अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

गुण का ग्राहक

एक बार कुछ व्यापारी पानी के जहाज़ से दूसरे देशों में अपना माल बेचने निकले। साथ में दिशा बताने वाले कौवे को भी अपने साथ ले गए। उस समय रास्ता बताने वाले यंत्र नहीं थे। अत: भटकने से बचने के लिए दिशा जानने वाला कौवा साथ में रखना ज़रूरी था। जिस देश में वे पहुँचे वहाँ पक्षी नहीं होते थे। जिसने भी कौवे को देखा उसकी प्रशंसा करते लगा। कोई कहता –इसकी चमड़ी तो मक्खन सी चिकनी है। आह! कैसा चटक रंग है। कोई कहता - गले तक सुराही सी लम्बी चोंच है और आँखों का क्या कहना, वे तो मणि की तरह गोल-गोल चमचमा रही हैं।

"मित्र, यह पक्षी हमें दे दो। हमें भी इसकी ज़रूरत है। तुम्हें तो अपने देश में ऐसा दूसरा पक्षी मिल जाएगा," एक नगरवासी ने कहा।

"यह हमारे बहुत काम का है मगर मित्रता के नाते हम तुमको दिए देते हैं," व्यापारी बोले।

सौ सोने के सिक्कों के बदले में कौवे को दे दिया गया।

नगरवासियों ने उसे सोने के पिंजरे में रखकर माँस-मछली खिलाया और बड़े ध्यान से पालने लगे।

कौवा अपना इतना आदर देख फूल कर कुप्पा हो गया।

दूसरी बार बनिए व्यापारी उसी देश में फिर आए और इस बार अपने साथ एक सुन्दर मोर भी लेकर आये जो चुटकी बजाने पर आवाज़ लगाता और ताली बजाने पर रंगबिरंगे पंख फैलाकर नाचने लगता। उसे देखने सारा नगर उमड़ पड़ा। भीड़ को देखकर मोर उल्लास से भर उठा। नौका पर खड़े होकर उसने अपने सुंदर पंख फैला कर नाचना शुरू कर दिया।। नगरवासी उसे देख मुग्ध हो गए और बोले – "मित्रो,यह तो बड़ा ही सुन्दर सुशिक्षित पक्षी है। नाचते हुए पक्षी को पहली बार देख रहे हैं। इसे तो हमें दे दो।"

हम कौवा लेकर आये, तुमने ले लिया। अब मोर लेकर आये तो उसे भी लेना चाहते हो। तुम्हारे देश में तो कोई पक्षी लाना ही मुसीबत है।"

"मित्रो, कुछ भी हो – इसे तो मेहरबानी करके हमें दे ही दो। तुम्हें तो अपने राष्ट्र में दूसरा मिल जाएगा।"

व्यापारी तो व्यापारी ठहरे, उन्होंने उनकी ऐसी माँग देख मोर की कीमत बढ़ा दी और उसे हज़ार स्वर्ण सिक्कों के बदले में दे दिया।

मोर के लिए कौवे से भी ज़्यादा सुन्दर सात रत्नों का पिंजरा बनवाया। उसे मछली-मांस, फल और मीठा शरबत खिला–पिलाकर पाला जाने लगा।

मोर के आने से कौवे के बुरे दिन आ गये। उसकी तरफ अब कोई देखना भी नहीं चाहता था। एक दिन तो उसे खाने-पीने को कुछ मिला ही नहीं, तब वह कांव–कांव - चिल्लाता हुआ कूड़ा-करकट गिराने की जगह उतरा और अपनी भूख शांत की।।

असल में गुणवानों के सामने बेगुणों को कोई पसंद नहीं करता।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

17 हाथी
|

सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता…

99 का चक्कर
|

सेठ करोड़ी मल पैसे से तो करोड़पति था मगर खरच…

अपना हाथ जगन्नाथ
|

बुलाकी एक बहुत मेहनती किसान था। कड़कती धूप…

अपने अपने करम
|

रोज़ की तरह आज भी स्वामी राम सरूप जी गंगा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

डायरी

लोक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं