हाल
शायरी | ग़ज़ल अंजुम कानपुरी5 Dec 2015
मैंने पाई है तुमसे सब ये दौलत भी ये शोहरत भी।
मगर छुटती नहीं मेरी ख़िलाफ़त भी ख़जालत भी।
(ख़जालत = शर्मिंदगी)
मिल जाये वो हक़ मेरा जो मिला नहीं तेरी ग़ल्ती,
हर अच्छे पे मुहर अपनी अजब है ऐसी आदत भी।
मतलब परस्त हूँ समझो मैं तुझ तक यूँ नहीं आता,
मेरा सजदा भी धोखा है है मतलब की इबादत भी।
जहाँ पे लगता है मुझको कि मिल जायेगा गोया तूँ,
वहीं पर छोड़ कर ढूँढूँ तो मिलेगी क्या इनायत भी।
हुआ है क्या मुझे 'अंजुम' मैं कई टुकड़ों बँट बैठा,
रफ़ाकत भी नज़ाकत भी हिराकत भी हिमाक़त भी।
(रफ़ाकत = अच्छी समझ)
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