अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हालत  पतली  होइगै

हालत  पतली  होइगै  दद्दू बड़े-बड़े घरकी।
छुटकयेन कै गाड़ी भल कस आगे सरकी।

 

खेत मा छुट्टा साँड़ ख़ुशहाल
घटतौली   खुब  करैं   दलाल
  जमाखोर      हैं    मालामाल
   ग़ायब किहिन थरिया से दाल
    गगरिव   फोरे   कलजुग   मा
     घीउ      न     कबौ    ढरकी।     (1)

 

देखुवा   जो   दरवाजे   आवैं
बात-बात   मा   भाव   देखावैं
  म्वांछा मा खुब   ताव   लगावैं
   लालकिला  अपनै     बतलावैं
    घरमा घुटैं  घरैतिनि  चिंता  मा
     चुटकी   भरि     शक्कर   की।      (2)

 

छोटकैयन   कै  का  औक़ात
बड़े-बड़े  जब     हैं    घबरात
  तिथि-त्योहार    बजारै   जात
   मंहगाई मा कुछु कहाँ सोहात
    थोकभाव      मूरी     तौलावैं
     पूरे       हफ्ता      भर     की।      (3)

 

फुरिनि  कहत   हौ  बचुवा बात
आवै     जो   कबौ    नांत-बांत
   तावा  भला   हुवै   कस   तात
    लड़ै आपस  मा  चकिया जाँत
     चूल्ह   न    फूँकै   मान  बड़ाई
      पितिया  सास   कै  नईहर  की।      (4)

पातरि     बात     बतावै   को
पर्दा     भला       उठावै   को
  अँधरे का    राह   देखावै  को
   आपन    दीदा      ख़्वावै  को
    फुरसति मिलै न   शाम   सबेरे
     बातन    से    इधर उधर    की।     (5)

 

सुना है  गाँव  मा  वई  बड़े  हैं
  अबकी बार चुनाव मा खड़े  हैं
   पिछिलिउ परधानी तो  लड़े  हैं
    न्याय नीति  उई   सबै   पढ़े  हैं
     किहिन कबौ न जीवन मा बातै
      या      को      लर-जर      की।      (6)

 

आवै    जब    कउनो   त्योहार
  कोटेदारो        करैं      बिचार
    चीनी  उठावै का   हैं  तईयार
      लइ  जईंहैं    काला   बाजार
       बिना मिठाई   वाली गोझिया
         गटई    मा   कइसे    सरकी।     (7)

 

जेठ  अषाढ़   मा  ज्वातो  खूब
यूरिया  डीएपी     झोंको  खूब
  म्याण पड़ोसी  कै   छांटो  खूब
   अनभल अउरे का  ताको  खूब
    नज़र    आवै औक़ात   दूरि  से
     "अमरेश"   ऊसर   बंजर    की।     (8)
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अतिथि
|

महीने की थी अन्तिम तिथि,  घर में आए…

अथ स्वरुचिभोज प्लेट व्यथा
|

सलाद, दही बड़े, रसगुल्ले, जलेबी, पकौड़े, रायता,…

अनंत से लॉकडाउन तक
|

क्या लॉकडाउन के वक़्त के क़ायदे बताऊँ मैं? …

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

लघुकथा

कहानी

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं