अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

गुलमोहर से अमलतास तक

रिन...............ट्रिन ट्रिन। ............ट्रिन फ़ोन की घंटी लगातार बजती जा रही थी पर फ़ोन भी मैं ही उठाऊँ, कोई सुनता ही नहीं जैसे घर में। घर के सारे काम मुझे ही करने पड़ते हैं खाना बना रही हूँ तो फ़ोन तो जनाब उठा सकते हैं, पर नहीं कम्प्यूटर पे हैं न तो कहाँ फ़ोन उठायेंगे, घंटी लगातार बजती जा रही है। उफ़्फ़ दीपक तुम फ़ोन क्यों नहीं उठाते, कहते हुए मैंने फ़ोन उठा लिया।

"हेल्लो, कौन?"

"बेटा माँ बोल रही हूँ अभिषेक की शादी तय हो गई है २७ नवम्बर को है।"

"कौन सी माँ? लखनऊ वाली या मुम्बई वाली..?"

"अरे बेटा मुम्बई वाली ही हुई है, तुम सब को आना है ज़रूर, ज़रा जल्दी आना।"

"अरे माँ क्या बात करती हो अभि की शादी और हम न आयें; ऐसा कैसे हो सकता है हम ज़रूर आएँगे," - कह के फ़ोन रख दिया।

"दीपक सुनते हो! अभिषेक की शादी २७ नवम्बर को है टिकट अभी से ले लो नहीं तो मिलेंगे नहीं।"

"अरे भाई की शादी है तो खुशी देखो इनकी! हूँ, ...............जाना तो पड़ेगा ही सारी खुदाई एक तरफ़ जोरू का भाई एक तरफ़।" और हँसने लगे ये।

मैंने तुनक के कहा, "नज़र न लगाओ जी मेरी खुशी को.. हाँ नहीं तो।"

खाना खा के ये तो रिया के साथ सो गए। पर मारे खुशी के मेरी आँखों में नीद कहाँ थी। क्या करूँगी क्या खरीदना है। मीना की बेटी को भी तो मैंने नहीं देखा था, अरे मेरी बहन अभी उसकी बेटी हुई है उफ़्फ़ इतनी सारी खुशियाँ। हम ३ बहनें और एक भाई है। मेरी शादी हो गई, मेरी बेटी रिया। मीना की शादी हो गई उसकी बेटी रोमा और अब भाई अभिषेक। बस अब मोना रह जायेगी। पता नहीं मैं ये सब क्यों सोच रही हूँ या किसी को बता रही हूँ, मालूम नहीं। मारे खुशी के पता नहीं क्या-क्या कर रही हूँ। सोचते-सोचते सो गई।

सुबह जा के ये टिकट भी ले आए। वेटिंग मिला, ख़ैर दीपक ने कहा कि कन्फर्म हो जाएगा।

फिर तो शुरू हो गया ख़रीदारी का सिलसिला। मोना के लिए, मीना के लिए, बेटी रोमा के लिए, अपने लिए भी। सभी के लिए मैं खरीदारी कर के लाती जाती और बड़े प्यार से रखती जाती। वहाँ से फर्माईशें भी आती रहतीं और मैं पूरा करती रही। दीपक की एक बात बहुत अच्छी थी कि ये किसी भी बात को मना नहीं करते थे। बल्कि पूरा सहयोग देते थे।

फिर आ गई जाने की तारीख़। दीपक को बाद में आना था। इनको अभिषेक से दिल्ली में मिलना था फिर दोनों को साथ आना था। अभिषेक अमेरिका से आ रहा था न, इसीलिए दीपक ने हम को ट्रेन में बैठा दिया। जम्मू मेल से हम लखनऊ रवाना हो गए।

शाम जो ३ बजे चल के दूसरे दिन १२ बजे तक पहुँचना था लखनऊ। पर ट्रेन थोड़ी लेट हो गई तो २ बजे पहुँचे। माँ-पापा लेने आए थे। घर पहुँच के थोड़ा आराम करने लगे पर मोना को सबर कहाँ था, बोली - "दीदी मैं समान खोल लूँ, देखूँ तो क्या-क्या आया है?"

