हँसने का बहाना
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता हेमंत कुमार मेहरा15 Dec 2020 (अंक: 171, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
हँसो, हँसो, हँसते क्यों नहीं हो?
शादीशुदा हो क्या?
अगर हो भी, तो हँसते क्यों नहीं?
हालात के मारे हो? बीवी के सताए हो?
उदास हो? निराश हो?
या, अपने किये का मलाल है,
अगर हो भी, तो खुल के हँसो,
हँसो, हँसो, हँसते क्यों नहीं हो?
ज़रा सा अपने आप पर हँसो,
जो देखे थे ख़्वाब, उन ख़्वाबों पर हँसो,
हँसने के बहानों की कमी है क्या?
नहीं तो! कहाँ कमी है बहानों की,
हँसो, खिलखिला के हँसो,
उनके साथ हँसो, जो शादीशुदा हैं,
तुम्हारी, मेरी तरह ही ग़मज़दा हैं,
और, किसी गुज़रती बारात पर हँसो,
पार्क में बैठे हुए जोड़ों पर हँसो,
बाइक पर लदे घोड़ों पर हँसो,
हँसो, हँसो जी खोल कर हँसो,
घर से बाहर हो तो हँस भी लो,
घर के भीतर मौक़े कम ही मिलते हैं।
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