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हिन्दी साहित्य में चातक (पपीहा) की लोकप्रियता

भारत की अधिकत्तर जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता ही उसकी आत्मा है। इनका सारा जीवन प्रकृति पर ही निर्भर रहता है, जो इन्हें भोजन-पानी, रहन-सहन, व्रत-पर्व-त्योहार, सभ्यता को पूरा कराने में सहायक सिद्ध होती है। भारत की प्राकृतिक सुषमा बड़ी ही चितेरी रही है। नाना प्रकार की वनस्पति, पुष्प, पेड़-पौधे, फसल, पशु-पक्षी विशेष ऋतु समय पर आकर इसकी शोभा को और ही बढ़ा देते हैं। शरद ऋतु और वर्षा के समय एक विशेष तरह का पक्षी अपनी मधुर आवाज़ के साथ बोलता हुआ दिखाई देता है जिसे हम चातक (पपीहा) के नाम से जानते हैं। पपीहा, चातक और चकवा-चकवी नाम का यह पक्षी दिन भर एक जोड़े के रूप में साथ रहते हैं किन्तु शाम को ये दोनों बिछुड़कर ही रात बिताते हैं। सुबह इनका मिलन होता है। स्वाति नक्षत्र के पानी से जहाँ इस पक्षी के लिए जीवन उपयोगी सिद्ध होता है वहीं यह भारत के अधिकांश राज्यों में किसानों के लिए वरदान सिद्ध होता है।

इस देश में सभी प्राणियों के प्रति अपनत्व का भाव रहा है। फिर भी कुछ जीव-जन्तु, फल-फूल, पेड़-पौधों के प्रति लोगों का ध्यान अधिक रहा है। तोता, मैना, भौंरा, कबूतर, कमल, कोयल, कौआ, खंजन, गुलाब, चातक आदि को कवियों ने अपनी लेखनी के माध्यम से इनका कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में वर्णन किया है। इस सन्दर्भ में चातक (पपीहा) नामक पक्षी का वर्णन कवियों ने बड़े ही मनोहर ढंग से किया है।

निर्गुणधारा के कवि कबीरदास जी ने बीजक जैसे ग्रन्थ की रचना में चातक का वर्णन करते हुए कहा है कि-

चातक सुतहि पढ़ावहिं, आन नीर मत लेई।
मम कुल यही सुभाष है, स्वाति बूँद चित देई॥

इस दोहे के माध्यम से कबीरदास जी जहाँ चातक के वंशानुगत गुण का वर्णन करते हैं वहीं दूसरी तरफ मनुष्य को अपने सद्मार्ग पर चलने का संकेत देते हैं।

प्रेम के पीर सूफीधारा के कवि मलिक मुहम्मद जायसी जी ने नागमती वियोग वर्णन में चातक का वर्णन करते हुए कहा है-

लागि कुवांर नीर जग घंटा। अवहुं आउ कंत तन लटा॥
तोहि देखि पियु पलु है कया। उतरा चीतु बहुरि करू मया॥
चित्रा मित्र मीन आवा। पपिहा पीउ पुकारत पावा॥
उवा अगस्त, हस्ति घन गाजा। तुरयपलानि चढ़े रनराजा॥
स्वाति बूँद चातक मुख परे। समुद्र सीप मोती सब भरै॥
सरबर-सँवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि खंजन देखाए॥
भा परगास कांस बन फूलै। कंत न फिरे, विदेसहि भूले॥

उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से प्रकृति के सुन्दर दृश्य का वर्णन करते हुए सभी जीवधारियों के लिए अनुकूल मौसम के साथ प्रियतम की याद में प्रिया का विरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने चातक की तरह भक्ति एवं राम के प्रति विश्वास की बात कही है-

एक भरोसे एक बल, एक आस बिस्वास।
एक राम-धनश्याम हित चातक तुलसीदास॥

तुलसीदास जी ने चातक के मानस की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहा है-

मुख-मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर।
सुजस-धवल, चातक नवल! रह्यो भुवन भरि तोर॥

सूरदास जी ने भी भ्रमर गीत में चातक (पपीहा) के बिरह से भगवान से अपने बिछुड़ने की तुलना किया है-

बहुत दिन जियो पपीहा प्यारो।
बासर रैन नांव लै बोलत भये विरह-जुटकारी।
आप दुखित पर दुखित जानि जिय, चातक नाव तियारो।
देखौ सफल विचारी सषि जिय, बिछुरनि को दुख न्यारो॥

इसी प्रकार से मीराबाई ने पपीहा के विरह का उल्लेख किया है-

रहु-रहु पापी पपीहा रै, पिव को नाम न लेय।
जे कोई बिरहनि साम्हल तो पिब कारन जिब देय॥

रहीम ने भी चातक के जीवन को इस प्रकार याद किया है-

मुक्ता करै करपूर कर, चातक जीवन जोय।
एतो बड़ी रहीम जल, व्याल-बदन विष होय॥

रीतिकाल के कवि बिहारी भी चातक को भूले नहीं है-

लगत सुभग सीतल किरन, निसि सुख दिन अब गाहि।
माह ससी-भ्रम-सूर-ज्यौं, रहित चकोरो चाहि॥

रीतिकाल के कवि प्रेम के पीर नाम से जाने जाने वाले घनानंद जी ने चातक के प्रेमयुगल की अद्वैतता को प्रदर्शित करते हुए कहा है-

चाहै प्रान चातक सुजान घनआनंद को।
हैया कहूं काहू को परै न काम कूर सौं॥

आधुनिक काल के कवि प्रताप नारायण मिश्र ने पपीहा के वियोग अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है-

वरषा है प्रतापूज, घटिधरौ-अबलां मन को समझायो जहाँ।
यहि व्यारी तवै बदलेगी कहू, पपीहा जब पूछि है। (पीव कहाँ)?

इसी तरह से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने यशोधरा की विरह अवस्था में चातक का स्मरण करते हुए कहा है-

बलि-जाऊँ बलि-जाऊँ चातकी, बलि-जाऊँ इस रट की।
मेरे रोम-रोम में आकर, यह काँटे-सी खटकी॥

छायावाद युग के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद ने अपने ‘नीरद’ शीर्षक रचना में चातक के करुण विलाप का वर्णन करते हुए कहा है-

चपला की व्याकुलता लेकर चातक का करुण विलाप,
तारा-आँसू पोंछ गगन के, रोते हो किस दुख से आप?

प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत ने भी पपीहा की पुकार का उल्लेख किया है-

पपीही की वह पनि पुकार निर्झरों की भारी झर-झर,
झींगरों की झीनी झनकार घनों की गुरू गंभीर घहर?

इसी प्रकार से पंत जी ने भी ‘बादल’ कविता में इस पक्षी को याद किया है-

मेघदूत की सजल कल्पना/चातक के सिर जीवन धार,
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर/सुभग स्वाति के मुक्ताकार,
विहग वर्ग के गर्भ विधायक/कृषक बालिका के जलधार?

फिर जनवादी कवि नागार्जुन ने ‘बादल को घिरते देखा है’ शीर्षक के माध्यम से चकवा-चकवी के विरह वर्णन प्रस्तुत करते हुए कहा है-

अलग-अलग रहकर ही जिनको,
सारी रात बितानी होती,
निशाकाल के चिर अभिशापित,
बन्द हुआ क्रंदन, फिर उनमें।

इसी तरह मोहन सोनी ने चातक का वर्णन करते हुए कहा है-

चातक स्वाति बूँद को प्यासो, मन दरसन को प्यासो।
म्हारो आँगन तरस्यो-तरस्यो, दुनिया में चोमसो॥

इन पंक्तियों में चातक के माध्यम से कवि अपने अन्दर की दर्शनरूपी लालसा की बात कर रहा है। इसी तरह हिन्दी भाषा के साथ-साथ लोकभाषा के कवियों ने भी चातक को लेकर अनेक रचनाएँ की हैं। स्पष्टतः चातक पक्षी को हिन्दी के कवियों ने बड़े ही सहज ढंग से हर्ष-विरह दोनों ही स्थिति में इसका वर्णन कर लोकप्रिय बनाया है।

 

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