"उफ़्फ़ अभी रुक जा", माँ बोली। पर कहाँ सुनना था उसने। समान खोल के सभी चीज़ें देख डालीं। उस को सब बहुत पसंद आया था। मीना का समान और रोमा का समान अलग कर के रख दिया और अपना ले भाग ली अलमारी में रखने।

फिर माँ कहने लगी, बेटा मैंने लिस्ट बना ली है बेटे की शादी है सब को कुछ न कुछ देना होगा तो कितनी साड़ी लेनी है, कितने सूट बच्चों के, कपड़े जेंस्ट के सभी कुछ इस लिस्ट में है, कल चल के ले आया जाएगा।

"ओके माँ," तभी मोना आ के बोली, "दीदी देखो, मीना दीदी तुम्हारे लिए क्या-क्या लाई है।"
"अरे बाबा रे इतना सारा समान!"

"हाँ जानती हो दीदी ने कुछ समान इग्लैंड से ख़रीदा है और कुछ स्विटज़र्लैंड से।"

"बहुत अच्छा समान है। चलो जब बात होगी तो बोलूँगी।"

शाम को मीना से बात की, रोमा के बारे में इतनी बातें बताईं की मिलने को मन हो आया, उसने कहा कि "रोमा के होने की पूजा है फिर पार्टी है। सब को आना है।"

"अरे भाई मैं तो नहीं आ पाऊँगी। माँ-पापा भी नहीं तुम तो जानती हो न कितना काम है बस मोना आएगी।"

तो बोली, "ठीक है पर मोना को ज़रूर भेजना।"

"ओके, हाँ सुनो दीदी तुम मेरी भी तैयारी कर देना साड़ी ले लेना और ब्लाउज माँ के नाप का सिलवाना। रोमा के होने में बहुत मोटी हो गई हूँ न इसीलिए।"

"जी सरकार और कोई हुक्म?" मैंने मज़ाक किया।

"अरे दीदी तुम भी न... ओके दीदी चलो रखते हैं, रोमा रो रही है।"

"अच्छा जी बाय," कह के फ़ोन रख दिया।

फ़ोन रखने के बाद याद आया कि अरे लो समान के बारे में तो कुछ कहा नहीं। फिर सोचा कि चलो अब तो आ ही रही है तब बात होगी। माँ ने रिसेप्शन के लिए क्या शानदार जगह ली थी, देख के मन खुश हो गया। खाने का मीनू क्या होगा हम ने मिल के डिसाइड किया। पापा ने डीजे भी बुला रखा था। बहुत मज़ा आने वाला था। सभी का मुम्बई जाने का ट्रेन में बुक हो चुका था।

बस मीना को छोड़ के, क्योंकि मीना बोली कि वो रोमा को लेके प्लेन से जायेगी, उन का प्लेन में था।

"मोना यार क्या कर रही हो जल्दी से सामन रखो मीना के घर जाना है न।"

"हाँ रख रही हूँ।"

"अभी माँ फल तो आया ही ही नहीं," मैं बोली।

"अरे मोना वहीं से ले लेना," माँ ने कहा।

"पर माँ ट्रेन तो सुबह पहुँच जायेगी और एक बार जब घर चले गए तो फल लेने कहाँ जा पाएँगे। फल तो यहीं से ले जाना होगा।"

"अच्छा बाबा जाओ, पापा के साथ ले आओ।"

बाहर बरसात हो रही थी पानी काफी तेज़ था पर जाना तो था ही। रेनकोट पहन के पापा और मोना फल लेने चले गए।

"चलो माँ हम और बाकी समान रखते हैं।" हम ने मीना के यहाँ ले जाने वाला सारा समान रख दिया। थोड़ी देर में मोना और पापा भी आ गये। फल की टोकरी पे रंग बिरंगे कागज लगा के उस को सुंदर बना दिया गया। जब सब हो गया तो पापा ने कहा, "चलो अब सोते हैं। मैं सुबह मोना को छोड़ आऊँगा।"

अगले दिन सुबह मोना चली गई। हम शादी की छोटी मोटी तैयारी में लग गए।

फिर शाम को माँ के साथ जा के सभी को देने वाला सब समान ले आए। पूरे घर में समान ही समान दिख रहा था। माँ बोली, "स्नेह सब सामान ठीक से रख दो। अभी तक मीना होती सब रख दिया होता।"

