द फैली झाड़ियों पर ठुमक रहे थे। उसे ये फूल बहुत अच्छे लगते हैं। एक ही फूल में कई छोटे-छोटे पीले-लाल फूल। हर फूल छोटे-छोटे फूलों का एक गुच्छा है। कितने सुंदर। पर इन फूलों को कोई उगाता नहीं है। कोई इनकी माला नहीं बनाता। कोई इन्हें भगवान पर नहीं चढ़ाता .....। पता नहीं क्यों? उसे समझ नहीं आता। पता नहीं क्यों लोग ऐसा करते हैं? एक दिन सुंदर ने गुलमेंहदी के ख़ूब सारे फूल तोड़कर उसे दिये थे। फिर वह भी उन्हें तोड़ने लगी थी। उसने उन फूलों को अपनी फ़्रॉक में झोली सी बनाकर भर लिया था। उनमें से कुछ फूल उसने अपने सूखे भूरे बालों में लगा लिये थे। सुंदर उसे देखकर हँस रहा था। उसे भी ख़ुद पर शर्म आ गई थी। पता नहीं वह भी क्या-क्या पागलपन करती रहती है।

तभी मालगाड़ी के पीछे वाली पटरी से कोई सवारी गाड़ी निकली। वह गिट्टी के ढेर पर खड़े होकर उसे देखने लगी। ट्रेन से किसी ने चिप्स का एक ख़ाली पैकेट फैंका। ट्रेन के जाने के बाद उसने वह पैकेट बटोर लिया। उस पैकेट के अंदर पड़े चूरे को अपने हाथ में झाड़ा और उसे चाटने लगी। उसे खाने की हर चीज़ अच्छी लगती है।

सूरज थोड़ा और पश्चिम में सरक गया। मालगाड़ी की छाया गुलमेंहदी के पेड़ों तक बढ़ गई। अचानक उसकी तंद्रा टूटी। वह भी जाने क्या-क्या सोच रही थी। चिप्स के नमक का नमकीनपना अभी भी उसके मुँह में था। तभी रेल्वे स्कूल की लम्बी घण्टी सुनाई दी। वह घबरा गई। कितना समय बीत गया। शाम होने को आई। और उसने अभी तक काम शुरू नहीं किया। उसने बोरे में झाँककर देखा। बोरे के नीचे मुट्ठी भर कांच और प्लास्टिक के टुकड़े पड़े थे। रोज़ जब वह अपनी झुग्गी पहुँचती है, माँ उससे उसका बोरा ले लेती है और उसे झुग्गी के अंदर एक कोने में उलट देती है। जब बोरा पूरा भरा होता है, तब माँ कुछ नहीं कहती है। पर जब बोरा कम भरा होता है तब माँ उसे डाँटती है, उसे भला-बुरा कहती है। कभी-कभी कम कचरा बटोरने का उसे दण्ड भी मिलता है। बोरा कम भरा देखकर माँ बहुत ज़्यादा नाराज़ हो जाती है। वो उसे मारती-पीटती भी है। वह चिल्लाती है, पर वे उसकी नहीं सुनती हैं। वह उसे गंदी और भद्दी गालियाँ देते हुए पीटती है। फिर उसे खाना भी नहीं देती हैं। उसे माँ पर बहुत ग़ुस्सा आता है। पर वह जानती है, वह छोटी है। वह माँ से लड़ नहीं सकती। एक दिन तो उसे माँ पर इतना ग़ुस्सा आया कि उसने माँ को पत्थर उठाकर मार दिया और भाग गई। पर कुछ समय के बाद उसे वापस झुग्गी आना पड़ा। उस रोज़ वह जान गई थी, कि वह भागकर कहीं नहीं जा सकती है। उसे हर बार वापस आना है और माँ की गालियाँ, फटकार और मार सहनी है।

........यह सब सोचकर वह और घबरा गई। सूरज क्षितिज पर था और रात घिरने को थी। उसने कचरा बीनने का काम अभी ठीक से शुरू नहीं किया था। वह घबरा रही थी। उसे लगा आज माँ उसे मारेगी। उसे अपनी माँ बहुत ख़राब लगती है। बस रात दिन उससे काम करवाती है और काम न करो तो डाँटती-मारती है। उसे माँ पर कई बार ग़ुस्सा आता है। वह माँ को कई बार गालियाँ भी दे देती है। जब माँ उसे मारती है, तब वह अपना हाथ छुड़ाकर भाग जाती है, और दूर तक माँ को गालियाँ देती रहती है। उसने सोचा है, जब वह बड़ी हो जायेगी, तब माँ को छोड़कर चली जायेगी। अपना अलग झोपड़ा ले लेगी। पर माँ के पास नहीं रहेगी।

......पर आज वह बुरी तरह घबरा गई थी। कल भी उसका बोरा कम भरा हुआ था और माँ ने उसे डाँटा था। और आज पता नहीं क्या होगा? ऐसा सोचने पर उसे अपना मन भारी सा लगा। वह बोरा उठाकर कचरे की ओर चली गई। फिर वह कचरे पर टूट गई। पर जल्दी ही रात घिर आई। उसका बोरा आधे से भी कम भर पाया था।

लौटते वक़्त रास्ते में वह सोचती रही। उसे ख़ुद पर भी ग़ुस्सा आ रहा था। वह भी पता नहीं, कहाँ-कहाँ भटकती रहती है? जाने क्या-क्या सोचती रहती है? उसे पूरा ध्यान काम पर लगाना चाहिए। अगर वह सुबह से सिर्फ़ काम पर लगी रहती, सुंदर का इन्तज़ार नहीं करती, गिट्टी के ढेर पर आराम नहीं करती, स्कूल की बात नहीं सोचती ...... तो उसका काम शाम से पहले ही निबट जाता। उसकी भी ग़लती है। उसे इस बात का मलाल भी हुआ कि वह छोटी है उसे लगता कि अगर वह थोड़ा बड़ी होती, तो जल्दी-जल्दी कचरा बीन पाती। इतनी जल्दी थकती भी नहीं। उसे यह सोचकर बुरा लगा कि वह छोटी है।

झुग्गी से पहले ही सुंदर मिल गया।

"तू आज काहे नहीं आया?"

"मेरे को बापू एक होटल ले गया था। मेरे को फिर से होटल का काम मिल गया है।"

सुंदर ने चहकते हुए कहा। उसे सुंदर की बात अच्छी नहीं लगी। उसे लगा काश उसे भी ऐसा कोई काम मिल जाता। कचरा बीनने से अच्छा काम। उसे सुंदर से चिढ़ सी हुई।

"चाल्ड लेबुर।"

उसने सुंदर को जीभ दिखाते हुए कहा। सुंदर ने उसे गाली दी और भाग गया। उसे ख़राब लगा। उसे लगा उसे सुंदर को ऐसा नहीं कहना था।

जब वह झुग्गी के पास पहुँची माँ नहीं थी। कालू झुग्गी के बाहर मिटटी में कुछ सूँघ रहा था। कालू देसी कुत्ता है। जब वह पिल्ला था वह उसे ले आई थी। उसने बोरा एक तरफ़ पटका और बाहर निकल आई। उसे माँ पर ग़ुस्सा आ रहा था। पता नहीं चाण्डालिन कहाँ घूमती रहती है। सुंदर से उसे अभी भी जलन हो रही थी। पर उसकी यह जलन यह कुढ़न अब सुंदर की बजाय माँ पर उतर रही थी। माँ को घर में न पाकर वह माँ पर अपनी कुढ़न निकाल रही थी।

आजकल माँ गल्ला मण्डी जाती है। अनाज की तौल के बाद जो अनाज ज़मीन पर गिर जाता है उसे बटोरती रहती है। सुबह से शाम तक इसी काम में लगी रहती है, जैसे पता नहीं कहाँ का पहाड़ तोड़ लाई हो।

उसे दूर धुँए भरी रात की कालिख में माँ की छाया दिखाई दी। अँधेरे में डुलती सी छाया। वह समझ गई आज भी पीकर आई है। गल्ला मण्डी के बाहर ही देसी दारू की दुकान है। आधे दिन काम करती है और आधे दिन उस दुकान में बैठी रहती है...अपने यारों के साथ। उसे सब पता है। माँ की छाया देख उसे माँ पर और ग़ुस्सा आया। वह दूसरी ओर मुँह कर खड़ी हो गई। उसे माँ के आने की आवाज़ सुनाई देती रही। वह आई और सीधे झुग्गी में घुस गई। थोड़ी देर बाद माँ तेज़ी के साथ झुग्गी से बाहर आई।

