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हिन्दी कहानी और रंगमंच का अन्तर्सम्बन्ध : सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक

हिंदी साहित्य में रंगमंच की बहुत लंबी परंपरा रही है। मनुष्य प्रकृति के हाथों का कठपुतली है। प्राकृतिक जैसे चाहती है वैसे मनुष्य को नचा सकती है। आज वर्तमान दौर में कोरोना महामारी, टिड्डियों का किसानों की फ़सल पर हमला, विभिन्न राज्य व देशों में भूकंप, तूफ़ान आदि प्राकृतिक आपदा को व्यक्ति के संदर्भ में देखा जा सकता है। जो मनुष्य को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर रखा है। रंगमंच अँग्रेज़ी के 'स्टेज' का प्रचलित नाम है। स्टेज शब्द थिएटर का पर्याय बन गया है। लेकिन समकालीन दौर में स्टेज, थिएटर, रंगमंच में बहुत अंतर नहीं रह गया है। ये एक-दूसरे के पूरक हैं। हिंदी रंगमंच की परंपरा का विकास को हम भरतमुनि का नाट्यशास्त्र के शास्त्रीय रंगमंच के साथ-साथ लोक रंगमंच का विकास के रूप में देखा जा सकता है। शास्त्रीय रंगमंच का संबंध एक तरफ़ उच्च वर्ग से है तो दूसरी तरफ़ निम्न वर्ग का संबंध लोक रंगमंच से। इसके अनेक प्रमाण हैं। यह जनसाधारण में प्रचलित हो चुका है। समुद्र मंथन में सुर और असुरों ने मंचन किया। जिनकी भाषा में भी अंतर है। देवताओं की शास्त्रीय भाषा और असुरों की लोक भाषा।

दूसरा प्रमाण भरतमुनि का नाट्यशास्त्र में नट, नटी की भाषा लोक भाषा में है जबकि अन्य पात्रों की संस्कृत। तो हम कैसे मान लें कि हिंदी रंगमंच का विकास संस्कृत नाट्य शैली पर हुआ है। यह मानना सरासर ग़लत होगा। मेरा मानना है कि हिंदी रंगमंच का विकास संस्कृत के पहले हुआ होगा या उसके समानांतर। रंगमंच के विकास में हमें इतिहास के पन्ने उलटने पड़ेंगे। इस संदर्भ में रंगमंच के विकास में इतिहास महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। रंगमंच के विकास में इतिहास के अनेक सोपानों में देखा जा सकता है। डॉ. धर्मवीर के अनुसार, "इतिहास मनुष्य के निर्णय लेने की क्षमता से जाना जाता है और आगे बढ़ता है।" ( प्रेमचंद : समान्त का मुंशी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-39) रंगमंच का क्षेत्र सीमित और बुद्धिजीवी वर्ग से है। नौटंकी, रामलीला, नुक्कड़ नाटक, कठपुतली आदि का क्षेत्र विस्तृत होता है और जनसाधारण में बिना किसी व्यवधान के सर्व-सुलभ होता है। रंगमंच का संबंध मनुष्य के जीवन से सीधा जुड़ा होता है। रंगमंच के माध्यम से बहुत से कहानियों को मनुष्य से जुड़े हुए सामाजिक परिवेश एवं परिदृश्य को मंचित किया जाता है। धर्मवीर के अनुसार–"जीवन में मोरल का नाम नहीं तो साहित्य में अव्वल दर्जा कैसे मिल जाएगा? साहित्य में सब कुछ नाटक और ड्रामेबाज़ी ही नहीं चल सकती है। इसका जीवन से संबंध जुड़ता है और जीवन का संबंध जुड़ता है मोरल से।" ( प्रेमचंद : समान्त का मुन्शी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-30) 

आधुनिक काल की कहानियाँ नए रंगमंच की तलाश में हैं। आधुनिक काल की कहानियों का नाट्य रूपांतरण आधुनिक रंगमंच की प्रक्रिया की देन है। अल्पना त्रिपाठी लिखती हैं कि, "कहानी का रंगमंच में कहानी और रंगमंच एक दूसरे से अलग होती हुए भी अपनी रचना और प्रस्तुति प्रक्रिया में इतने निकट आ जाते हैं कि कहानी में रंगमंच है अथवा रंगमंच पर कहानी है, यह भेद करना कठिन हो जाता है। असल में किसी कहानी को पढ़ते-सुनते हुए पाठक या श्रोता के मन की आँखों के सामने जो दृश्य जगत बनता चलता है, उसे ज्यों का त्यों मंच पर साकार करने से ही कहानी के मंचन का सरोकार है।" ( मूक आवाज हिंदी जर्नल, अंक- 5 ) 

हिंदी साहित्य में उपन्यास, कविता, व्यंग्य, आदि विधाओं के साथ-साथ कहानी विधा की भी नाट्य रूपांतरण की सुदीर्घ परंपरा रही है। सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक इसी प्रक्रिया की देन हैं। सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक , सुप्रसिद्ध कथाकार एवं आलोचक पंकज सुबीर की चार कहानियों का नाट्य रूपांतरण है। इसका नाट्य रूपांतरण प्रसिद्ध आधुनिक सोच एवं विचारधारा के रंगकर्मी नीरज गोस्वामी ने किया है। यह नाट्य रूपांतरण हिंदी कहानी और रंगमंच के अंतर्संबंध के साथ-साथ नए रंगमंच की तलाश में है। और नई राहों का अनुसंधान कर रहा है। नीरज गोस्वामी पुस्तक में 'मेरी बात' में इस बात को स्पष्ट करते हैं कि, "आख़िर वह वक़्त आया जब नौकरी ने हमको और हमने नौकरी को छोड़ दिया और जयपुर स्थाई रूप से अपने घर आ गए, जयपुर आकर अपने उन मित्रों की तलाश की जो कहीं कभी हमारे साथ नाटक किया करते थे। पता चला कि हम जिनकी तलाश कर रहे थे वह भी हमें तलाश रहे थे। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि, अभिनेता ही नहीं, रंगमंच भी आधुनिक प्रयोगधर्मी व्यक्तियों की तलाश करता रहता है। और समय-समय में बदलाव के लिए लालायित रहता है।" 

इस नाट्य संग्रह में सुबह अब होती है..., औरतों की दुनिया, कसाब.गांधी@ यरवदा.in, चौथमल मास्साब और पूस की रात, कहानियाँ शामिल है। नाटकीय दृष्टिकोण से हिंदी कहानियों का नाट्य रूपांतरण को एक अच्छी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि कहीं ना कहीं कहानी रंगमंच की तलाश करती है, तो रंगमंच कहानी की। अगर यह देखा जाए तो कहानी और रंगमंच एक-दूसरे के पूरक हैं। कहानी रंगमंच के बिना और रंगमंच में कहानी के बिना एक-दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अत: कहानी और रंगमंच एक-दूसरे के अंतर्संबंध की भूमिका बडे़ बाख़ूबी अदा कर रहे हैं।

सुबह अब होती है... नाटक का मंचन 5 जनवरी-2019 को रवींद्र मंच मुख्य सभागार राजस्थान के सुप्रसिद्ध राज रंगम थियेटर फ़ेस्टिवल के अंतर्गत जयपुर में लहरें संस्था द्वारा किया गया। इस नाट्य रूपांतरण में नीरज गोस्वामी ने पंकज सुबीर की मूल कहानियों को शरीर और प्राण दे दिया है। इन कहानियों में पहले से रंगमंच विद्यमान था सिर्फ़ खोजने की ज़रूरत थी। इस नाट्य रूपांतरण की प्रथम कहानी सुबह अब होती है... रहस्य कथा के माध्यम से मनोविज्ञान का चित्रण किया है एवं अपराध बोध के माध्यम से स्वतंत्रता की माँग करती है। जो रंगमंच के ज़रिए सीधे जुड़ाव रखती है। यह कहानी इस बात की तरफ़ इंगित करती है कि व्यक्ति का ज़्यादा अनुशासित होना भी दूसरे व्यक्ति को गुलाम बना देती है। और उन्हें एहसास तक नहीं होने देती है। अंत में घुटन को भी उकेरा गया है। और यह भी दर्शाया गया है कि मानव जीवन में प्रकृति से ज़्यादा कोई भी प्राणी अनुशासित नहीं हो सकता। ऐसा नहीं मनुष्य को अनुशासित नहीं होना चाहिए लेकिन अन्य व्यक्ति से समझौतावादी दृष्टिकोण एवं सरोकार रखना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो दूसरे व्यक्ति का मृत्यु का कारण बन सकती है। इस कहानी की रचना शिल्प को हम 'उपेंद्रनाथ अश्क' के नाटक 'अन्जो दीदी' से तुलना करके देख सकते हैं। सुबह अब होती है... नाटक को छह अंकों में विभाजित किया गया है। लोकोक्ति और मुहावरेदार भाषा का प्रयोग भी किया गया है। साथ ही साथ हास्य-व्यंग्य का भी प्रयोग किया गया है, ताकि दर्शकों की रसिता को बनाए रखा जा सके। इस नाट्य रूपांतरण की भाषा शैली बिलकुल चलती-फिरती हुई नज़र आ रही है। 

सुबह अब होती है... में एक महिला की स्वतंत्रता के साथ-साथ पूरे समाज, परिवेश की स्वतंत्रता की बात कही गई है। जिसमें ऊबन-घुटन न हो। इस नाट्य रूपांतरण में धर्म, परम्परा, रस्म- रिवाज़ आदि की खुलेआम चर्चा की गई है। उसमें अमल करने की बात कही गई, जिससे कहानी के रंगमंच के अंतर्संबंध को बनाए रखा जा सके। धर्म की आड़ में पुरुषों ने महिलाओं पर कितना अत्याचार किया है। यह कहानी का नाट्य रूपांतरण बाख़ूबी अपने उद्देश पर ख़रा उतरता है। नाटक में महिला पात्र समर से कहती है कि,

"अपनी बेटी को भगवानों से दूर रखना। इनकी छाँव से भी दूर रखना। दुनिया की हर औरत को भगवानों से दूर रहना चाहिए। क्योंकि दुनिया भर के औरत का जो शोषण हुआ है वह इसी भगवान के नाम पर और इसी भगवान का डर दिखाकर हुआ है।" 

समर– "भगवान का डर!" 

 महिला– "धर्म, परंपरा, रस्म-रिवाज़ ये सब भगवान् का ही डर दिखाकर तो चल रहे हैं। और इन सब में पिस रही है औरत, केवल औरत। क्योंकि धर्म भी पुरुष बनाता है फिर उससे जुड़े रस्मो रिवाज़ भी पुरुष ही बनाता है यहाँ तक कि धर्म का भगवान भी पुरुष ही बनाता है। हर धर्म में अवतार, पैगंबर, ईशदूत केवल पुरुष ही होते हैं, औरत नहीं। यदि औरत के मन में बचपन से भगवान् का डर नहीं बिठाया जाए, तो वह तो होश सँभालते ही विद्रोह कर दे।"( सुबह अब होती...तथा अन्य नाटक (पंकज सुबीर की चार कहानियों का नाट्य रूपांतरण) नाट्य रूपांतरण- नीरज गोस्वामी, शिवना प्रकाशन, सिहोर मध्यप्रदेश प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ संख्या- 25) 

इस कथन में बहुत गहराई के साथ सच्चाई को कहा गया है और एक महिला के संत्रास की बात कही गई है जिसके माध्यम से जो व्यक्ति पढ़-लिख नहीं सकते वह रंगमंच के आईने से यह सब देख सके और समझ सके। सुबह अब होती है...नाट्य रूपांतरण इस बात को भी स्पष्ट करता है कि व्यक्ति को अपने संबंध मानवीय सरोकारों से जोड़ कर रखना चाहिए, बनावटी, दकियानूसी से काम नहीं चलता।

समर का कथन है, "मज़ाक नहीं, सच में एक्टिंग करनी होगी वो भी रंगमंच या कपड़े के पर्दे पर नहीं, ज़िन्दगी की स्टेज पर।"( वही-32 ) 

यह नाटक इस बात को भी स्पष्ट कर रहा है कि पुरुष के ही सपने नहीं होते महिला, लड़कियों के भी अपने सपने होते हैं। यह भी सही है कि किसी के पूरे होते हैं तो किसी के नहीं, लेकिन सपना देखना किसी की मनाही नहीं है। महिला के इस कथन में बहुत भारी दर्द छुपा हुआ है।

"सपने तो लड़कियों की आँखों में हर युग में बसते रहे हैं। ये अलग बात है कि पूरे किसी भी युग में नहीं हुए। (वहीं पृष्ठ संख्या- 45 ) 

सुबह आप होती है... नाटक का कथ्य समसामयिक एवं पूरी की पूरी घटना प्रक्रिया आज के समय से जोड़ता है। पुरुषवादी गंदे नज़रिया को भी व्यक्त करता है। आज भी किसी महिला के गर्भ से लड़की पैदा होती है, तो उसका दोष महिला के ऊपर मढ़ दिया जाता है और उसे प्रताड़ित किया जाता है। यह नाटक इस पूरी प्रक्रिया को उद्घाटित करता है। 

समर–"बेटी या बेटे के पैदा होने में स्त्री का कोई हाथ नहीं। ये बात तो अब हर पढ़े-लिखे को मालूम है।" 

आंटी– वो एक्स-एक्स और एक्स- वाई।" (वही, पृष्ठ संख्या-45 )

महिला– "जब अपने दोष दूसरों पर थोपने की सुविधा हो तो ऐसा ही होता है। जो तुमसे कहा था न मैंने कि आदत को थोड़ा बदलो, उसका कारण भी बताती हूँ।" 

सुबह अब होती है... कहानी का नाट्य रूपांतरण रंगमंच के आईने का काम करता है। जिसमें हर व्यक्ति में हर सुबह, अपनी सूरत देखना चाहता है। अपने जीवन की समीक्षा उस रंगमंच के आईने से करता है और हर क्षण, हर उम्मीद की प्रतीक्षा कर रहा है कि, सुबह अब होती है...। 

इस नाट्य रूपांतरण का दूसरा नाटक है 'औरतों की दुनिया'। ये नाटक इस कथ्य की ओर इशारा करता है कि जब से मानव सभ्यता का उदय हुआ है तभी से शासन की सत्ता पुरुषों के हाथ में रही इसमें महिला कहीं भी नज़र नहीं आई। क्योंकि पुरुषवादी विचारधारा को यह भान हो गया था कि उनकी सत्ता हिल जाएगी। और एक ऐसी दुनिया की स्थापना की जाएगी जहाँ सिर्फ़ औरतों की दुनिया होगी, जो प्रेम करना सिखलाती हैं। कहानी अपने अंत में एक ऐसा मोड़ लेती है जहाँ नौजवान पुरुष की पैतृक हिस्से में मिली ज़मीन को उसका चाचा हथिया लेता है। इसके चलते वह इस मामले को कचहरी तक ले जाता है। जिसमें पुरुष का पूरा परिवार उसके ख़िलाफ़ है, ख़ासकर महिलाएँ। इस कहानी में सुमित्रा का कथन है, "मानना क्या है वो तो आपको रुकना ही है। कोर्ट-कचहरी की बात आप जाने और आपके चाचा, हम सब का कहा आपने जब माना ही नहीं तो उसी बात को बार-बार दोहराने से फ़ायदा क्या है।" (वही, पृष्ठ-संख्या-66) नौजवान पुरुष जिसके ख़िलाफ़ कचहरी में केस लगाया उन्हीं के घर में खाना-खा रहा है। खाना खाते वक़्त प्यार, शिकवे, शिकायतें चलती हैं। और नौजवान को यह आभास होने लगता है कि उससे ग़लती हो गई है। चाचा-चाची का संबंध माँ, दोस्त, पिता के समान होता है जिससे सारी बातें शेयर की जा सकती हैं। इस रिश्ते में अगर झूठा-वहम न हो तो यह नापाक रिश्ता होता है। अंत में चाची कहती है, "औरतों की दुनिया में झाँकना सीख लिया। काश, अगर सब हमारी इस दुनिया की झलक पा लें तो दुनिया से नफ़रत जड़ से ख़तम हो जाए।" (वही,पृष्ठ संख्या-77) 

इस नाट्य रूपांतरण की तीसरी 'कहानी'कसाब.गांधी@यरवादा.in' है। इसमें निम्न मध्यवर्गीय जीवन की कथा को कहा गया है। इसके पात्र इतिहास से संवाद करते नज़र आ रहे हैं। जो हर समय समाज में मिलते रहेंगे। इस नाट्य रूपांतरण की कहानी यह स्पष्ट करती है कि आतंकवादी, घुसपैठिए, पेड़ पर नहीं उगते, वो व्यवस्था की उपज होते हैं। व्यक्ति रोटी के लिए कोई भी क़दम उठाने के लिए मजबूर है। उसे आतंकवादी बनाने में हमारे समाज, परिवेश का बहुत बड़ा हाथ होता है। यह कहानी अपने रंगमंच में रोटी-रोज़ी और रोज़गार की समस्या को कहती है। इस कहानी में थोड़ी सी झलक अंबेडकरवादी फलक में देखी जा सकती है। इस कहानी के पात्र 189 : कथन है, "यही कि जब तक गाँव में विकास की रोशनी नहीं पहुँचेगी तब तक आज़ादी अधूरी रहेगी... मैं सोचता था कि आज़ादी के बाद असमानता की ये खाई कम होगी।" (पृष्ठ संख्या 98) 

इस नाटक की कहानी और रंगमंच का अन्तर्सम्बन्ध इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि दर्शक या पाठक ख़ुद को पात्र की तरह महसूस करने लगते हैं। यह कहानी महाभारत के मुहाने से स्वतंत्र भारत के गद्दी में बैठने की पुत्र मोह का भी पर्दाफ़ाश करती है। सी-7096 का कथन है, "मैं उन पुत्रों के मोह की बात नहीं कर रहा, उस पुत्र के मोह की बात कर रहा हूँ जिसे आप गद्दी पर बैठाना चाहते थे। इसी मोह के चलते आपने किसी और को गद्दी पे बिठाने की बात को सिरे से नकार दिया। आप किसी और को गद्दी पर बिठाते तो बँटवारा नहीं होता।" (पृष्ठ-संख्या 99) इस नाटक की कथावस्तु इतिहास को पढ़ाना गड़े मुर्दे को उखाड़ना वाक्य को एक सिरे से नकारता है। और इस बात को भी स्पष्ट करता है कि इतिहास हमें अतीत में बीत चुकी घटनाओं को दोहराने से बचाने का काम करता है। 

इस नाट्य रूपांतरण की अंतिम नाटक 'चौथमल मास्साब और पूस की रात' है। इस कहानी को लेखक पंकज सुबीर भरे मिज़ाज में बहुत गहराई के साथ-साथ गंभीर मुद्दे में संदेश देते हैं कि, व्यक्ति को जीवन में रोटी-रोज़ी की ही आवश्यकता नहीं होती और कुछ वगैरह-वगैरह की भी भूख होती है। इस वगैरह से देवता, ऋषि-मुनि, दानव, यक्ष,गंधर्व, भी नहीं बच पाए तो इस छोटे से इंसान की क्या बिसात जो इस वगैरह से बच सकें। इस नाटक का मुख्य पात्र चौथमल है जो अपने गाँव से सौ किलोमीटर दूर एक गाँव में मास्टर है। पूरे गाँव में वही एक पढ़ा लिखा आदमी है। गाँव के लोग पढ़े-लिखे व्यक्ति का बहुत ही सम्मान करते हैं, उससे कुछ जानने, समझने की लालसा रखते हैं। और उसकी  ईमानदारी पूर्वक प्रेम, सेवा करते हैं। गाँव की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह कहानी मनोवैज्ञानिक प्लेटफ़ार्म पर लिखी गई है। जिसमें पाठक या दर्शक को अन्त तक अपने में उलझाए रखती है और उत्सुकता बनाए रखती है कि आगे क्या हुआ होगा। यह कहानी इस बात को भी स्पष्ट करती है कि रोटी-रोज़ी की तलाश में व्यक्ति अपने पत्नी से दूर होकर सेक्सुअल फ़्रस्ट्रेशन का शिकार हो जाते हैं। अन्ततः यह नाटक जारकर्म करते-करते बच गया। नहीं तो रामचन्दर को चौथमल की सन्तान का बोझ उठाना पड़ता और सीधी-साधी कम्मो चौथमल के हाथों फँस जाती। नाटक के अंत में सूत्रधार दर्शकों से मुख़ातिब होकर कहता है कि, "दरअसल हम सब में कहीं न कहीं चौथमल मास्साब छुपे बैठे हैं। जो वक़्त और मौक़ा मिलते ही बाहर आ जाते हैं...। (पृष्ठ- संख्या- 131) 

इस कहानी का नाट्य रूपांतरण हिंदी कहानी और रंगमंच के अंतर्संबंध को बख़ूबी से पिरोने का काम करता है। इस पूरे नाटक के पात्र आज भी मौजूद हैं, और भविष्य में भी मौजूद रहेंगे। नाटक की कथावस्तु एवं पात्रों का चरित्र चित्रण समसामयिक घटनाओं से बात करते नज़र आ रहे हैं। अंत में यह कहना ज़रूरी है कि पंकज सुबीर की चार कहानियों का नाट्य रूपांतरण नीरज गोस्वामी का प्रयास क़ाबिले तारीफ़ है। सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक जैसे नाटकों को बंद परदे से बाहर खुले एवं विस्तृत पर्दे पर खेला जाना चाहिए। यह अतिआवश्यक  है एवं इसकी मांग भी है। जिसका नाट्य प्रेमियों को हर सुबह का इंतजार रहता है...। 

सन्दर्भ-ग्रन्थ

  1.  प्रेमचंद :समान्त का मुन्शी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण- 2017

  2. अल्पना त्रिपाठी, मूक आवाज हिन्दी जर्नल, अंक-05

  3. सुबह अब होती है.... तथा अन्य नाटक, (पंकज सुबीर की चार कहानियों का नाट्य रूपांतरण), नाट्य रूपांतरण- नीरज गोस्वामी, शिवना प्रकाशन, सिहोर मध्यप्रदेश, प्रथम संस्करण-2020

दिनेश कुमार पाल (शोध- छात्र) 
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

पता- बैरमपुर बैरमपुर कौशांबी, पिन कोड-212214
मो. 9559547136
ई-मेल-dineshkumarpal6126@gmail.com

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