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हिंदी आंचलिक उपन्यासों में मानवीय संवेदना

किसी भी समाज के अस्तित्व की कल्पना ‘मानवता’ के बिना करना संभव नहीं है। समाज का निर्माण और विकास उस समाज के निवासियों की स्थिति और उनकी विचारधारा के आधार पर व्याप्त मानवीय मूल्यों के आधार पर होता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में नैतिकता का ह्रास समाज से संबद्ध सभी क्षेत्रों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निःसंदेह इसका कारण मानवीय मूल्यों में आ रहा क्षरण ही है। बाल्यावस्था से ही मानवीय नैतिक मूल्यों को उकेरती दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियाँ चारित्रिक निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं। इन कहानियों के माध्यम से बच्चों को मानवीय नैतिक मूल्यों का बोध होता था, जिसके फलस्वरूप समाज में सामंजस्य और आपसी सौहार्द का निर्माण होता था। मानवीय समाज की स्थापना से ही मानवीय नैतिक मूल्यों पर विचार किया जाता रहा है, क्योंकि ये मूल्य ही समाज को संगठित एवं निदेशित करते रहे हैं। मानव के बिना इन मूल्यों का कोई अस्तित्व नहीं है।

साहित्य मानव के उदात्त भावों और विचारों की अभिव्यक्ति है। इस आधार पर साहित्य का प्रत्यक्ष संबंध मानवीय नैतिक मूल्यों से है। सारतः मानव-समाज के विकास में मानवीय नैतिक मूल्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, और साहित्य इन मूल्यों को संरक्षण प्रदान कर इन्हें पोषित-पल्लवित करता है। हिंदी के नैतिक मूल्यवादी साहित्य ने सदैव मानव समाज को प्रोत्साहित कर मानवीय नैतिक मूल्यों की स्थापना हेतु प्रेरित किया है। हिंदी साहित्य मात्र ‘कला, कला के लिए’ सिद्धांत का अनुगमन नहीं करता, अपितु सांस्कृतिक मूल्यों का समुच्चय, परंपरा से संपृक्ति और जीवन मूल्यों का संरक्षण हिंदी साहित्य का ध्येय है।

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में ‘उपन्यास’ विधा को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिंदी उपन्यास के विकास का श्रेय अंग्रेज़ी एवं बंगला के उपन्यासकारों को दिया जा सकता है, क्योंकि हिंदी साहित्य में ‘उपन्यास’ विधा का आरंभ अंग्रेज़ी और बंगला के उपन्यासों की लोकप्रियता को देखकर हुआ। हिंदी साहित्य के पाँचवें दशक में हिंदी उपन्यास का एक नया स्वरूप दृष्टिगत हुआ, जिसे ‘आंचलिक उपन्यास’ कहा गया। इस तरह के उपन्यासों में उपन्यासकार का ध्यान उस स्थान विशेष की संस्कृति, भाषा-बोली, रीति-रिवाज, रहन-सहन, लोकजीवन, धार्मिक विश्वास इत्यादि के चित्रण में अधिक रमता है। हिंदी के आंचलिक उपन्यासों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ‘आंचलिकता’ का संबंध पिछड़े हुए ग्रामीण जीवन से ही है। नगर और क़सबे के जीवन पर आधृत बहुत से ऐसे उपन्यास मिल जाएँगे, जिनमे चरित्रों की अपेक्षा आधारभूत ‘अंचल’ अधिक मुखर होता है। ऐसी स्थिति में अधिकतर उपन्यास ‘आंचलिक’ माने जा सकते हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत से गहरे जुड़े आंचलिक उपन्यासों में नए और पुराने मूल्यों के द्वंद्व तथा फिर मूल्यों में संक्रमण के जो विस्तृत चित्र मिलते हैं, वे नगरबोधी उपन्यासों में कम ही दृष्टिगत होते हैं। ‘आंचलिकता’ केवल हिंदी उपन्यास में ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय साहित्य की प्रमुख और उल्लेखनीय प्रवृत्ति रही है और है। यह प्रवृत्ति जहाँ विदेशी साहित्य से प्रेरित और पोषित है, वहीं स्वातंत्र्योत्तर भारत के बदले हुए परिवेश का दबाव भी इसके उदय के मूल में है।

हिंदी साहित्य के पुरोधा विद्वान नंददुलारे वाजपेयी हिंदी साहित्य के ‘आंचलिक उपन्यास’ के आविर्भाव को एक प्रतिक्रिया मानते हैं- “हिंदी में भी नागरिक उपन्यास लेखकों की बँधी-बँधाई और पिटी-पिटाई जीवन भूमिकाओं से हिंदी पाठकों की परितृप्ति हो चुकी थी और इस पिष्ट-पेषण से ऊबकर नई वस्तु की ओर उन्मुख होना चाहते हैं। तभी सीमित क्षेत्रों और ग्रामीण अंचलों की जीवनचर्या लेकर आंचलिक उपन्यास का आविर्भाव हुआ।” (प्रकीर्णिका- नंददुलारे वाजपेयी)

‘आंचलिक उपन्यास’ विधा के विकास में एक ओर स्वातंत्र्योत्तर राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियाँ हैं, दूसरी ओर वाह्य प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं। इन उपन्यासों का परिवेश क्षेत्रीय या आंचलिक होता है। क्षेत्रीय भाषा तथा बोली का स्पष्ट प्रभाव इन उपन्यासों में देखा जा सकता है। पात्रों के कथोपकथनों में स्थानीय भाषा का प्रभाव स्वाभाविकता की अभिवृद्धि करता है। उदाहरणार्थ- बिहार के अंचल पर आधारित उपन्यासों (मैला आंचल, परती परिकथा, नई पौध, वरुण के बेटे आदि) में भोजपुरी एवं मैथिली शब्दों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रभाव दिखाई देता है, और मुंबई अंचल पर लिखे गए उपन्यास (सागर, लहरें और मनुष्य) में मुंबईया हिंदी, मराठी शब्दों और लोकोक्तियों का प्रभाव देखा जा सकता है। अवध के अंचल का प्रभाव ‘बूंद और समुद्र’ में तथा ब्रज क्षेत्र का प्रभाव ‘काका’ जैसे उपन्यासों में दृष्टिगत होता है।

आंचलिक उपन्यासों का सृजन हिंदी साहित्य में ‘फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ के आगमन से पूर्व हो चुका था, किंतु उन्हें ‘आंचलिक’ नहीं कहा जाता था, क्योंकि उस समय इस धारा का नामकरण नहीं किया गया था। सन 1954 ई। में ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के उपरांत इस प्रकृति के उपन्यासों की धारा का नामकरण ‘आंचलिक उपन्यास’ किया गया। ‘मैला आँचल’ से पूर्व सृजित इस धारा के प्रमुख उपन्यासों में- ‘बलचनमा’ (नागार्जुन), ‘नई पौध’ (नागार्जुन), ‘काका’ (रांगेय राघव), ‘बहती गंगा’ (शिवपूजन सहाय) और ‘देहाती दुनिया’ (शिवपूजन सहाय) आदि उल्लेखनीय हैं।

अद्यतन परिवेश में निरंतर मानवीय मूल्यों में परिलक्षित हो रही कमियों/बुराइयों का कारण और समाधान साहित्य के माध्यम से ही संभव है। आंचलिक उपन्यास अंचल विशेष के माध्यम से संपूर्ण भारतीय ग्रामीण परिवेश की चर्चा करते हैं। अपने देश-समाज की संस्कृति और उसमें व्याप्त मानवीय संवेदना को यथार्थ रूप में समझने के लिए ग्रामीण परिवेश के अध्ययन की आवश्यकता है। आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से भारतीय परिवेश के विविध ग्रामीण अंचलों और उनमें व्याप्त मानवीय संवेदनाओं से निर्मित मूल्यों से भारतीय संस्कृति के साथ मानवीय नैतिक मूल्यों के नूतन प्रतिमान स्थापित किये जा सकते हैं।

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