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हाय! मैं अभागा पति

श्रीमती श्री मायके गई हुई थी, सो थोड़ा फ़्री था। जब तक वह घर में होती है, मत पूछो कितना व्यस्त रहता हूँ। उसके घर में रहते हुए सिर झुकाए घर से सीधे ऑफ़िस तो ऑफ़िस से सीधे घर। बीच में ग़लती से सिर उठा कहीं तनिक भी इधर उधर ताक-झाँक कर ली तो महाभारत तय। इतिहास में तो एक ही महाभारत हुआ था, दोस्तो! पर अपने घर में तो दिन में पता नहीं कितनी बार महाभारत हो लेते हैं? पर हर बार पांडव वही होती है। 

उसके घर में होते पाँच मिनट भी ऑफ़िस से घर आने को लेट हो जाऊँ तो अपना तो अपना, पड़ोसियों तक के घरों को चाय का ख़ाली गिलास तक न उठाने वाली मज़े से सिर पर उठा लेती है। पर माफ़ करें देवियो और सज्जनो! इसके बाद भी हम पता नहीं क्यों, उसके लिए उसके राम, मेरे लिए वह मेरी सीता है। वह मेरे लिए फटा जूता तो हम उसका आधा उधड़ा फीता हैं। वह मेरे लिए क़ुरान तो हम उसके लिए गीता हैं। न खाते हुए एक दूसरे से न रोया जाए, न हँसा जाए, हम एक दूसरे के लिए वह ख़तरनाक मीठा हैं। 

इन दिनों उसके मायके जाने पर लग रहा है, जैसे मैं भी भरापूरा आदमी हूँ। मैं भी स्वतंत्र हूँ। कम से कम उसके मायके जाने पर घर का काम एक तिहाई तो हो गया है। वह भी जब मन किया तब किया। भगवान करे, अब वह मायके ही रहे। 

बीवी के साथ रहते सुबह पाँच बजे उठने वाला आज दस बजे भी अँगड़ाई ले रहा था कि दरवाज़े पर अचानक दस्तक हुई। अनमने मन से बिस्तर से उठा, दरवाज़ा खोला तो सामने पड़ोस की बेगम। मन देख कर पल में ही बाग़-बाग़ हो गया। 

तभी उसने भी मुस्कुराते हुए मेरी ओर शादी का सा कार्ड बढ़ाया, "सुनिए!"

"जी कहिए?" मन में तूफ़ान सा उठने लगा तो मैंने उसे पूरी तरह दबाते कहा।

मैं न जाने तब क्यों बीस साल से शादीशुदा बेगम की ओर एकटक देखता रहा तो उन्होंने एकबार फिर मेरे एकटक उनको निहारने को अन्यथा लेते हुए, मुस्कुराते हुए मेरी एकटकता को तोड़ा, "ये शादी का कार्ड है। सोचा, आपको देने ख़ुद ही जाऊँगी," कह बेगम ने वह सुंदर सा कार्ड मेरी ओर बढ़ाया। कार्ड को देखकर लग रहा था ज्यों किसीकी सच्ची को पहली मैरिज हो। उस वक़्त मत पूछो मेरे दिल का क्या हाल था! शादीशुदा होने के बाद भी क्यों था ? दिल ही जाने। 

"किसकी शादी है? आपकी?" 

"नहीं, मेरे शौहर की है!" कह वे मंद-मंद मुस्कुराती रहीं तो मेरा दिल और भी बेक़ाबू होने लगा।

तब अपने दिल पर क़ाबू करते-करते मैंने उनसे पूछा, "तो आप कब कर रहीं हैं एक और शादी?"

"उनकी हो जाए, उसके बाद देखूँगी," कह वे और भी मंद-मंद मुस्कुराने लगीं तो मैं पता नहीं क्या, क्यों सोचने लगा? गधा कहीं का!

"आपके शौहर की शादी? पर उनका आपके साथ विवाह नहीं हुआ है क्या?"

"हुआ तो है पर उनका मन कर रहा है कि वे एक और शादी इन्ज्वाय करें। उन्होंने इस बारे में जब मुझसे पूछा तो मैंने कह दिया- देख लो! मेरी बला से तुम चार-चार बीवियाँ रख लो। मैनेज आपको ही करनी हैं।"

"तो??"