"आज भी ख़ाली बोरा ले आई – रांड।”

माँ के एक हाथ में लकड़ी का एक टुकड़ा था। वह घबरा गई। पर माँ के लिए मन में जो ग़ुस्सा था, वह निकल पड़ा-

"दिन भर मस्ती मारती है और मेरे को काम पर लगाये रहती है। कल से नहीं बीनूँगी कचरा... सुन ले।"

माँ उसकी ओर लपकी। वह भागने को हुई पर उसका झोंटा माँ के हाथों में आ गया।

"स्साली...एक तो काम नहीं करेगी और ऊपर से जबान लड़ाती है।"

"हाँ नहीं बीनूँगी कचरा.....।"

उसने बड़ी डिठाई के साथ कहा। माँ ने लकड़ी से उसकी सुताई कर दी। वह चीखकर रोने लगी।

"खाने को मन भर चाहिए। और काम चोरी में अव्वल।"

माँ ने लगातार उसके पैरों और पीठ पर डंडे बरसा दिये। वह बिलबिला गई। उसने पूरी ताक़त से अपने को माँ से छुड़ाया और भाग खड़ी हुई। भागते हुए वह माँ को गाली देती रही।

वह देर तक रोड के किनारे पटरी पर गुड़मुड़ी बनी सुबकती रही। कालू उसके पास चला आया था। उसने अपने पैरों और हाथों पर उसकी गीली नाक का स्पर्श महसूस किया। पर देर रात कालू भी चला गया। वह बहुत देर बाद झुग्गी वापस लौटी। सारा शहर सो गया था। रोड पर कोई ट्रेफ़िक नहीं था। एक्का-दुक्का गाड़ियाँ आ-जा रहीं थी।

उसने महसूस किया कि वह बहुत कमज़ोर है। उसे अपने छोटे होने पर शर्म सी आई। उसे अपने ऊपर ग़ुस्सा भी आया। उसे लगा काश वह बड़ी होती।

उसके पैर और पीठ पर डण्डे के निशान उभर आये थे। पूरा शरीर दर्द कर रहा था। पीठ की खाल बुरी तरह जल सी रही थी।

उसे यह भी लगा अगर वह कचरा बीनते समय सुंदर का इन्तज़ार नहीं करती, स्कूल की बात नहीं सोचती ..... और सिर्फ़ काम करती रहती तो यह नौबत नहीं आती।

माँ सो चुकी थी। जब वह अश्वस्त हो गई कि माँ सो गई है, तो वह धीरे से झुग्गी में सरक आई। बोरे के टुकड़े पर वह लेट गई। कालू जाग गया था। वह उसके पास आकर सो गया। वह अब भी सोच रही थी उसे लगा शायद वही ग़लत है। लेटे-लेटे उसने ख़ुद से एक वादा किया कि कचरा बीनते समय वह सिर्फ़ कचरा बीनने का काम करेगी। वह कुछ भी नहीं सोचेगी। न तो सुंदर के बारे में और ना ही रेल्वे वाले स्कूल के बारे में। वह कचरा बीनने के अलावा और कुछ नहीं करेगी। ना गुलमेंहदी के फूल बटोरेगी और ना गट्टी के ढेर पर बैठकर देर तक सुस्तायेगी। और ना खेलेगी। स्कूल की तरफ़ तो वह बिल्कुल भी नहीं जायेगी।

उसे भूख लग रही थी। वह धीरे से चूल्हे की ओर बढ़ी। पतीले में कुछ नहीं था। जब माँ नाराज़ हो जाती है, तब उसके लिए वह कुछ नहीं छोड़ती है।

वह रात देर तक जागती रही। उसकी भूख बढ़ गई थी। और उसका ख़ुद से किया वादा पक्का होता जा रहा था। ..... हाँ वह नहीं सोचेगी। काम करते समय स्कूल वाली बात तो वह बिल्कुल नहीं सोचेगी। पता नहीं क्यों उसे स्कूल की बात सोचने में मज़ा आता है। स्कूल की बात सोचो तो समय कितना जल्दी बीत जाता है। वह अब कचरा बीनते समय स्कूल की बात नहीं सोचेगी। वह सिर्फ़ अपना काम करेगी। जब तक वह बड़ी नहीं हो जाती, तब तक वह कुछ और कर भी तो नहीं सकती है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं