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‘हिन्दी दलित आत्मकथाएँ : एक मूल्यांकन’ दलित साहित्य का प्रामाणिक दस्तावेज़

पुस्तक - हिन्दी दलित आत्मकथाएँ : एक मूल्यांकन 
(2018,प्रथम संस्करण)
लेखक - पुनीता जैन,
प्रकाषक -सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
मूल्य - 300/- रुपये 

डॉ. पुनीता जैन की सद्यः प्रकाशित पुस्तक- ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएँ - एक मूल्यांकन’ में हिन्दी दलित साहित्य के उद्भव, विकास के साथ हिन्दी में वर्ष 2017 तक प्रकाशित हिन्दी दलित आत्मकथाओं का क्रमिक रूप से आलोचकीय विश्लेषण करते हुए दलित लेखकों के जीवन संघर्ष और चुनौतियों को बेहद बेबाकी से चित्रित किया गया है। सृजनशील समीक्षक के रूप में पुनीता जी ने दलित जीवन की पीड़ा को तटस्थता के साथ देखते हुए अपने विवेचन में दलित साहित्य की विविधता और रचनात्मक गुणवत्ता को अपनी पैनी नज़र से देखने के साथ उसकी सीमाओं और संभावनाओं को भी स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया है। इस पुस्तक में विषयवस्तु को दो भागों में विभक्त किया गया है- पहले हिस्से ‘दृष्टि’ के अन्तर्गत हिन्दी दलित साहित्य की पृष्ठ भूमि, दलित आत्मकथाओं का परिदृश्य, सौन्दर्यमूल्य, समाज वैज्ञानिक पक्ष, दलित आत्मकथाओं में स्त्री की अवस्थिति को चिन्हित करने का प्रयास किया गया है। दूसरे हिस्से ‘अन्तर्पाठ’ में दलित आत्मकथाओं का उनके प्रकाशन क्रम से सकारात्मक दृष्टिकोण से मूल्यांकन किया गया है ।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में दलितों की दयनीय स्थिति को और क़रीब से समझने के लिए दलित आत्मकथाएँ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। इनकी घनीभूत पीड़ा की अनुभूति, संवेदना और करुणा ही इनके सृजन का प्रमुख आधार रहे हैं। मराठी दलित आन्दोलन का प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हिन्दी दलित रचनाओं में दिखता है।

दलित चिन्तन पर मुख्यतः गौतम बुद्ध, ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर का प्रभाव दृष्टिगत होता है। लेखिका ने अपनी सुचितिंत समीक्षा में इनके सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को बारीकी के साथ प्रस्तुत करते हुए उनके जीवन पर सामाजिक आंदोलनों के पड़ने वाले प्रभावों को भी क्रमबद्ध ढंग से पुस्तक के पहले हिस्से में दिखाया है। इसी पहले हिस्से में हिन्दी दलित साहित्य के विकास के क्रम को ‘अछूत की शिकायत’ कविता (1914, सरस्वती पत्रिका) से मानते हुए सन् 1995 में प्रकाशित मोहनदास नैमिषराय की ‘अपने अपने पिंजरे’ को हिन्दी की प्रथम दलित आत्मकथा माना गया है। इसके बाद जितनी भी आत्मकथाओं का प्रकाशन हुआ है उन सभी को ही आलोचना का आधार मानते हुए उसकी विस्तृत समीक्षा की है। लेखिका ने एक जगह लिखा है- "अनगढ़ता, आक्रोश और आक्रामक तेवर के साथ प्रारंभ हिन्दी दलित आत्मकथा की यात्रा ‘मुर्दहिया’ तक पहुँचकर सघन संवेदनशीलता, गंभीर वैचारिकी और सुगठित स्वरूप के साथ उपस्थित है।" यह विकास यात्रा दलित साहित्य की रचनात्मकता के विकास का संकेत है। मराठी साहित्य की तुलना में हिन्दी की दलित आत्मकथाओं में आत्मस्वीकृति और आत्मग्लानि का स्वर थोड़ा क्षीण है। हिन्दी दलित साहित्य की यह आत्मकथाएँ दलितों के जीवन और समाज का प्रामाणिक आईना है साथ ही दलित चिन्तन को आगे बढ़ाने और समूचे भारत में दलित आन्दोलन को पहचान भी इन रचनाओं ने दी है।

लेखिका यहाँ दलित विमर्श सम्बन्धी रचनाओं में स्त्री पक्ष और उसकी पीड़ा की उपेक्षा पर प्रश्न खड़े करती हैं। फिर यह भी कहती हैं कि फुले और अम्बेडकर के आने के बाद ही दलितों के अन्दर स्वाभिमान जागा। किताब के दूसरे हिस्से ‘अन्तर्पाठ’ में पहले अध्याय की शुरूआत 1981 में प्रकाशित ‘मैं भंगी हूँ’ (भगवानदास) के संबंध में लेखिका ने कहा है कि "मैं भंगी हूँ, एक अछूत द्वारा लिखी हुई अछूत जाति की आत्मकथा है।" इस आत्मकथा ने हिन्दी में पहली बार दलितों के त्रासद जीवन के कई अनछुये पन्ने खोले हैं। इसके बाद 1995 में हिन्दी दलित साहित्य की पहली आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ में मोहनदास नैमिषराय ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था की विषम स्थिति और कटु सच्चाइयों को सामने रखने का प्रयास किया है। हिन्दी की इस पहली आत्मकथा ने आते ही साहित्य के संभ्रान्त प्रतिमानों को तोड़ दलित जीवन की कड़वी वास्तविकताओं के भदेस, अनगढ़ रूप को निःसंकोच प्रस्तुत किया है। यदि हम इन दलित आत्मकथाओं की अन्तर्वस्तु पर ग़ौर करें तो ये आत्मकथाएँ दलित वेदना की ही अभिव्यक्ति जान पड़ेंगी, जिनका धरातल अन्य विधाओं की भाँति कल्पना के कोरे धरातल पर नहीं टिका है, क्योंकि आत्मकथा लेखन की पहली और मुख्य शर्त उसकी सत्यता है फिर चाहे आत्मकथाकार को अपने गोपनीय पक्षों का उद्घाटन ही क्यों न करना पड़े।

इस जातिवादी व्यवस्था ने ही दलितों को उनके तमाम अधिकारों से वंचित कर, उन्हें कुरीतियों में जकड़कर घुटनभरा जीवन जीने को विवश किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में यह महसूस किया है कि दलित के रूप में वे अकेले नहीं है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने दलित बस्तियों के परिवेश का खुला चित्रण किया है। ‘जूठन’ असमानता के ख़िलाफ़ ऐसी साहित्य रचना है जो हिन्दी की सुदीर्घ परम्परा में लम्बे मौन को तोड़ने वाला हस्तक्षेप है। लेखिका ने आत्मकथाकार के व्यक्तित्व को तीन रूपों में पेश किया है- प्रश्नाकुलता, तार्किकता और विद्रोह । दूसरे खंड में वाल्मीकि जी ने दलितों के मानवाधिकारों की लड़ाई और अपने जीवन की कार्यशैली को प्रस्तुत किया है। इन दोनों भागों में लेखक प्रतिरोध की संस्कृति द्वारा समानता, न्याय, मानवाधिकार के पैरोकार के रूप में सामने आते हैं।

भूख, अभाव, ग़रीबी, गन्दगी, अशिक्षा, अंधविश्वास और अस्पृश्यता युक्त व्यवस्था के भीतर जीवन जीता दलित अपनी बस्तियों में इस जीवन को सहज ही अंगीकार किये हुए है। मुक्ति की कोई छटपटाहट नहीं, बोध नहीं। धर्म, संस्कृति, परम्परा के नाम से कई अमानवीय कुरीतियाँ, कुप्रथाओं ने जन्म लिया और जाति आधारित भेदभाव ने सदियों तक एक बड़े जन समुदाय को अंधेरे में बनाए रखा। यह भारतीय समुदाय की कटु ऐतिहासिक सच्चाई है। 

‘झोपड़ी से राजभवन’ में, माता प्रसाद ने अपने जीवन के आरम्भिक संघर्षमय जीवन से शुरू कर राजनैतिक जीवन यात्रा की प्रभावी प्रस्तुति अपनी आत्मकथा में की है। पुनीता जी ने उनकी आत्मकथा का अनुशीलन करते हुए उनके जीवन के उतार चढ़ाव, गरीबी, छात्रजीवन, राजनैतिक जीवन और पारिवारिक जीवन का विशद चित्रण किया है। साथ ही वे दलित आत्मकथा को समय और समाज के झूठ का आईना दिखाने वाली विधा मानती है। दलितों के बीच भी आपसी खींचतान के साथ ही इनके बीच चलने वाली सामाजिक विसंगति को भी यथार्थपरक ढंग से चित्रित किया है। सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘संतप्त’ को कुछ आलोचकों ने स्त्री विरोधी रचना के रूप में भी देखा, इस पर टिप्पणी करते हुए पुनीता जी कहती हैं - दुर्बलताएँ या असंगत प्रवृत्तियाँ स्त्री या पुरुष किसी में भी देखी जा सकती हैं। आत्मकथाकार सूरजपाल चौहान के जीवन पर बचपन के शोषण, रीति-रिवाजों का भय, टूटते परिवार का भय, स्वभावगत दुर्बलता आदि का गहरा प्रभाव पड़ा, लेकिन आगे चलकर उन्होंने इन कमियों पर क़ाबू पाया । 

इस पुस्तक में कुल चौबीस आत्मकथाओं को आधार बनाकर उनकी वस्तुनिष्ठ समीक्षा की गयी है। कुछ चर्चित, कुछ कम चर्चित रचनाकारों की रचनाओं को आधार बनाकर इस पुस्तक की लेखिका पुनीता जैन ने सभी आत्मकथाओं को उनकी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि सभी आत्मकथाओं में एक समान परिस्थिति एक समान समस्या दलित जीवन में दिखायी देती है। अवसर और शिक्षा का बड़ा प्रभाव इन सभी के जीवन में विशेष महत्व रखता है।

नवीनतम प्रकाशित आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ में गाँव और शहर दोनों जगहों में जातिगत समस्याओं, उत्पीड़न और दर्द से गुज़रते दलित समाज की सच्चाई को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। महिला लेखिकाओं ने भी अपनी आत्मकथा प्रकाशित की है जो अपने आप में एक बड़ी प्रगति है क्योंकि दलित जीवन में स्त्रियों के जीवन संघर्ष को कमतर करके दिखाया जाता रहा है। उनका यह प्रयास उनके हिस्से की बेबसी की गाथा को बयाँ करता है।

इस प्रकार इन दलित आत्मकथाओं ने दलित जीवन के उन दर्दनाक व संवेदनशील पहलुओं से हमें अवगत कराया जहाँ वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े इस वर्ग को सिर्फ़ रोटी, कपड़ा और मकान जैसे बुनियादी आवश्यकताओं के लिए भी नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है किन्तु अपने उस जीवन को उन्होंने बेबाक रूप से साहित्य में उतारा है। यद्यपि इन दलित आत्मकथाओं का यथार्थ अत्यन्त पीड़ादायी है फिर भी इन यातनाओं की अतिशयता ने ही दलितों में इनसे मुक्त होने की लालसा भी जगायी। इसी बदलाव के फलस्वरूप कहीं जूठन, मृत पशु तो कहीं मैला उठाने की प्रथा का विरोध हुआ, तो सदियों से शिक्षा के लिए वंचित इस वर्ग में स्वयं को शिक्षित कर समाज में अपनी अस्मिता क़ायम करने की जिजीविषा भी पैदा हुई।

हाशिए पर पड़े इस दलित वर्ग ने आत्मकथा लिखकर लगभग हाशिए पर पड़ी इस विधा को हाशिए का नहीं रहने दिया है। इसमें स्मृतियाँ केवल स्मृतियाँ न होकर वास्तविकता बनकर समाज के सम्मुख खड़ी हो गयी है। इसमें सच कहने का साहस है तथा अपनी यातनाओं को व्यक्त कर पाठकों को एक साथ संवेदनशील और चेतनावान बनाकर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में क़दम बढ़ाया गया है। इस पुस्तक की लेखिका ने कठिन परिश्रम और शोध के उपरान्त इस पुस्तक की रचना की है, इसको पढ़ते हुए लेखिका का श्रम स्पष्ट दिखता है। सिलसिलेवार पुस्तकों की समीक्षा और बेहतर आलोचकीय समझ ने इसे दलित साहित्य के अध्ययन लिए बेहद ज़रूरी पुस्तक के रूप में स्थापित किया है। हिन्दी दलित आत्मकथाओं पर इस तरह का स्वतंत्र विश्लेषण अभी तक अनुपस्थित था यह पुस्तक इस ज़रूरत को ज़िम्मेदारी के साथ पूरी करती है। 

डॉ. कमल कुमार
सहायक प्राध्यापक
हिंदी विभाग
उमेशचन्द्र कॉलेज, 13 सूर्य सेन स्ट्रीट,कोलकाता-12
Mob. 09450181718

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टिप्पणियाँ

Dr Gulabchand Patel 2019/03/13 11:26 AM

आज़ादी के 72 साल बाद भी आज दलित लोग यातना ओ का सामना कर रहे हैं, आप की समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा धन्यवाद हार्दिक बधाई एवं शुभकामना

कृपया टिप्पणी दें

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