"तो क्या! उन्होंने मैनेज करने की हामी भर ली तो मुझे भी ख़ुशी हुई कि चलो, घर के काम में हाथ बँटाने वाली एक और तो आई। सो. . . . इसी ख़ुशी में. . . अगले हफ़्ते मैंने उनकी दूसरी शादी की ख़ुशी में होटल पैलेस से डिनर रखा है। आप इस मौक़े पर सपरिवार आ मेरे पति की और हिम्मत ज़रूर बढ़ाइएगा. . ." उन्होंने कहा और दोनों हाथ जोड़ एकबार फिर मुस्कुराते आगे हो लीं।

सच पूछो तो भाईसाहब इसे कहते हैं बीवी की दरियादिली। मेरी बीवी की तरह नहीं कि जिस दिन उसके साथ रिंग सेरेमनी हुई थी, उसी दिन से मुझे पर शक करने लग गई थी। . . .और जिस दिन उससे मेरा विवाह हुआ था, मत पूछो उस दिन से मेरे क्या हाल हैं? जब देखो! बस, शक! शक ! शक! मेरे सांस्कृतिक परिवेश की बीवियाँ इतनी शकी क्यों होती हैं भाईसाहब? समाजविज्ञानी चाहें तो इस विषय पर मौलिक शोध कर सकते हैं। चोरी-चकारी का शोध तो बहुत हो रहा है।

जबसे वे अपने शौहर का शादी का कार्ड सप्रेम दे गई हैं, ख़ुदा क़सम! मुझे अपने सांस्कृतिक परिवेश से बहुत चिढ़ हो गई है। अपने से बहुत घिन्न आ रही है कि मैं कितने बैकवर्ड सांस्कृतिक परिवेश से बिलांग करता हूँ। मन करता है इस सांस्कृतिक परिवेश को त्याग उनके वाला सांस्कृति परिवेश ज्वाइन कर लूँ, अभी के अभी।
मित्रो! कहाँ उनका आसमान सा खुला परिवेश जहाँ एक बीवी पूरी ईमानदारी से अपने शौहर की शादी का सारा भार अपने कंधों पर सहज उठाए फिरती है,और कहाँ मेरे वाला समाज! जहाँ अपने मरने पर अपनी तेरहवीं के कार्ड भी मरने वाले को ही बाँटने पड़ते हैं।

अपने यहाँ जो एकबार ग़लती से भी किसी से विवाह कर लो बँधे रहो कम से कम सात जन्म तक उसके साथ खूँटे में। खूँटे को तोड़ने की हिम्मत करो तो समाज जीने न दे। . . . .और उनके समाज में वाह! क्या मज़े! इधर धर्मपत्नी के सामने झूठ को भी दूसरी धर्मपत्नी लाने का मज़ाक भी कर दो तो वह रस्सी लेकर स्टूल ढूँढ़ने लग जाए। और उधर शौहर की शादी में आरएसवीपी बन अकेली बीवी अपने शौहर की शादी का सारा का सारा भार उठाने को कितनी आतुर! इसे कहते हैं विशुद्ध धर्मपरायणा। राम क़सम! धर्मपत्नी हो तो ऐसी। वरना! बिन धर्मपत्नी के ही भले। 

 हे इस बेगम के कर कमलों द्वारा दूसरी बार हाथों में मेंहदी रचाने वाले पूजनीय शौहर! तुम बड़े भाग्यशाली हो यार! मेरा मन तुम्हारी आरती उतारने को कर रहा है। तुम धन्य हो! जब तुम्हारी बीवी तुम्हारे हाथों में मेंहदी रचाएगी तो उस अवस्मिरणीय पल की कल्पना करते ही मैं सिहर उठता हूँ। हे दोस्त! अब मुझे भाग्य से चिढ़ सी हो रही है। मन करता है तुम्हारी जगह मैं ऐसी बेगम का शौहर हो जाऊँ। तुम धन्य हो जिसे ऐसी पतिपरायणा बेगम मिली है दोस्त! जो अपने शौहर की दूसरी शादी करवाने को दिनरात तैयारियों में तन मन धन से जुटी है।

हे पहली बीवी के हाथों पर पाँव रख दूसरी बार घोड़ी चढ़ने वाले महापुरुष! तुम्हारी बीवी के तुम्हारे प्रति इस अगाध निर्बाध समर्पण देख मेरा भी मन भी कर रहा है कि मैं भी तुम्हारे वाले सांस्कृतिक परिवेश में अपना पंजीकरण करवा लूँ। धन्य है तुम्हारी बेगम! धन्य हो तुम! काश! मेरी धर्मपत्नी भी इतने ही ऊँचे विचारों की होती! काश! तुम्हारी बेगम से कुछ सीखती तो. . . .

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