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हिंदी फिल्में और सामाजिक सरोकार

भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में हिंदी फिल्मों ने भारत की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सरोकारों को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्मों में मनोरंजन के साथ साथ भारतीय जीवन के विविध पहलुओं को बदलते परिवेश में चित्रित करने में सफलता हासिल की है। हिंदी फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता जीवन में व्याप्त हर तरह की संवेदना को दर्शाना रहा है। भारत में सिनेमा के उदय काल से ही इस माध्यम का प्रयोग फिल्म फ़िल्मकारों ने देश में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए किया। हिंदी फिल्में (भारतीय फिल्में) मूलत: संगीत प्रधान रहीं हैं। गीत और संगीत के बिना हिंदी फिल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी फिल्मों को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक धरातल पर पृथक कर उनमें व्याप्त विभिन्न सरोकारों को विश्लेषित किया जा सकता है। आज़ादी से पहले की फिल्मों के मुख्य विषय स्वतन्त्रता संग्राम, अंग्रेजी राज से मुक्ति के प्रयास और देशभक्त वीरों के बलिदान की कथाओं पर आधारित रहे। हिंदी फिल्मों का प्रथम दौर ऐतिहासिक और धार्मिक फिल्मों का था इस दौर में निर्माता निर्देशक और अभिनेता सोहराब मोदी ने सिकंदर, पुकार, झांसी की रानी जैसी महान ऐतिहासिक फिल्में बनाईं। इन फिल्मों ने लोगों में देश प्रेम की भावना को उद्दीप्त करने का माहौल बनाया। भारतीय नवजागरण आन्दोलन से प्रेरित और प्रभावित होकर फ़िल्मकारों की दृष्टि भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं की ओर गई। परिणामस्वरूप सुधारवादी फिल्मों का आविर्भाव आज़ादी से पहले हुआ। साहित्य की ही तरह सिनेमा भी समाज का दर्पण है। समाज की सच्ची तस्वीर सिनेमा में दिखाई देती है। फ़िल्मकारों ने इस सशक्त माध्यम के द्वारा एक कारगर परिवर्तन और सुधार को समाज में प्रचारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाई जिनकी प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है।

सिनेमा का जन्म सिर्फ मनोरंजन परोसकर पैसे कमाने के लिए नहीं हुआ है। सदा से सिनेमा के मज़बूत कन्धों पर देश-काल और सामाजिक दायित्व का दोहरा बोझ भी हुआ करता है। अपने प्रारम्भिक काल से ही सिनेमा अपने मनमोहक लुभावने अंदाज के साथ-साथ अपनी सरल और प्रभावशाली संप्रेषणीयता के कारण लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामाजिक कुरीतियों के विरोध में सिनेमा का, साहित्य और नाटक की तरह सामाजिक परिवर्तन के ध्येय से एक तेज़ दो-धारी तलवार की तरह इस्तेमाल किया गया।

पचास का दशक हिंदी फिल्मों का स्वर्ण युग है। इसका सबसे बड़ा कारण है - फिल्मों और फ़िल्मकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता। सामाजिक समस्याओं के प्रति एक ईमानदार संवेदनशीलता और उन समस्याओं का समाधान तलाशने की एक ललक जिसे वे दर्शकों में जागरूकता पैदा कर हासिल करना चाहते थे। उन दिनों फिल्म निर्माण का एक मात्र उद्देश्य व्यावसायिकता नहीं हुआ करता था। सामाजिक सरोकारों से जुड़े सशक्त कथानक, संदर्भानुकूल गीत, कर्णप्रिय मधुर संगीत और एक संदेशात्मक सुखद अंत के साथ फिल्में लोगों को आकर्षित करती थीं। निर्माताओं की दृष्टि केवल आर्थिक लाभ पर ही न होकर समाज के लिए स्वस्थ मनोरंजन जुटाने की ओर भी हुआ करती थी। व्यावसायिकता और विनोदात्मकता के संग-संग संदेशात्मकता और रूढ़ियों से मुक्ति की आकांक्षा भी फ़िल्मकारों की सोच का हिस्सा हुआ करती थी। ऐसे फ़िल्मकारों में सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, वी शांताराम, कमाल अमरोही, गुरुदत्त, विमलराय, महबूब खान, नितिन बोस, ताराचंद बड़जात्या, बी आर चोपड़ा, चेतन आनंद, देव आनंद, विजय आनंद, मनोज कुमार आते हैं। आज के दौर में गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल, अनुराग कश्यप, आशुतोष गावरीकर, यश चोपड़ा, प्रकाश झा आदि नाम उद्देश्यमूलक सामाजिक सरोकारों की लोकप्रिय फिल्मों के निर्माण के लिए पहचाने जाते हैं। यदि भारतीय सिनेमा की समग्रता में बात की जाए, तो बंगाल में सत्यजित राय और ऋत्विक घटक ने पचास के दौर में भारतीय समाज के वंचित जनसमूहों के जीवन और उनकी आकांक्षाओं पर फिल्में बनाकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। इस दशक में आने से ठीक पहले 1946 में चेतन आनंद ने 'नीचा नगर' कामगारों और मालिकों के संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया था। कॉन (फ्रांस) जैसे महत्त्वपूर्ण फिल्म समारोह में इस फिल्म को पुरस्कार भी मिला था। ख्वाजा अहमद अब्बास की 'धरती के लाल' में सामाजिक यथार्थ का अभूतपूर्व चित्रण हुआ था।

भारतीय किसान जीवन की त्रासदी को विमल राय ने 1953 में 'दो बीघा ज़मीन' फिल्म में जिस यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया वह मर्मांतक है। पूँजीपतियों के द्वारा गरीब किसानों की ज़मीन को बड़े बड़े उद्योगों के लिए हड़प लेने के षडयंत्र की दारुण और अमानवीय कथा कहती है यह फिल्म। आज के स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन के लिए सरकार की पूंजीवादी नीतियों का प्रारम्भ उसी युग में हो चुका था जिसका बेबाकी से पर्दाफाश विमल राय ने किया। 'बलराज साहनी' ने इस फिल्म में शंभू नाम के गरीब किसान की मर्मस्पर्शी भूमिका निभाई थी, जो अपनी दो बीघा ज़मीन को जमींदार के चंगुल से छुड़ाने के लिए मेहनत मजदूरी करने कलकत्ता पहुँच जाता है। लेकिन उसका हर प्रयास विफल होता है और अंत में वह अपनी ज़मीन से बेदखल हो जाता है। वह अपनी ज़मीन पर किसी बड़े कारखाने को बनाते हुए देखकर कहीं दूर चला जाता है।

वी शांताराम हिंदी सिनेमा को सामाजिक सरोकार से सीधे जोड़ने वाले एक सशक्त फ़िल्मकार थे जिन्होंने प्रभात और राजकमल फिल्म निर्माण संस्थाओं के माध्यम से एक से एक बेजोड़ समाज सुधार की मराठी और हिंदी में कलात्मक फिल्में बनाईं और भारतीय सिनेमा को एक सार्थक दिशा प्रदान की। सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध नए युग का आह्वान करने वाली उनकी फिल्मों में 'दुनिया न माने'(1937) उल्लेखनीय है। बेमेल विवाह की समस्या पर आधारित 'दुनिया न माने' स्त्रीत्व की गरिमा को बेहद खूबसूरती से उभारती है। शांता आप्टे ने नायिका 'नीरा' की भूमिका को जीवंत कर दिया। औरत को भोग्या, चरणों की दासी और उपभोक्ता- वस्तु मानने वालों को यह फिल्म करारा सबक सिखाती है। आज की इक्कीसवीं सदी की फिल्मों में भी यह नारी तेजस्विता जो शांताराम ने 1937 में प्रस्तुत की थी - ढूँढने से नहीं मिलती।

इसी क्रम में उनकी 'दो आँखें बारह हाथ' भी एक प्रयोगात्मक और संदेशात्मक फिल्म थी जिसमें पहली बार वे सज़ायाफ्ता मुजरिमों के चरित्र में बदलाव लाने के लिए उन्हें बंद कारागारों से बाहर निकालकर मुक्त ग्रामीण परिवेश में खेतीबाड़ी करवाकर उनमें मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूकता पैदा करते हैं। शांताराम गांधीवादी विचारधारा को व्यवहारिक रूप से सिद्ध करते हैं जिसके अनुसार मनुष्य में छिपी हुई बुराई को खत्म करना चाहिए न कि मनुष्य को ही।

भारत के बहुत सारे समाज सुधारकों ने अस्पृश्यता के शिकार लोगों के जीवन को बदलने के प्रयास किए लेकिन यह भी सत्य है कि इनमें से किसी ने सिनेमा के माध्यम का इस्तेमाल नहीं किया। हिंदी फिल्मों के सामाजिक सरोकार को बलपूर्वक दर्शाने वाली फिल्मों में अस्पृश्यता की समस्या को प्रस्तुत करने वाली पहली फिल्म फ़्रांज ऑस्टेन की सन् 1936 में निर्मित 'अछूत कन्या' थी जो गांधी जी के सुधार आंदोलन से प्रेरित थी। यह फिल्म प्रताप (अशोक कुमार) नाम के ब्राह्मण लड़के और कस्तूरी (देविका रानी) नाम की अछूत लड़की की एक दारुण प्रेम कहानी है। यह एक दुखांत फिल्म है। इस वर्जित और उपेक्षित विषय को पहली बार फिल्म के माध्यम से लोगों के बीच लाने के लिए फ़िल्मकार ने काफी प्रशंसा बटोरी।लेकिन वास्तव में 1936 में ऐसे विषय को कथानक बनाना बहुत साहस का काम था। फ़्रांज ऑस्टेन जर्मन मूल का फ़िल्मकार था इसलिए शायद उसे यह विषय निषिद्ध नहीं लगा होगा किन्तु विदेशी होने के बावजूद उसने भारतीय समाज का बड़ी गहराई से अध्ययन और अनुभव किया। 'प्रताप और कस्तूरी' के बीच का प्रेम वर्ण भेद से परे है। परस्पर व्याप्त वर्णभेद को मिटाने के लिए प्रताप भगवान से पूछता है कि उसे भी उसने अछूत क्यों नहीं बनाया। उस समय के लिए ऐसी सोच नई थी। इसमे एक ऐसा विवेक है कि सिर्फ अछूत होने में कोई दोष नहीं है, समस्या तब उत्पन्न होती है जब दो जातियों के लोग एक दूसरे से प्रेम करते हैं। शादी के लिए समाज की अनुमति का अभाव फिल्म की एक कठिनाई है, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण तो वह है जो सबको याद दिलाती है कि कई ऐसे निषेध होते हैं जिनको तोड़ना असंभव है। फिल्म में महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि नियमों को तोड़ने की सज़ा लड़की को मिलती है क्योंकि वह नीची जाति की पात्र है। जाति भेद से उत्पन्न सामाजिक असंतोष और आक्रोश की अभिव्यक्ति फिल्मों द्वारा ही सर्वप्रथम समाज के सम्मुख उजागर हुई।

सन् 1959 में इसी समस्या पर विमल राय ने 'सुजाता' बनाई जो फिर से अछूत लड़की और ब्राह्मण लड़के के प्रेम की कहानी है। 'सुजाता' कथा नायिका (नूतन) एक अछूत लड़की है जो एक संभ्रांत परिवार में आश्रय लेती है। यहाँ उसकी देखभाल के लिए अलग व्यवस्था की जाती है जिससे उसकी पहचान उसी रूप में हो सके। आश्चर्य पैदा करने वाला तर्क तब सामने आता है जब 'सुजाता' के लिए पण्डित कहता है कि 'अछूतों के शरीर से जहरीली हवा निकलती है जो आसपास के लोगों के लिए बहुत खतरनाक है।' विमल राय की सुजाता का पंडित कोई अतिरंजित व्यक्ति नहीं है बल्कि भारत में सचमुच ऐसे लोग हैं जो आज भी इन बेतुकी बातों पर विश्वास करते हैं। 'अधीर' (सुनील दत्त) उस संभ्रांत परिवार में विवाह के उद्देश्य से आता है लेकिन वह 'सुजाता' से प्यार कर बैठता है। 'सुजाता' के लिए यह संकट है कि वह जाति से 'अस्पृश्य' है और उस घर में आश्रिता। किन्तु एक नाटकीय घटनाचक्र में उस घर की मालकिन और सुजाता की अभिभाविका 'चारु' के दुर्घटनाग्रस्त होने पर अछूत 'सुजाता' का ही खून उसके काम आता है। विमल राय की यह फिल्म आज़ादी के बाद इस विषय पर बनाई गई पहली फिल्म थी। इसी फिल्म में रवीन्द्रनाथ ठाकुर कृत नाटक 'चांडालिका' का मंचन किया जाता है। इस नाटक में 'बुद्ध' अछूत लड़की के हाथों से पानी लेते हैं और सभी जातियों की समानता को व्याख्यायित करते हैं। इस फिल्म में विमल राय, 'अछूत-कन्या' के फ़्रांज ऑस्टेन से भी आगे निकल जाते हैं और वे एक अछूत लड़की (सुजाता) की ब्राह्मण लड़के (अधीर) से शादी को संभव बना देते हैं। 'सुजाता' के समय से भारत में बहुत ही सशक्त सामाजिक सरोकार की फिल्में बनी हैं और बहुत सारे निषेध टूटे भी हैं फिर भी अंतर्जातीय और विधवा विवाह आज भी भारटीए समाज में पूरी तरह स्वीकृत नहीं हैं।

बी आर चोपड़ा हिंदी फिल्मों में सामाजिक सुधार और सामाजिक चेतना को आधुनिक संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले सफलतम निर्माता निर्देशक हुए हैं। विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने 'एक ही रास्ता' (1958) बनाई। यह एक त्रिकोणात्मक कहानी है। सुनील दत्त और मीनाकुमारी पति-पत्नी हैं जब एक हादसे में सुनील दत्त की मृत्यु हो जाती है तो अशोक कुमार एक मित्र के रूप में मीना कुमारी की देखभाल करने लगते हैं। लेकिन यह स्थिति एक विधवा स्त्री को बदचलन घोषित करने के लिए समाज में पर्याप्त थी। बी आर चोपड़ा ने साहस के साथ फिल्म में विधवा स्त्री का विवाह (अशोक कुमार के साथ) करवाकर सुधार की एक नई परंपरा को स्थापित किया। इसके बाद समाज में विधवा स्त्रियॉं के लिए एक नए जीवन को स्वीकार करने का साहस पैदा होने लगा। बी आर चोपड़ा एक निर्माता और निर्देशक के रूप में हमेशा से ही भारतीय स्त्री जीवन की विसंगतियों के प्रति संवेदनशील रहे हैं और इसीलिए उनकी फिल्में व्या व्यावसायिक होने के साथ समस्यामूलक भी बन पड़ी हैं।

सन् 1959 में ही अविवाहित मातृत्व की समस्या से जूझने वाली स्त्रियों के जीवन के बिखराव और उसकी परिणति को दर्शाने वाली सशक्त फिल्म 'धूल का फूल' बी आर चोपड़ा के ही निर्देशन में आई। अविवाहित मातृत्व के परिणामस्वरूप जन्म लेनी वाली संतान अवैध घोषित की जाती है और उसका जीवन नारकीय हो जाता है। यह एक बहुत ही संवेदनशील विषय है जिसे फिल्म द्वारा समाज के सम्मुख लाने का साहस बी आर चोपड़ा ने किया है। ये फिल्में समाज को ऐसी विषम स्थितियों से बचने के लिए आगाह करती हैं और उन स्थितियों के पर्यवसान को बेबाकी से प्रस्तुत कर स्त्रियॉं के पक्ष में समाज को खड़े होने का साहस प्रदान करती हैं। बी आर चोपड़ा अपनी एक और फिल्म 'इंसाफ का तराजू'(1959) बलात्कारित पीड़िता को न्याय दिलाते हैं। बलात्कारित स्त्री पीड़िता के रूप में समाज के सम्मुख आने से आज भी डरती है इस विषय पर बहुत कम फिल्में बनी हैं इसलिए इसे एक नई साहसपूर्ण प्रस्तुति के रूप में स्वीकार किया गया। हिंदी फिल्में प्रारम्भ से मूलत: स्त्री प्रधान ही रहीं हैं। हिंदी फ़िल्मकारों ने भारतीय स्त्री के सभी रूपों को फिल्मों में प्रस्तुत किया है। घरेलू स्त्री, कामकाजी स्त्री, किसान स्त्री, विवाहित और अविवाहित स्त्री आदि। जुझारू स्त्री, संघर्षशील स्त्री और अन्याय - अत्याचार से लड़ने वाली स्त्री आदि रूप हिंदी फिल्मों में प्रमुख रूप से आते रहे हैं। राजकपूर द्वारा निर्मित 'प्रेमरोग' (1982) में आभिजात्य परिवार की विधवा युवती 'मनोरमा'(पद्मिनी कोल्हापुरी) का विवाह सामान्य वर्ग के युवक 'देवधर' (ऋषिकपूर) से करवाकर वर्ग वैषम्य को मिटाने की पहल की है की गई है। इस फिल्म में एक ओर वर्ग-संघर्ष है तो दूसरी ओर आभिजात्य परिवारों में प्रच्छन्न रूप से प्रचलित स्त्री शोषण का घिनौना रूप भी अनावृत्त हुआ है। ये फिल्में उपदेशात्मक और संदेशात्मक फिल्में हैं। इसी श्रेणी में आर के फिल्म्स के बैनर तले बनी फिल्म 'प्रेमग्रन्थ' भी आती है जो कि बलात्कारित स्त्री के उत्पीड़न और तद्जनित परिणामों को दर्शाती है। इस फिल्म के माध्यम से ऐसी लांछित स्त्रियों को समाज में स्वीकार करने की पहल की गयी है। ऐसी ही फिल्म है

'लज्जा' जिसमे तीन विभिन्न परिवेशों की तीन शोषित स्त्री पात्रों के दारुण शोषण और मुक्ति के संघर्ष को दर्शाया गया है।

चर्चित सामाजिक आलोचक 'प्रकाश झा' ने 1985 में 'दामुल' बनाई जिसमें अमीर लोगों द्वारा गरीबों का शोषण दिखाया गया है। इसके पश्चात 'मृत्युदंड' में उन्होने ग्रामीण वातावरण में स्त्री के यौन शोषण और कर्मकाण्डी धार्मिक व्यवस्था द्वारा स्त्री कि दुर्गति के प्रयासों के विरुद्ध स्त्रियॉं के संघर्ष को दर्शाया गया है।

हिंदी फिल्मों में निर्माता-निर्देशक के रूप में राजकपूर का प्रवेश एक नए युग को जन्म देता है। आम आदमी का संघर्ष, महानगरीय जीवन की विसंगतियाँ और नेहरू युग के मोह भंग को कलात्मक और मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करने वाले वे महान फ़िल्मकार थे। उनकी फिल्मों का नायक सदैव आम आदमी रहा है।

'बरसात, जागते रहो, आह, आवारा, श्री 420, बूट पोलिश, जिस देश में गंगा बहती है, आशिक, मेरा नाम जोकर, बॉबी, धर्म करम, कल आज और कल, हिना, राम तेरी गंगा मैली और आ अब लौट चलें' आदि सभी फिल्में उद्देश्यमूलक और संदेशात्मक रहीं हैं।

महबूब खान द्वारा निर्देशित फिल्म 'मदर इंडिया' भारतीय किसान नारी के संघर्ष और त्रासदी की महागाथा है। यह नेहरू युग के नवनिर्माण के सपने को साकार करने का उत्सव है तो दूसरी ओर ग्रामीण महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती हुई नारी की मार्मिक कहानी भी है। जमींदारी अन्याय से लड़ते लड़ते गांवों में डाकुओं की जमात भी तैयार होती है। ग्रामीण सामंती अत्याचार से उत्पन्न डाकू समस्या को उजागर करने वाली फिल्मों में 'मुझे जीने दो' (सुनील दत्त- वहीदा रहमान), गंगा जमुना (दिलीप कुमार- वैजयंती माला), शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन (सीमा बिस्वास), जिस देश में गंगा बहती है (राजकपूर-पद्मिनी-प्राण) प्रमुख हैं। नेहरू जी के आज़ाद भारत का जब मोह भंग हुआ तो एकाएक अनेक तरह की सामाजिक और आर्थिक विसंगतियाँ सामने आईं। जाति-भेद और दलित जीवन की विषमताओं और विडंबनाओं से आज़ाद भारत मुक्त नहीं हो सका इसी कारण इन स्थितियों के प्रति आक्रोश फिल्मकारों ने फिल्म माध्यम में इन्हें दिखाया और इनके समाधान के उपायों को तलाशने के लिए दर्शकों को प्रेरित किया।

फिल्म एक अनुकरणीय माध्यम है। दर्शक इसे देखकर इसमें वर्णित अनेकों संदर्भों को अपने जीवन से जोड़ने का प्रयास कराते हैं। फिल्म लोगों के अधूरी और अपूर्ण कामनाओं को काल्पनिक रूप से पूर्ण होते देखने का जरिया है। हिंदी फिल्मों में समाज के सभी वर्ग किसी न किसी रूप में चित्रित होते रहे हैं। उच्च, मध्य और निम्न वर्गीय समाजों की समस्याओं, जीवन-शैलियों, सांस्कृतिक परम्पराओं को कभी गंभीर तो कभी हल्के फुल्के हास्य एवं विनोद के परिवेश में फिल्में बनती रहीं हैं। इसीलिए इन्हें हिंदी का लोकप्रिय सिनेमा कहा जाता है।

हिंदी में फिल्मों की दो प्रमुख धाराएँ विकसित हुई हैं। एक मुख्य धारा की फिल्में हैं जिन्हें व्यावसायिक (कमर्शियल) अथवा लोकप्रोय सिनेमा कहा जाता है जिनका महत्त्व व्यापारिक दृष्टिकोण से अधिक होता है। इन फिल्मों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में होता है और ये लोगों का भरपूर मनोरंजन भी करती हैं। इन फिल्मों का प्राण तत्व गीत और संगीत होते हैं। इनमें हल्की-फुल्की हास्य एवं विनोदप्रधान फिल्मों की भरमार है। ये विनोदपूर्ण फिल्में भी अपने साथ कोई संदेश लेकर आती हैं। इस श्रेणी में बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, अमोल पालेकर की फिल्में लोकप्रिय रहीं हैं। पारिवारिक मनमुटावों का समाधान खोजने वाली और स्त्री-पुरुष संबंधों की व्याख्या करने वाली फिल्में इनमें प्रमुख हैं। 'आनंद, बावर्ची, चुपके- चुपके, पिया का घर, अभिमान, नमक हराम, गोलमाल, रजनी गंधा, छोटी सी बात’ आदि आती हैं। 'ताराचंद बड़जात्या' ने राजश्री पिक्चर्स के बैनर तले अनेक घरेलू - पारिवारिक प्रसंगों पर आधारित बहुत सुंदर विनोदपूर्ण उद्देश्यप्रधान फिल्में बनाईं जो संदेशात्मक और सुधारवादी दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। 'आरती, नदिया के पार, गीत गाता चल, दोस्ती, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, चितचोर, मैं तुलसी तेरे आँगन की’ आदि फिल्में पारिवारिक मूल्यों को बल प्रदान करने वाली फिल्में हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सूरज बड़जात्या ने 'मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, विवाह, मैं प्रेम की दीवानी हूँ’, आदि फिल्मों का निर्माण किया। ये फिल्में पूरी तरह पारिवारिक मनोरंजन से भरपूर किन्तु भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं की पक्षधर फिल्में हैं।

हृषिकेश मुखर्जी एक ऐसे निर्देशक रहे जो प्रेम के मांसल रूप की जगह उसके मानवीय पक्ष को लेकर आए।

प्रयोगधर्मी निर्देशक हृषिकेश ने हिंदी फिल्मों की मुख्य धारा के साथ ताल-मेल रखते हुए ही अपने नूतन प्रयोग करते रहे। आज से 40-45 साल पहले उन्होंने वे विषय उठाए, जिस पर आज फिल्म और धारावाहिक बनाना फैशन-सा हो गया है लेकिन उसमें समस्या में मूल में जाकर उसके कारण और निवारण की बात नहीं रहती। बलराज साहनी, लीला नायडू को लेकर 1960 में बनाई गई फिल्म 'अनुराधा' एक ऐसे व्यस्त डॉक्टर पति की कहानी है, जिसके पास अपनी गायिका पत्नी के लिए वक्त नहीं है और इस कारण उसकी हताशा अवसाद के उस स्तर पर जा पहुँचती है, जहां वह अपने पुराने प्रेमी के प्रति पुन: आकर्षण का शिकार हो जाती है। भूमंडलीकरण और पाश्चात्य जीवन शैली के अनुकरण के कारण आज के युवाओं की व्यस्तता और उस व्यस्तता से जीवन में उपजे संत्रास, घुटन और कालांतर में आए खोखलेपन की आज जो स्थिति है, उसे हृषिकेश मुखर्जी ने चालीस साल पहले ही उस विषय पर अपना दृष्टिकोण सिद्ध कर दिया था। उनकी फिल्मों में विषयों की नवीनता तो रही, मगर ये सारे विषय मानव जीवन की रोज़मर्रा की समस्याओं से जुड़े रहे। नतीजतन फिल्म देखते समय हरेक को यह आभास होता कि यह तो उसकी अपनी ही कहानी है। उनकी 'आनंद, मिली, गुड्डी, खूबसूरत, अभिमान' आदि फिल्में यही अहसास कराती हैं।

