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हार के आगे ही जीत है

'हार के आगे ही जीत है' – यह बात अक़्सर सुनने को मिल जाती है। अब प्रश्न उठता है कि– 'क्या जीत का रास्ता हार से होकर जाता है?', 'क्या हार जीत का मार्ग प्रशस्त करती है?', 'क्या हार को जीत मान लिया जाय?', 'क्या हार होने पर हार से सबक़ लेकर जीत जाने के लिए कोशिश करनी चाहिए? या कि 'हार-जीत से परे अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होना चाहिए?' इस तरह के कई और भी प्रश्न हो सकते हैं। परन्तु, बात केवल प्रश्न की नहीं है, कुछ और भी है जिसे जानना-समझना ज़रूरी है। पहले प्रश्न को ही ले लें तो यह ज़रूरी नहीं कि हर जीत का रास्ता हार के गलियारे से होकर ही जाता हो। इसी प्रकार से प्रत्येक हार जीत का ही मार्ग प्रशस्त करती हो, यह भी निश्चित नहीं। हार को जीत मानना तो कुछ अधिक ही दार्शनिक (प्रेमी, पागल और फ़क़ीर के लिए उपयुक्त) हो जायेगा – 'प्रेम वह व्यवहार है जो जीत माने हार को/ तलवार की भी धार पर चलना सिखा दे यार को' (कवि दिनेश सिंह)। हार से सबक़ लेकर जीत जाने के लिए कोशिश करने में कोई बुराई नहीं। प्रसिद्ध साहित्यकार सोहनलाल द्विवेदी जी कहते भी हैं कि– 'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।' द्विवेदी जी कोशिश के महत्व को रेखांकित तो करते हैं, किन्तु यह भी कह देते हैं कि 'कोशिश' करने वाले की हार नहीं होती है। यानी कि जीत होगी भी कि नहीं, इस पर वह कुछ कहते ही नहीं दिखते। वह मेहनत करने और विश्वास एवं उत्साह बनाये रखने का मूल मन्त्र ज़रूर देते हैं,  कुछ इस तरह से –

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय-जयकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

सफल होना एक कला है; असफल होना उससे भी बड़ी कला है। सफल होने पर कर्ता को अक़र अपनी अच्छाइयाँ ही दिखाई देती हैं, कमियों पर तो उसकी नज़र ही नहीं जा पाती। किन्तु, असफल होने पर कर्ता सदैव दोहरे अनुभव से गुज़रता है– वह अपनी अच्छाइयों और कमियों को जाँचता-परखता है और यथा-शक्ति उनमें सुधार भी करता है। इस दृष्टि से तो असफलता (हार) सफलता (जीत) से बड़ी कला हुई? कला एक साधन तो हो सकती है, साध्य कभी नहीं। इसलिए यहाँ पर असफलता साधन-भर है और सफलता साध्य। इस साधन और साध्य के बीच की दूरी को तय करने के लिए, अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति, सूझ-बूझ, कठोर परिश्रम एवं लगन भी बेहद ज़रूरी है। यह सब होने पर हो सकता है कि कर्ता को जय-जयकार का अनुभव हो जाय और उसकी हार न हो। अब प्रश्न उठता है कि- 'फिर जीत का क्या?' भगवद्गीता कहती है कि 'हार-जीत से परे जाकर' अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता –

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।

भक्त के लिए भक्ति श्रेष्ठ है, ज्ञानी के लिए ज्ञान श्रेष्ठ है और कर्मयोगी के लिए कर्म श्रेष्ठ है। इससे तो यही हुआ कि 'श्रेष्ठ' की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है। हार-जीत तो अपनी जगह हैं। अब प्रश्न उठता है कि यदि तात्विक दृष्टि से हार का विलोम जीत नहीं हो सकता (द्विवेदी जी की कविता के संदर्भ में), तो क्या श्रेष्ठता जीत का पर्याय हो सकती है? आलोचक-विचारक इस प्रश्न पर मौन भी हो सकते हैं। मौन होना कोई बुरी बात तो नहीं। किन्तु, भावक के मन में यह प्रश्न तो उठेगा ही कि आख़िर क्यों हार-जीत "नहीं आते कार (लकीर) के भीतर/ निराकार जपते हरि हर हर" (रावण-सीता संवाद) और क्यों कृष्ण-अर्जुन संवाद इस श्लोक में 'कर्म करना श्रेष्ठ है' कहकर इतिश्री कर लेता है। कृष्ण तो जगद्गुरु हैं– 'कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम!' वह तो सब जानते हैं। कहीं वह हार-जीत की सीमाओं की ओर तो इशारा नहीं कर रहे? जैसे वह कह रहे हों– हार-जीत से तो राग-द्वेष उपजता है, दुःख-सुख उपजता है; इससे आनंद नहीं मिलने वाला। आनंद तो हार-जीत से परे जाकर कर्म करते रहने में है– निष्काम कर्म।

प्रश्न यह भी है कि कृष्ण जैसा गुरु सबको कहाँ मिलता है। फिर तो प्रश्न यह भी होगा कि अर्जुन जैसा शिष्य भी सबको कहाँ मिलता है। पर सच तो यह है कि खोजने से सब मिल जाता है; कोशिश करने से सब कुछ संभव है। संभव है तो प्रगति है। मनुष्य प्रगति करना चाहता है– उसकी यह प्रगति आंतरिक भी हो सकती है और बाह्य भी। किन्तु, प्रगति ऐसे ही नहीं होती। प्रगति-पथ पर संघर्ष और सृजन दोनों साथ-साथ चलते हैं। कभी-कभी तो संघर्ष इतना कठिन हो जाता है कि कर्ता को महसूस होने लगता है कि वह असहाय है, कमज़ोर है, शक्तिहीन है और इसलिए वह सार्थक सृजन नहीं कर सकता, अपने लक्ष्य को भेद नहीं सकता, अपने श्रेष्ठ को प्राप्त नहीं कर सकता– जबकि सच कुछ और ही होता है। सच तो यह है कि  इस ब्रह्मांड में कोई भी असहाय, कमज़ोर, शक्तिहीन नहीं है। ज़रूरत सिर्फ़ इतनी-सी है कि वह अपने आपको पहचान ले कि उसके भीतर भी शक्ति है, उत्साह है, उमंग है, विद्या है, ज्ञान है, शील है, गुण है, धर्म है और वह अपनी हार को जीत में और जीत को आनंद में बदलने की सामर्थ्य रखता है। तब निश्चय ही वह अपनी समस्त शक्तियों को संगठित कर उनका ठीक से प्रयोग करते हुए अपने मार्ग पर प्रशस्त हो सकेगा। आज दुनियाँ में ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने अपने आपको पहचाना, अपनी शक्तियों को पहचाना और अपने सत्कर्मों के बल पर बेहद सफल हुए। कभी लियोनार्डो द विन्ची को एक चित्र बनाने में वर्षों लगे थे, कभी डार्विन पिता की नज़र में आलसी हुआ करते थे, कभी स्वामी विवेकानंद नरेन्द्र हुआ करते थे, कभी होंडा इंटरव्यू में निराश हुए थे, कभी रामानुजम बारहवीं में फेल हुए थे, कभी अब्दुल कलाम साहब अख़बार बेचा करते थे, कभी नरेन्द्र मोदी चाय बेचते थे, कभी टॉम क्रू्ज़ को 14 साल में 15 स्कूल बदलने पड़े थे, कभी मिस्टर बीन अपने साथियों के बीच मज़ाक का पात्र बने थे आदि– किन्तु, इन जैसे तमाम लोगों ने कभी हार नहीं मानी और इतिहास रच दिया। ऐसी विशिष्ट विभूतियों ने यह साबित कर दिया कि हार के आगे ही जीत है और जीत के आगे आनंद। आप इसे परमानंद भी कह सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं।

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