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हिन्दी कहानीः भूमण्डलीकरण की दस्तक

(इक्कीसवीं सदी के विशेष संदर्भ में)
 

‘वासुधैव कुटुम्बकम्’ यानी सम्पूर्ण मानव जाति को एक परिवार की तरह देखने-मानने की अवधारणा हमारे आर्ष ग्रंथों में मिलती है। ‘जियो और जीने दो’ का सह अस्तित्ववादी सूत्र विश्व समाज को सूत्र बद्ध करता है। लेकिन इक्कीसवीं शती के भूमण्डलीकरण, ग्लोबलाइजेशन, विश्वग्राम की एप्रोच में ‘वासुधैव कुटुम्बकम्’या ‘जियो और जीने दो’ की अर्थ ध्वनि न होकर एक ऐसी पाश्चात्य गंध घुली मिली है, जिसका मूलाधार अर्थ है। जिसका मानव कल्याण या मानवीयता से उतना सरोकार नहीं है। भौतिकता की अंध दौड़ ने उदात्त तत्व को जीवन से निकाल फेंका है। देखने में  सारा बल एकरूपता पर है - यानी सम्पूर्ण विश्व की एक ही संस्कृति, एक ही जीवन शैली, एक ही चिन्तन पद्धति।  कहते हैं कि वैश्वीकरण को दुनिया के जिन दो प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने सुदृढ़ वैचारिक आधार दिया है, वे दोनों भारतीय ही हैं। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और कोलम्बिया विश्व विद्यालय से जुड़े अर्थ शास्त्री डॉ० जगदीश भगवती। ग्लोबलाइजेशन के मूल में साँस्कृतिक विविधता के विघटन के साथ साथ मुक्त बाजार, समन्वित अर्थ व्यवस्था, उपभोक्तावाद, नारी विमर्श, मीडिया और मण्डीतंत्र की एक पश्चिमी गंध भी है। एक ऐसी गंध जिससे आम आदमी तेजी से प्रभावित, चमत्कृत और चिंतित दिखाई देता है। इस बाजार पर अमेरिका का वर्चस्व है। कहते हैं कि ईराक युद्ध की औपचारिक घोषणा  के बहुत पहले सम्भावित विनाश के बाद पुननिर्माण की प्रस्तावित योजनाओं को अंतिम रूप देने में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपनी भूमिका निभा चुकी थी।  वैश्वीकरण पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह अमेरिकी जीवन शैली का अंधानुकरण लगाता है। प्रश्न आदान प्रदान के अनुपात का है। इधर से बहुत कम जा रहा है, जबकि अमेरिकन जीवन शैली हमारे ऊपर छा रही है। दूसरी ओर सर्वाधिक खतरा व्यक्ति की पहचान का है।  मौलिकता के नष्ट होने का है। खान-पान, पहनावा, विचार, संतान का भरण -पोषण, पारिवारिक रख रखाव - यानी सम्पूर्ण जीवन पद्धति। तीसरा प्रश्नचिन्ह वस्तुकरण की गिरफ़्त लगा रही है। भूमण्डलीकरण की अवधारणा अपधारणा तब बन जाती है, जब हम देखते हैं कि स्थिति यह है कि जो अमेरिका सोचता है, वही पूरा विश्व सोचे। टेक्नालाजी सम्पूर्ण समाज को और सूचना प्राद्यौगिकी सारी मानसिकता को प्रभावित कर रही है। उस पर हावी हो रही है। अमेरिका के टॉवर पर हमला हो, खाड़ी संग्राम हो,  क्रिकेट की कवरेज़ हो, या सेंसेक्स का उछाल हो, मीडिया वाले सूट बूट टाई और पूरे मेक अप के साथ चुस्त दुरुस्त ढंग से  टी. वी. के पर्दे से सटे मिलेंगे।

१. बाजारवादः आई० टी० कम्पनियों का संदर्भः रिश्तों में समाई आत्मीयता के अंडर करेण्ट को भूमण्डलीकरण ने बाजारवादी तेवर दिए हैं। भूमण्डलीकरण मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन का सुझाव भी देता है और मूल्यों को माल में भी परिवर्तित करता है। भूमण्डलीकरण पूँजीवाद का अतिव्यावहारिक/ अत्याधुनिक रूपान्तरण है। बाजारवाद भूमण्डलीकरण के दौर में नम्बर वन की हैसियत रखता है। उसने विश्व को, मनुष्य के एक एक रिश्ते को मल्टीपरपज़ शॉपिंग काम्पलेक्स में बदल दिया है।

जुलाई २००७ में हंस पत्रिका में प्रकाशित जितेन्द्र भाटिया की कहानी रुकावट के लिए खेद है1 की मूल ध्वनि भूमण्डलीकरण का राग अलापने वालों को थोड़ा परेशान करती है। कहानी हर प्रगति में कंकड़ ढूँढ़ रही है। कहानी भूमण्डलीकरण के स्वीकरण में रुकावट डाल रही है। कहते हैं कि भारत विश्व में सूती धागे तथा कपड़े के उत्पादन में तीसरे स्थान पर आता । अंतर्राष्ट्रीय फैशन स्र पर भारतीय कपड़ा उद्योग की अमिट छाप है। यह एक मशहूर कपड़ा मिल के उस वीविंग मास्टर की कहानी है, जिसे जब तीस वर्ष  की नौकरी के पश्चात छह महीने का वेतन देकर निकाल दिया जाता है तो उसकी समझ में आता है कि वफादारी का नाम मूर्खतापूर्ण कुर्बानी है। प्रेमियों और नौकरियों को बदलते रहना चाहिए, वरना अरोमानी जीवन के और सड़क पर आने के अवसर बढ़ जाते हैं। इस उम्र में और कहीं भी नौकरी नहीं मिल सकती।  दूसरे लोग न हाई-फाई वेतन अफोर्ड कर सकते हैं और न पुरातन प्रौढ़ आदमी। कहानी में हमारी रोजमर्रा जिंदगी के ढेरों प्रसंग हैं।

बी० सी० ए० के विद्यार्थी जानते हैं कि किसी भी बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी का प्रोफाइल निकालिए,उसमें कंसलटेंसी का बिजनेस तो लिखा ही होता है। जितेन्द्र भाटिया की रुकावट के लिए खेद है कहानी की कंपनी कारोबार और काम के तरीके सुधारने के उद्देश्य से विदेशी मैनेजमेंट सलाहकारों के साथ एक अनुबंध करती है और वे बताते हैं, उत्पादन कुशलता और सृजनात्मकता का कोई खास योगदान नहीं होता, असली सफलता अवसरों की सही शिनाख्त और समय रहते उनका उचित फायदा उठाने से मिलती है।” विदेशी सलाहकार कम्पनी बंद करवा कर वहाँ शॉपिंग माल बनवा  कर्मचारियों-अधिकारियों में बेकारी बाँट देते हैं। इस शॉपिंग माल के कोने-कोने में शार्ट सकिर्ट कैमरे कुछ ऐसे लगे हैं कि कोई खुलकर साँस भी नहीं ले सकता। यानी दूसरी संस्कृति की घुसपैठ कारीगरों का ही नहीं कम्पनी का भी बिस्तर गोल कर देती है। अब अगर आप मुकद्दमा करते हैं, तो तारीखें पड़ती जाएँगी और अगर यूनियन के पास जाते हैं तो पाते हैं कि यूनियन अपने ही हिसाब किताब में, माल बटोरने में लगी है।

भूमण्डलीकरण ने पूरे विश्व को ई-मेल और मोबाइल से जोड़ा है। लेकिन कहानी उन मोबाइल कालज और ई-मेल संदेशों की बात करती है, जिनमें आम आदमी को फुसला कर, धोखे में रखकर तरह-तरह के  बिजनेस किए जाते हैं। इंटरनेट की ई-मेल सेवा का प्रयोग करने वाले मेरे विद्यार्थी और मित्र जानते हैं कि नित्य कभी उसे गोआ, महाबलेश्वर, टिम्बकटू के ट्रिप के लिए काल आती है और कभी मोम्बासा, अफ्रीका की एक विधवा मैडम अबाचा, जिनके पति ईदी अमीन के जमाने की सिविल सर्विस में मारे गए थे, अपने पति द्वारा छोड़ी गई पाँच अरब अट्ठावन लाख डालर की अवैध सम्पत्ति को ठिकाने लगाने के लिए नेट द्वारा आपसे मुखातिब होती है, मानों उसकी जिंदगी का सारा दारोमदार अब आपकी मुखर या खुफिया स्वीकृति पर टिका है,वॉरसा में हिटलर के खजाने से अरबों का गबन करने वाला एक अकाउंटेंट, सउदी अरब के शेख घराने का एक बागी सदस्य और तुर्कमेनिस्तान में स्टालिन का गुमशुदा भतीजा- ये सब आपको दुनिया का सबसे काबिले ऐतबार व्यक्ति मान कर आपके सहयोग की आशा में आपकी जान के पीछे पड़े हैं। डबलिन, मैड्रिड और साओ पोलो में खुफिया तौर पर खोली जाने वाली करोड़ों की लाटरियों में हर आए दिन आपके नाम का पहला या दूसरा ईनाम निकलता, जिसकी रकम को मनी ट्रासफर द्वारा पाने के लिए आपके अपने बैंक का नाम और अकाउंट नम्बर अजनबियों के हवाले करना अनिवार्य है। दुनिया भर के जाली धंधों में फंसने के लिए एक ई मेल का उत्तर ही काफी है। हर ई मेल आपके बैंक अकाउंट नम्बर, जन्म तिथि, मोबाइल नम्बर वगैरह के इन्तजार में है।

भूमण्डलीकरण को शायद सर्वाधिक मान्यता इसी देश में मिली है। यहीं हर नुक्कड़ पर विदेशी माल के स्टोर दिखाई देते हैं। भूमण्डलीकरण छोटी-छोटी  देसी चीजों में विश्वास नहीं रखता। मेडिक्लेम भी इसी की देन है। मेडिक्लेम तभी मिलता जब अस्पताल हो, आपरेशन हो, फैक्टरी मेड दवाईयाँ हों। देसी हकीमों को यहाँ मान्यता नहीं है। त्रासदी यह है कि कपड़ा मिल के इस नायक के फेफड़े कपड़े की गर्द के रेशों से खराब हो जाते हैं। क्योंकि वह आपरेशन न करवा देसी ईलाज से ठीक हो जाता है, इसलिए उसे मुआवजा नहीं मिल सकता।

कहानी एक क्रिएटिव आदमी के निहत्थेपन को लिए है। वह कपड़ों की बुनाई की नई मशीन ईजाद कर सकता है, कइयों की बेरोजगारी दूर कर सकता है। लेकिन भूमण्डलीकरण ने देसी मशीनों के लिए कोई स्कोप नहीं रखा। हर कोई आज कम्पयूटरीकृत एवं रिमोट से चलने वाली मशीनें चाहता है।

भूमण्डलीकरण यानी अमेरिकन प्रभाव ने रिश्तों के नए पैरामीटर स्थापित किए हैं। प्रौढ़ पत्नियाँ भी पुरुष मित्र जुटा रही हैं और युवा बेटियाँ भी।  इस अवसरवादी संसार में नौकरी छूटने के बाद आदमी की हैसियत कमतर होती ही जाती है। घर में अब इज्जत की रोटी का अवकाश नहीं रहा, इसीलिए कथा नायक का भोजनालय उडिपि होटल और भोजन वहाँ की राइस प्लेट बन जाती है।

प्रशासनतंत्र के पर्दाफाश भी जितेन्द्र भाटिया ने किए हैं। आदमी फालतू है। अगर वह गुमशुदा है तो रपट दर्ज करवाइए। पुलिस कोई न कोई लाश आपको दे ही देगी। फिर आप भी आजाद हैं और वह भी।

सात समुन्द्र पार के इलाकों से सम्पर्क करने वाले काल सेंटर यानी बी. पी. ओ. का भी कहानी में चित्रण है। शायद आप में से कुछ बच्चे बी० पी० ० सेंटरज में जाते होंगे। कहानी में यह चित्रण भी भूमण्डलीकरण के ग्लोरिफिकेशन में रुकावट के लिए खेद है की घोषणा करता है। यहाँ कम्पनियों की ग्राहक सेवा का कार्य टेलीफोन के जरिए किया जाता है। अमेरिकन ग्राहकों के कारण इन्हें जॉन, जेनी, लिजा आदि नामों को धारण कर अंग्रेजी उच्चारण में बात करनी है। इनका समय भी अमेरिका वाला है यानी रात दस से सुबह आठ तक - जब अमेरिका में दिन होता है। यहाँ सिर्फ हैड फोन की बात सुनी जा सकती है, पास बैठे बीमार साथी की नहीं। सभी सतर्क हैं, क्योंकि, सात समंदर पार के उस इलाके में इंडिया आज भी एक घटिया और नाकाबिले एतबार देश था और आम अमेरिकन नागरिक के लिए अपने येंकी उपकरण को लेकर किसी इंडियन से तकनीकी सहायता माँगने का ख्याल ही बर्दाश्त के बाहर था।’’

सब्र संतोष के दिन लद चुके हैं। ‘धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।’ - जैसी सूक्तियाँ काल कवलित हो चुकी हैं। भूमण्डलीकरण टाइम मैनेजमेंट सिखाता है, क्योंकि कम्पनियाँ ही नहीं व्यक्ति भी एसेट सेंटर है। समय जरूरी और महत्त्वपूर्ण को पहचानने का है। प्राथमिकता तय करने का है। हर अर्जंट काम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। आफ़िस में किसी के यहाँ गमी हो जाए और उसी दिन बिजली का बिल जमा करवाने की आखिरी तारीख हो, तो आप किसे चुनेंगें। गमी में जाना महत्त्वपूर्ण है पर जरूरी नहीं, जबकि बिल जमा करवाना जरूरी है, पर महत्त्वपूर्ण नहीं। दीवाली वाले दिन अगर हलवाई के बाप की मृत्यु हो जाती है, डैड बाडी को कोल्डस्टोरेज में रखकर धंधा चलाने में बुद्धिमानी है। दाह संस्कार तो अगले दिन भी पूरे धूमधाम से किया जा सकता है। राजेश जैन की क्यू में खड़ी उदासीनिजी कम्पनियों की मार्केटिग सेंस पर लिखी कहानी है। नायक संदीप मेहत्ता निजी कंपनी के वाइस प्रेजीडेंट की हैसियत से माऊँट आबू ‘समय प्रबंधन’ की वर्कशाप में भाग लेने आता है। समस्या यह है कि संदीप सिर्फ कम्पनी के लिए है और उसके घर की समस्याएँ, ...कोठी... गाड़ी... शोफर... मोबाइल... एयर ट्रेवल... चिल्ड्रन एजुकेशन, फैमिली हैल्थ- सब कम्पनी के वैलफेयर डिमार्टमेंट के जिम्मे हैं। कम्पनी निर्णय लेती है कि वर्कशाप पर माऊँट आबू उसे पत्नी को साथ ले जाना चाहिए या सेक्रेटरी को। वह सिर्फ रोबेट है। बाजारवाद ने उसे पति और पिता की अनुभूतियों, सुख- दुखों से भी वंचित कर छोड़ा है।

सुमनराजे के अनुसार बाजार और बाजारवाद एक ही चीज नहीं हैं। बाजार तो हमेशा से थे पर वे आवश्यकताओं और उनकी पूर्ति पर आधारित थे, जो अर्थशास्त्र का मौलिक सिद्धांत माना जाता हैं। अब स्थितियाँ बदल रही हैं, बदल गई हैं।....अब बाजारवाद का काम लोगों की आवश्यकताएँ पूर्ण करना नहीं है, बल्कि उनमें आवश्यकताएँ पैदा करना और फिर अन्य विकल्पों में अपने उत्पादन की श्रेष्ठता प्रतिपादित कर उनके लिए बाजार बनाना है। भारत ने विश्व को सस्ती स्वास्थ्य प्रणाली एवं औषधियाँ उपलब्ध करवाई हैं। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारतीय चिकित्सा प्रणाली का विशिष्ट स्थान है। औषधि उत्पादक के रूप में भारत मात्रा की दृष्टि से चौथे और मूल्य की दृष्टि से तेहरवें स्थान पर आता है। एक समय था जब रोग पहले था और फिर उसके उपचार के लिए दवा तैयार की जाती थी। आज समय बदल गया है। बड़ी और विख्यात कम्पनियाँ पहले दवा तैयार करती हैं, फिर उस दवा के रोग के लिए लिटरेचर तैयार होता है। यही व्यापार का असली गुर है। मूलमंत्र है।

२. नारी वमर्शः  मार्च २००७ में हंस पत्रिका ने खबरिया चैनलों की भीतरी दुनिया की खबर लेने का उदण्ड कार्य किया है। इन रिर्पोटरों के कैमरों में न जाने कितने जंग, दंगे, नरसंहार कैद हैं। पत्रिका की अधिकांश कहानियाँ मौन गौण पत्नियों और और मुखर प्रखर सखियों का सच लिए है। यह एक नया नारीवाद है।  औरत का हाथ समय की धडकती नब्ज पर है। यहाँ स्त्री सजग भी है, अवसरवादी भी और अनासक्त भी। स्टार न्यूज के प्रबन्ध संपादक शाजी ज़माँ की कहानी एक एँकर का इश्क3 जीवन नृत्य की रफ़्तार से बाहर हो चुके उस कैमरामैन की कहानी है जो जीवन भर गुलाबी रंग, गुलाबी हरकत, गुलाबी जिस्म, गुलाबी कपड़ों, गुलाबी फरेब वाली उस तमन्ना के लिए पगलाया रहता है, जिसने उससे नहीं उसके कैमरे से प्यार किया है। क्योंकि कैमरा वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने लाखों दर्शकों तक पहुँच सकती है। श्यौमल अहमद की अनकबूत4 साईबर नैतिकता का संदर्भ लिए है। कहानी की चुस्त चालाक नायिका प्रेमचन्द की शतरंज के खिलाड़ी की नायिका की तरह थोड़ी बहुत चालाकी से साइबर महफिल में मशगूल पति पुरुष को बाहर के दरवाजे का रास्ता दिखा याहू मैसेंजर के वीरान किलों में  अपनी चैटिंग की महफिल सजाने लगती है। लेकिन साइबर नैतिकता से जुड़ा पति पुरुष कबूले जुर्म औरत से ही करवाता है।

नारी विमर्श अथवा रिश्तों की एक निर्मम तस्वीर सुभाष शर्मा की कदेन5 में मिलती है। धेड़ गुरविंदरसिंह पच्चीस प्रवासियों की मजदूरी ही नहीं, टुनमुनिया की कोख भी खरीद लेता है। उसके पास पैसा है,जमीन है, दूध की डेयरी है, अनाज है, अपना प्रांत है, गाँव है, घर है और रीति-रिवाजों का झूठा कवच है। बाजार का नियम है कि इस्तेमाल करो और फेंक दो। उसके लिए औरत भी सिर्फ जमीन है। जहाँ बीज बो दो और फसल काट लो। वह टुनमुनिया से एक वर्ष का अनुबंध करता है और बेटा पाकर उसे अपने टोले में लौट जाने को विवश करता है। जब देखता है कि यह औरत अपनी ममता पर नियन्त्रण नहीं रख पा रही, तो खीर में जहर डाल उसे जीवन मुक्त कर अपना पीछा छुड़ा लेता है।

इस भूमण्डलीकरण में नारी एक वस्तु है, कमोडिटी है। खरीद-फरोख़्त की चीज है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में बाजारवाद नम्बर वन की हैसियत रखता है। बाजारवादी संस्कृति रिश्तों का बाजार लिए है। कहती है - बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया। समकालीन साहित्य के नवम्बर-दिसम्बर २००६ अंक में प्रकाशित हृषीकेश सुलभ की डाइन6 कोशी नदी की बाढ़ और मुआवजों के बहाने उस बाजारवादी संस्कृति की मनःस्थिति को प्रस्तुत करती है, जहाँ नायक जेठू मंडल के लिए सबसे बड़ा रुपया हो गया है। वह पत्नी को गाँव में रख मुंशी की बीबी से शारीरिक संबंध बना उससे रहने खाने की सहूलतें लेता है। जेठू मंडल को बड़ा आदमी बनना है और बड़ा आदमी बनने के लिए वह किसी लापता लाश पर कब्जा करता है और बाढ़ में मरने वालों की सूची में बाप के नाम से उस लाश की एंट्री करवा लेता है। वह बाढ़ के तीन महीने बाद लौटी माँ को पहचानने से इन्कार कर देता है, क्योंकि माँ का नाम लापता लोगों की सूची में लिखवा चुका है। माँ को साक्षात देखकर उसे लगता है, मानों नोटों की गट्ठियाँ कोशी नदी में बही जा रही हैं। माँ उससे नोट छीनने के लिए आ पहची डाइन लगती है। “उसे लग रहा था कि जैसे बाढ़ में अकाल मृत्यु की शिकार किसी फरेबी औरत की आत्मा उसकी महतारी की देह धारण कर सामने बैठी हो।...... मानों डाइन कोशी उसकी कोठरी में घुस आई हो और मुआवजे के रुपयों की गड्डियाँ बहा कर लिए जा रही हो। जेठू एक झटके के साथ उठा औा चीखने लगा- डाइन, डाइन....... डाइन।’’

३. सांस्कृतिक संकटः-  भूमण्डलीकरण के प्रभाव स्वरूप भारत में तेजी से आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन हो रहे हैं। सांस्कृतिक स्तर पर वैश्वीकरण के खूबसूरत क्लोज अप सुषम बेदी की गुनाहगार7 में मिलता है। गुनाहगार में बच्चों की विदेश में शादी के बाद साठ वर्षीय रतना माँ न रह कर एक मुसीबत, मसला, समस्या बन जाती है। बेटे, बेटियाँ, बहू, बहन, बहनोई उसे पुनर्विवाह के लिए विवश कर रहे हैं।  बहू कहती है, मेरी माँ ने भी तो दूसरी शादी की है..... यहाँ जो रहता है, उसे यहाँ के रीति रिवाजों के अनुसार चलना पड़ता है। बेटी कहती है, मेरी सहेली की माँ तो अस्सी की होने वाली है। वह छिआसी वर्ष के अपने एक पड़ोसी के साथ जुड़ गई है। वह देश जहाँ वृद्ध विवाह अनाचार माना जाता था, वहाँ बच्चे ही उसका वैवाहिक विज्ञापन  समाचार पत्रों में दे उसके लिए वर खोज रहे हैं।

काशीनाथ सिंह की पाँडे कौन कुमति तोहे लागि8 में पंडा संस्कृति के भूमण्डलीकरण को स्वर दिया गया है। अस्सी घाट के पाण्डे धर्मनाथ शास्त्री ने समय की नब्ज को महसूस लिया है। वे जान गए हैं कि पुरोहिती या पांचांग से न बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो सकता है, न पंडिताइन के चाव दुलार पूरे किए जा सकते हैं। दुर्वासा, गौतम या वशिष्ट की तरह श्रापों को पूरने, गरियाने या धिक्कारने का समय बीत गया है। डालर कमाने के लिए पाण्डे धर्मनाथ शास्त्री पूजा घर को टायलेट में बदल अंग्रेज पेइंग गेस्ट रख रहे हैं।

 

प्रवासी जीवन के वे चित्र भी कहानी में उभरे हैं, जहाँ नायक गाँव से शहर आता हैं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा की नून तेल मोबाइल9 कर लो दुनिया मुट्ठी में का मुहावरा लिए है। यहाँ दुनिया को मुट्ठी के करने के लिए सिर्फ एक मोबाइल की जरूरत है। इज्जत आबरू बचाने का एक ही औजार मोबाइल है। कल तक का नून तेल लकड़ी आज नून तेल मोबाइल हो गया है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने मोबाइल को मन की जरूरत माना हैं। परस राम जैसे प्रवासी पति-पुत्र के पास मोबाइल हो या उसके गाँव में छूटे परिवार के पास मोबाइल हो तो सारे कष्ट कट जाते हैं। कहानी कस्बे के वैश्वीकरण की है। कस्बे में फोन आ गया है। मोबाइल आ गया है। रंगीन और कैमरे वाला मोबाइल भी पहुँच चुका है। सारे परिवारों के बाहर गए लोग मोबाइल द्वारा परिवार से सम्पर्क बनाए हैं। खेती-बाड़ी, दान-पुण्य, कर्ज-व्याज, मकान की मुरम्मत, साड़ी के पैबन्द एक तरफ और अपनों से बतियाने वाला मोबाइल एक तरफ। मोबाइल ने तो टी. वी. को भी पीछे छोड़ दिया है। बाबू साहब के यहाँ,मुनव्वर के यहाँ, मंटू बाबू के यहाँ फोन/ मोबाइल है। गाँव के तीन और लड़कों ने मोबाइल ले लिए हैं। गाँव के लोग दुबई, कुवैत, आसाम, मुंबई, पंजाब गए हुए हैं। दुखी बो को मालकिन या मंटू मोबाइल न होने के ताने देते हैं। अंततः दुखी बो बहू की खातिर मोबाइल लेने का निर्णय लेती है।

विश्वग्राम के इस विचित्र दुष्चक्र में भारतीयता के लिए छटपटा रहे प्रवासी भारतीय विशेष रूप में दिखाई देते हैं। सुमन कुमार घई की उसकी खुशबू10 में संबंधों की खुशबू रच बस गई है। कोई संस्कृति इस खुशबू पर हावी नहीं हो सकती। कोई माँ, कोई बच्चा, कोई पति, कोई पत्नी इससे मुक्त नहीं हो सकते। पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध परेशान जरूर कर सकती है। कहानी  का नायक  पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण से संत्रस्त है। विदेश में बैठे हमारे प्रवासी साहित्यकार स्वदेश और उसकी स्वस्थ परम्पराओं, संस्कृति को नहीं भूले। उसकी खुशबू में भूमण्डलीकरण ने दाम्पत्य और चरित्र शब्द के अर्थ बदल दिए हैं। शादी के बाद मीरा विदेश आती है। पुत्र का जन्म होता है। पुत्र आठ साल का हो जाता है। स्लो प्वाजनिंग की तरह मीरा के हृदय में अमेरिकी जीवन उतरता जाता है। उसे अमेरिकन समाज की वह स्त्री जेनी कहीं सुखी लगती है, जिसपर पति-पुत्र का कोई दायित्व नहीं, जो तलाक के बाद अपने से सात वर्ष छोटे ब्वायफ्रेंड के साथ मजे से रहती है। ब्वायफ्रेंड तो बदलते रहते हैं। मीरा  भी तलाक का चयन करती है। पुत्र का दायित्व नहीं लेती। भारतीय संस्कृति कहती है कि प्रिय पात्र के सुख में सुख मानना ही सबसे बड़ा सुख है। इसी दर्शन पर चलने वाला पति विनय तलाक को भी स्वीकार करता है और बेटे के दायित्व को भी। क्योंकि पति विनय उससे मनः स्तर पर जुड़ा है। तीन साल बाद वह उसकी अनुपस्थिति में आती है, लेकिन विनय अंदर आते ही उसकी खुशबू से सराबोर हो जाता है। सुगन्ध और स्मृतियाँ यहाँ संबंधों के भारतीय मूल्यों को चुनौती दे रहे हैं।

 

४. भाषा का वैश्वीकरण और लिपिगत संकटः-  यूनेस्को की एक रपट ने हिन्दी भाषा का प्रचलन एवं व्यवहार विश्व के १३७ देशों में माना है। २२ देशों के ८० करोड़ लोग इसका प्रयोग करते हैं। भारत की सौ करोड़ आबादी के सत्तर करोड़ लोग हिन्दी भाषा से जुड़े हैं। नेपाल, बर्मा, भूटान  की भाषाएँ हिन्दी की ही विभाषाएँ हैं। थाईलैंड, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, सिंगापुर, मालदीव, इंडोनेशिया, त्रिनिडाड, फीजी, पाकिस्तान, बांगला देश में हिंदी भाषी परिवार पीढ़ियों से रह रहे हैं। दुबई में हिन्दी समझी भी जाती है और बोली भी जाती है। पाकिस्तानी उर्दू और बांगलादेशी बंगला देवनागरी में लिखी जाने पर हिन्दी ही हो जाती है। अमेरिका, केनेडा,आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन में हिन्दी भाषियों की कालोनियाँ और बाजार हैं। फ्रांस, इटली, नार्वे, हालैंड, पोलैंड, जर्मनी, स्वीडन,रूस, खाड़ी देशों में पर्याप्त हिन्दी भाषी रहते है। भूमण्डलीकरण आदान-प्रदान की हिन्दी भाषा का आधुनिकीकरण दो प्रकार से कर रहा है। प्रथमतः वह इसकी लिपि छीन रहा है। द्वितीयतः वह इसे विज्ञापन की भाषा बना रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जोड़ते हुए इसका बाजारीकरण कर रहा है। आधुनिकीकरण के प्रमुख घटक कम्प्यूटर, वेबसाइट, इंटरनेट, मोबाइल फोन ने रोमन लिपि का दामन पकड़ लिया है। चैटिंग, ई-मेल, एस.एम.एस. से देवनागरी लुप्त प्रायः हो गई है। बहु राष्ट्रीय कम्पनियों का भविष्य अपने उत्पादों को बेचने के लिए बहुत कुछ भारतीय उपभोक्ताओं पर टिका है। शयौमल अहमद की "अनकबूत"11 में चैटिंग, जया जादवानी की मैसेन्जर तथा मधु सन्धु की ‘मैरिज ब्यूरो’12 रोमन में लिखी हिन्दी के  एस.एम.एस. तथा चैटिंग पर आधरित कहानियाँ हैं। भले ही हिन्दी विश्व के ४६ देशों में पढ़ाई जाती हो। भारत से बाहर १५३ विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण की व्यवस्था हो। बुश प्रशासन ने हिन्दी प्रशिक्षण के लिए ७५ मिलियन डालर की ग्रांट दी हो, या विश्व हिनदी स्मेलनों में सी.डीज़ रिीज़ हो रही हों। यूनीकोड की उपलब्धि महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी दिवस पर माइक्रोसोफ़्ट जैसी कम्पनियाँ इसकी अनिवार्यता पर एन० डी० टी० वी० से वार्तालाप प्रस्तुत करती हैं। ऑन लाइन पत्रिकाओं के अतिरिक्त हिन्दी आकाशवाणी, दूरदर्शन, चित्रपट सारे विश्व में सुलभ है।

 

हिन्दी के लेखक की ही बात करें तो अभिमन्यु अनन्त मारिशस के जीवन से परिचित करवा रहे है। निर्मल वर्मा ने यूरोप में रह रहे भारतीयों के मन का इतिहास लिखते पाठक को कभी मोराविया, कभी लन्दन,कभी पेरिस और कभी ब्रेसेल ले जाते हैं। इला प्रसाद, उमेश अग्निहोत्री, वीना बर्मन, सुषम बेदी और उषा प्रियम्वदा अमेरिका में रह रहे भारतीयों का जीवन दे रही हैं। सुमन कुमार घई, शैलजा सक्सेना केनेडा के भारतीयों का जीवन प्रस्तुत कर रहे हैं। नासिरा शर्मा अरब देशों के चक्कर लगा रही है। तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना इंग्लेंड से लिख रहे हैं। राकेश त्यागी आस्ट्रिया से, कृष्ण बिहारी और पूणिमा बर्मन संयुक्त अरब इमारात से अर्चना पेन्यूली डेन्मार्क, सुचिता भट्ट फ्रांस से लिख रही हैं। जिसे हिन्दी साहित्य कहा जाता है, उसका सृजन और प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो रहा है। आप गाँव में रहते हैं या शहर में, पोस्टेज की कोई समस्या नहीं इन्टरनेट खोलिए- न्यूजीलैंड से भारत दर्शन, केनेडा से साहित्य कुंज, शारजाह (यू.ए.ई) से अनुभूति, अभिव्यक्ति, अमेरिका से अन्यथा, न्यूयार्क से ही वैश्विका, ब्रिटेन से पुरवाई, नार्वे से हिन्दी नार्वेजीय स्पाइल, भूपाल से गर्भनाल आदि पत्रिकाएँ आ रही है। रतलाम से रविशंकर रचनाकार द्वारा साहित्य का त्वरित प्रसार कर रहे हैं। आप दिल्ली की हंस, कलकत्ता की वागर्थ भी नेट पर पढ़ सकते हैं। कभी प्रेमचन्द जैसे साहित्यकारों की रचनाओं के अनुवाद ने भूमण्डलीकरण में सहायता की थी आज माइक्रोसोफट के लिप्यांतर भूमण्डलीकरण की क्रांति में अपना योगदान दे रहे हैं।

संदर्भ :

  1. हंस, जुलाई, २००७
  2. वागर्थ, फरवरी, २००५
  3. हंस, मार्च,२००७
  4. हंस, अप्रेल, २००७
  5. समकालीन साहित्य, मई-जून, २००७.
  6. समकालीन साहित्य, नव० दिस०, २००६
  7. हंस, दिसम्बर,२००३
  8. हंस, जनवरी, २००१
  9. हंस, सितम्बर, २००६
  10. साहित्य कुंज फरवरी, २००७
  11. वागर्थ, अप्रेल, २००४
  12. मसि कागद, अक्टू० नव०, २००४

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डा विजय 2022/10/12 02:46 PM

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