उपरोक्त मुख्य धारा फिल्मों के अतिरिक्त भारतीय फिल्मों की एक सशक्त धारा समांतर सिनेमा अथवा कला सिनेमा के रूप में भी विकसित हुई। जो कम बजट की, बिना चमक दमक की, बहुत ही सपाट कथ्य को लिए हुए किसी एक विशेष सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाई जाती रहीं हैं। इस धारा के निर्माता और निर्देशक फिल्म निर्माण की नई सोच के साथ फिल्मी दुनिया में आए। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋतुपर्णों घोष, दीपा मेहता, अनुराग कश्यप आदि इस श्रेणी में आते हैं। इन फ़िल्मकारों की प्रतिबद्धता और सामाजिक दायित्व इनके फिल्मों में स्पष्ट रूप से उजागर हुई हैं।

बहुचर्चित निर्देशक श्याम बेनेगल ने जिन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं, अपनी पहली फिल्म 1974 'अंकुर' नाम से बनाई। यह फिल्म भी अछूत औरत और ब्राह्मण आदमी के रिश्ते की कहानी है। इसके बाद, भुवन शोम, मृगया, भूमिका, मंडी आदि फिल्मों में श्याम बेनेगल ने हाशिये पर के समाज के उपेक्षित जीवन को प्रस्तुत किया है। अस्सी के दशक से कला फिल्मों ने मुख्यधारा फिल्मों के समानान्तर अपनी एक ठोस जगह बनाई है। इसी श्रेणी में विभाजन की त्रासदी पर भी कुछ बहुत श्रेष्ठ फिल्में बनी हैं जो की विभाजन के दर्द को ताज़ा कर जाती हैं। प्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्मित - 'पिंजर', खुशवंत सिंह द्वारा रचित पुस्तक पर आधारित 'ट्रेन टु पाकिस्तान', 1947 अर्थ, तमस (टेलीफिल्म) आदि महत्वपूर्ण हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर आधारित 'मातृभूमि' बहुत ही मार्मिक फिल्म है। इसके अतिरिक्त गुजरात के दंगों पर आधारित 'परजानिया', 1984 के सिख दंगों पर आधारित 'अम्मू' आदि फिल्में लघु -फिल्मों की श्रेणी में आकार भी बहुत ही प्रभावशाली फिल्में हैं जो देशवासियों को इन समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाती हैं और इन विषयों पर सोचने के लिए मजबूर करती हैं।

हिंदी फिल्मों में पारिवारिक मूल्यों और संबंधों को सुदृढ़ रखने की परंपरा को प्रोत्साहित करने वाले कथानकों पर आधारित फिल्मों की एक सुदीर्घ शृंखला दक्षिण भारतीय फिल्मी संस्कृति की देन रही है। मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन के सुख-दुखों का चित्रण दक्षिण भारतीय हिंदी फिल्मों की विशेषता रही है। सम्मिलित परिवार परंपरा तथा दाम्पत्य संबंधों की जटिलता को सुलझाकर एक स्वस्थ सामाजिक जीवन की ओर इंगित करने वाली ये फिल्में रहीं हैं। ए वी एम, जेमिनी और प्रसाद स्टुडियो द्वारा निर्मित लोकप्रिय पारिवारिक फिल्मों में 'घराना, भाभी, बेटे-बेटी, मैं चुप रहूँगी, ससुराल’ महत्वपूर्ण हैं। नब्बे के दशक में मणिरत्नम, बालचंदर और के विश्वनाथ के निर्देशन में निर्मित 'बॉम्बे, और रोजा' आतंकवाद और सांप्रदायिक वैमनस्य के दुष्परिणामों को रेखांकित करने वाली फिल्में आईं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रात हुई।

हिंदी फिल्में हर युग में बदलते परिस्थितियों के साथ भारतीय समाज के हर रूप और रंग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं। आज का दौर फिल्मों का ही दौर है। फिल्में ही मुख्य मनोरंजन और ज्ञान-विज्ञान को संवृद्ध करने काकारगर साधन है। फिल्म प्रस्तुतीकरण की शैली में बदलाव अवश्य दिखाई देता है किन्तु इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंध ही रहे हैं। निश्चित रूप से फिल्में समाज को एक नई सोच दे सकती हैं।

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