मीना को सफ़ाई बहुत पसंद थी। वो सब कुछ बहुत अच्छे से रखती थी। माँ का उस पे बहुत भरोसा था।

मोना ने गोरखपुर पहुँच के फ़ोन किया कि वो आराम से पहुँच गई है और बोली कि रात में आँखों देखा हाल सुनायेगी। हाँ जरूर, कह के मैंने फ़ोन रख दिया।

पूरा दिन रिया की देखभाल में और काम में कहाँ बीत गया पता नहीं चला। शाम को फ़ोन आया मोना का बोली, "मोना रिपोर्टिंग, यहाँ का माहौल बहुत अच्छा है। मीना दीदी ने पीले रंग की साड़ी पहनी है बहुत सुंदर लग रही है। रोमा तो परी लग रही है। हम सभी होटल जा रहे हैं जहाँ फंक्शन होना है। यहाँ होटल में बहुत लोग आये हैं। बहुत अच्छा लग रहा है बीच में एक पालना लगा है जो फूलों से सजा है उस पे अभी रोमा लेटी है।"

"अच्छा रिपोर्टर जी अब बस करें हम को सब पता चल गया। अब ये बताओ की सब को सामान कैसा लगा?" बोली बहुत ही अच्छा लगा।

"अच्छा चलो मीना डाँट रही है फोन रखती हूँ। ओके बाय।"

माँ ने पूछा, "सब ठीक है न?"

"हाँ माँ सब ठीक है मैंने कहा।

फिर अगले ही दिन मोना आ गई बोली कि मीना तीन दिन बाद आयेगी। ठीक है माँ बोली २७ की तो शादी ही है और २३ की तिलक यानी कि वो २२ को आयेगी। चलो ठीक है हम सब तैयारी कर लेंगे।

भाई तो दीपक के साथ दिल्ली में था। दीपक ने बताया कि दोनों मिल के खूब समान खरीद रहे हैं कल आ जायेंगे। हम सभी सुबह का इंतज़ार करने लगे।

दोपहर का खाना खा रहे थे कि फ़ोन आया। मोना ने फ़ोन उठाया कुछ बात की और रख दिया। हम ने पूछा क्या हुआ? बोली कि मीना की तबियत ख़राब है, उसे ले के हॉस्पिटल गए हैं।

"क्या हुआ?" माँ ने पूछा।

"जीजू बोल रहे हैं कि ब्लड प्रेशर कुछ लो है तो डॉक्टर को दिखाने लेजा रहे हैं।"

अब तो सभी थोड़ा परेशान हो गए, ख़ैर किसी तरह से सभी ने खाना खत्म किया।

मोना ने बताया कि जीजू थोड़ी देर में फ़ोन करेंगे। फ़ोन आया तो पता चला कि डाक्टर ने कहा है कि कोई परेशानी की बात नहीं है। दावा दे के भेज दिया। चिन्ता थोड़ी कम हुई।

हम सभी अपना समान रख रहे थे बारात में ले जाने वाला। माँ हम को डाल का समान समझा रही थी। देखो स्नेह, ये शिन्घोरा है, ये पर्छानी है, ये माथ धक्की की साड़ी है, ये सेट है...

"उफ़ माँ कितनी बार समझाओगी समझ गई न।"

"मैं जानती हूँ तुम बिलिली हो। मीना आ जाती तो उसको ही सब समझाती।"

"अच्छा माँ..." और हम सब हँसने लगे।

"अच्छा माँ जब मीना आ जायेगी तो उस को भी बता देना ठीक है न।"

सामान रखते-रखते बहुत रात हो गई। हम सोने लगे थे कि फिर फ़ोन आया। मीना को फिर अस्पताल ले गए हैं। मैंने पूछा, आखिर हुआ क्या है? तो कोई साफ से बता ही नहीं रहा था। पर फिर लगा कि कल सुबह तक आ जायेगी।

सुबह भाई दीपक के साथ आ गया खूब सारा समान ले के, अमेरिका से भी हम तीनों के लिए बहुत सारी चीज़ें लाया था। सब कुछ तीन लाया था। समान देख रहे थे तो मैंने कहा, "अभिषेक जानते हो मीना की तबियत ठीक नहीं है उस को अस्पताल ले गए हैं।" तो अभिषेक बोला, अरे दीदी परेशान क्यों होती हो। आ जायेगी ठीक हो जायेगी।

