हम जीते हैं यूँ
काव्य साहित्य | कविता महेश पुष्पद15 Jan 2020 (अंक: 148, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
रातों की नींदें खोई हैं,
अश्कों से आँखें धोई हैं,
अरमानों की हत्या कर के,
हम जीते हैं यूँ मर मर के।
इच्छा रेतों में बोते हैं,
सपनों की लाशें ढोते हैं,
हर ग़म से समझौता कर के,
हम जीते हैं यूँ मर मर के।
माँ के सपनों का बोझ लिये,
मंज़िल का क़िस्सा रोज़ लिये,
आँखों मे ख़्वाबों को भर के,
हम जीते हैं, यूँ मर मर के।
जो ख़्वाब पिता ने देखा था,
जिस ख़ातिर हमको भेजा था,
भेजा था अपना दिल भर के,
हम जीते हैं यूँ मर मर के।
मन तो अपना भी करता है,
खुद से ही रोज़ झगड़ता है,
बैठें यारों संग जी भर के,
हम जीते हैं यूँ मर मर के।
न थकते हैं, न रुकते हैं,
टूटे हैं पर, न झुकते हैं,
चलते रहने की ज़िद कर के,
हम जीते है यूँ मर मर के
मंज़िल पर क़दमों को रख के,
हम स्वाद सफलता का चख के,
माथे पर विजय तिलक कर के,
एक दिन जी लेंगे जी भर के।
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