गुज़र (गुज़ारा)
शायरी | ग़ज़ल अंजुम कानपुरी3 May 2016
एहसान पर बच्चों के, बुज़ुर्गों की गुज़र होती है।
कलेजा फटता है मेरा, जब ऐसी ख़बर होती है।
ज़िन्दां में ज़िन्दा रहें, कह ज़िन्दगी है क्या यही।
बंद कमरों में कहीं, बादशाहों की बसर होती है।
ज़िन्दां = क़ैद
अँधेरे कोने में पड़े, औलाद की रहमत के तले।
शायद फिर मरने पर ही, उनकी सहर होती है।
नासूर जब रिश्ते बनें, ये बुज़ुर्ग तब कैसे जियें।
पीर उठती है इधर और जलन ए ज़रर होती है।
ज़रर = घाव
बेदर्द हुआ बेटा ही तब, दौलत भले कितनी रहे।
घर में हों नालायक़ जब, नाशाद नज़र होती है।
नाशाद = दु:खी/उल्लहास हीन
दुख भरा 'अंजुम' तुझे, मालिक क्या अर्ज़ करे।
इन क़ैदियों की आह क्या वहाँ बेअसर होती है।
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