दिल बहुत घबड़ा रहा था तो फिर फ़ोन किया। आशीष ने बताया कि उस के पैर में बहुत दर्द है। मैंने कहा, "अरे उसके शरीर में ज़हर फैल रहा है। ऐसा दर्द तभी होता है।" पर वो बोला पता नहीं क्या हुआ है, ठीक से बताया नहीं। गोरखपुर में जब तबियत ठीक नहीं हुई तो उस को ले के लखनऊ आने की बात हुई।

अब कहाँ की तैयारी कहाँ की पैकिंग। सभी को मीना की चिन्ता लग गई अब तो बस घड़ी-घड़ी फोन हो रहा था। पता चला कि उसको साँस लेने में परेशानी हो रही है, उस को ऑक्सीजन लगाया गया है। अब तो बस कहाँ कि नींद कहाँ का चैन। लगा कि किसी तरह से बस लखनऊ आ जाये तो ठीक हो जाएगी।

लखनऊ आते-आते रात के ३ बज गए थे। मेरी बहन दो दिन गोरखपुर में अपनी बीमारी से लड़ती रही, अभी तक भी किसी ने ये नहीं बताया कि उस को हुआ क्या है। पी जी ई (संजय गाँधी नाम है) में उस को ले जाया गया। वहाँ डाक्टर ने उस की ओर देखा तक नहीं। बहुत कहने पर तो उस को ऐडमिट किया गया पर दवा के नाम पे कुछ नहीं दिया गया।
डाक्टर क्या ऐसे होते हैं। भगवान बेकार में ही लोग उन्हें कहते हैं। सारे डाक्टर एक ९० साल के स्वामी जी में लगे थे। इस २५ साल की लड़की की उनको कोई चिन्ता नहीं थी, जिसने अभी अपनी बच्ची को जी भर के खिलाया भी नहीं। उस स्वामी की सेवा में लगे हैं जिनका जीवन लगभग पूरा हो गया है। ये तो है हमारा देश, आम आदमी की हालत है ये।

मुझे तो अस्पताल नहीं ले जाया गया। क्योंकि मेरी छोटी बेटी थी। मीना की बेटी रोमा को, जो मात्र २५ दिन की थी, मुझे दे दिया गया और कहा गया कि इसने ३ दिन से माँ का दूध नहीं पिया है। मेरी तो आँखों से पानी बहने लगा। ये कैसा भाग्य है इस मासूम का। मैंने रोमा को ढूध पिलाना बंद किया क्योंकि वो तो ऊपर का भी पी सकती थी। मैं रिया को दूध पिलाने लगी वो इस तरह पी रही थी कि, मानो कभी मिला ही न हो।

अस्पताल में टेस्ट पे टेस्ट होते रहे। बहन मेरी होश में थी, सब देख रही थी और शायद समझ भी रही थी। सुबह नर्स ने आ के दीपक को एक पर्ची दी और बोलती है, "ये इंजेक्शन ले आओ।" ये पर्ची उस को डाक्टर ने रात में २ बजे दी थी पर वो अब दे रही थी। अभिषेक तो कुछ बोला नहीं पर दीपक को गुस्सा आया। उसने कहा आप को रात में ही देनी चाहिए थी न। नर्स ने कहा, "आप लाते कहाँ से?"

इतना लापरवाह इन्सान कैसे हो सकता है। थोड़ी ही देर में डाक्टर आ के बोली कि ये बहुत सीरियस है आप इस को ले जायें इस को सप्टीसीनीया हो गया है। मेरी बहन सब सुन रही थी। क्या बीती होगी उसपे फिर भी उसने दीपक से पूछा, "भइया, क्या कह रहे हैं कि मैं बहुत सीरियस हूँ अब बचूँगी नहीं।" दीपक दिल कड़ा कर के बोला, "नहीं नहीं, तुम ठीक हो जाओगी।"

वहाँ से छोड़ दिया पर अम्बुलेंस कोई नहीं दी। उस के लिए भी बहुत बहस हुई तो जा के अम्बुलेंस मिली। दिन का टाईम, सड़क पे बहुत भीड़ थी। किसी तरह से के जी ऐम सी पहुँचे अभिषेक और दीपक। वहाँ पे डाक्टर ने ठीक से देखा पर बोली कि बहुत देर हो गई है। आप ३ घंटे पहले भी ले आते तो शायद हम बचा लेते और सच में बहुत देर हो गई थी। मीना ने वहाँ पे आखिरी बार उलटी की और अपने पति की ओर देखते हुए दुनिया से चली गई। हमारी तो दुनिया उजड़ गई। उस के घर वालों ने कुछ बताया नहीं, क्या गोरखपुर में डाक्टर ने कुछ बताया नहीं होगा? पर क्या कहें। हम ने जो कभी सपने में भी नहीं सोचा था वो हो चुका था। हमारी बहन जो घर में सब को प्यारी थी, हम को छोड़ के जा चुकी थी, मैं किसी तरह से अस्पताल पहुँची मीना को देखा, लगा अभी उठ जाएगी। मोना तो उस को देखने भी नहीं गई कहने लगी कि मीना को वो ज़िन्दा ही याद रखना चाहती है। उसी मीना को, जिस को उसने आखिरी बार गेट पे हाथ हिलाते देखा था। उस मीना को, जो पार्टी में बहुत खुश थी, उस मीना को जो अपनी बेटी की हँसी पे वारी जा रही थी। वह उस को ही अपनी यादों में रखना चाहती है।

मीना को गले लगाया तो लगा कि डाक्टर ग़लत कह रहे हैं, ये जीवित है अभी। क्योंकि शरीर गरम था, मैं चीखी दीपक, "देखो ये बच जायेगी, ये ज़िन्दा है। प्लीज़ डाक्टर से कहो न प्लीज़।"

मेरे माँ बाप जो आपने इकलौते बेटे की शादी खुशियाँ मानना चाहते थे, वो आज बेटी के जाने का शोक मना रहे थे। माँ तो बस यही बोल रही थी, "स्नेह अब क्या होगा? मेरा बच्चा मेरा बच्चा चला गया। भगवान इतनी बड़ी नाइन्साफी क्यों? उठाना ही था तो मुझे उठा लिया होता।"

गाड़ी आ गई। पर मोना तो जा के दूर खड़ी अपनी कार में बैठ गई थी। मैं कभी अपनी मीना को इस हाल में देखूँगी, सोचा नहीं था। कितनी मासूम दिख रही थी, लगता था सो रही है। हाँ सो ही तो रही थी पर कभी न उठने वाली नींद में।

मीना के ससुराल वाले उस को ले के चले गए (आज भी उस के शरीर को लिखना मुश्किल लग रहा है)

हम घर आ गये। घर में सारे मेहमान आ चुके थे क्योंकि कल ही तो तिलक आनी थी।

फ़ोन की घंटे बजी। इस घंटी से एक अजीब सा डर लगने लगता। फ़ोन उठाया तो अभिषेक की ससुराल से था उन को मना किया गया। कहा गया अब मत आओ हम लुट चुके हैं।

सारा रिज़र्वेशन कैन्सिल करवाया गया। हमारे चाचा चाची और जो भी बाकी आये थे, सभी को जाने की जल्दी थी। मेरी बहन के जाने का दुःख तो किसी को नहीं था, बस दुःख था तो मुम्बई न जा पाने का। चाचा बोले, "चलो अब काहे को समय खोटी करना। घर का काम करें।" चाची बोली, "खेत सूख रहा होगा चलो चलते हैं।"

मैं हैरान ये रिश्तेदार हैं सुख के साथी। मेरी माँ रो-रो के उनको रुकने को कह रही थी और वो। ........

ख़ैर किसी के रहने न रहने से क्या फर्क पड़ना था जो भी दुःख था हमारा था, जो पीड़ा थी हमारी थी, दुःख के काँटे जो चारों ओर इस घर में उग आए थे उस की चुभन तो अब हम सब को सहनी थी। अब मैं उसको कभी नहीं कह पाऊँगी कि उसका लाया समान बहुत अच्छा था। गुलमोहर की जो छाँव मैं जम्मू से ले के चली थी वो अमलताश में परिवर्तित हो चुकी थी। उसी के तले बैठ मैं बस ये ही सोच रही थी, आखिर ऐसा मेरे ही साथ क्यों?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

बाल साहित्य कविता

बाल साहित्य कहानी

नज़्म

कहानी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं