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हिन्दी शिक्षा-विश्व एवम्‌ मानवीय मूल्यों का सेतु

माना बहुत बदला है ज़माना अब तक. पर यह भी परम सत्य है कि बहुत कुछ नहीं बदला है। अगर सब कुछ बदल चुका होता, जो आज दुनिया भर में अन्तर्राष्ट्रीय सद्‌भावना की बातें, मानवीय मूल्यों कि चर्चाएँ तथा सांस्कृतिक गोष्ठयाँ ना हो रही होतीं। आज हम ऐसे विश्व में रह रहें हैं जहाँ आतंकवाद ने सबके सामने बहुत बड़ी चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। प्रतिदिन अनेकों ज़िन्दगियाँ नफ़रत की भट्टी में झोंक दी जाती हैं। सुबह शाम टी.वी. चैनल्स और अखबारों में आज आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े हादसों की खबरें मिल रही हैं। यह बढ़ रहा आतंकवाद, आधुनिक युग में समाप्त हो रहे मानवीय मूल्यों का प्रतीक है। आज आवश्यकता है तो नई पीढ़ी में प्रेम भावना की नई चेतना जगाने की तथा उन्हें मानवीय मूल्यों और मान्यताओं की शिक्षा देने की। विश्व शान्ति और भ्रातृभाव की आवश्यकता जितनई आज अनुभव हो रही है उतनी पहले कभी नहीं हुई थी। इतिहास गवाह है कि सदियों से विश्व शान्ति का सन्देश फैलाने में भारत का कितना बड़ा योगदान रहा है। महान शान्ति दूत, सम्राट आशोक, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानन्द तथा इस कड़ी में जुड़े और भी आधुनिक युग के कई महापुरुषों के नाम इस बात के द्योतक हैं। विश्व में शान्ति नीति बनाने में, सब की निगाहें भारत की तरफ ही लगी हुई हैं।

प्रवासी भारतीयों के माध्यम से, भारतीय संस्कृति की गरिमा आज पूरे विश्व में फैल चुकी है। सदियों पहले आर्थिक कारणों से विदेशों में जाने वाले भारतीयों ने अपने परिश्रम, लगन और योग्यता से विदेशों में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, आर्थिक मजबूरियों ने भारतीयों को सात समुन्दर पार जाने पर मजबूर कर दिया। देश तो छूटा, पर वो नहीं छोड़ पाए तो वो था, अपने देश की सोंधी मिट्टी की खुशबू का मोह तथा अपनी संस्कृति और संस्कारों से अटूट संबंध। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए इन भारतवंशियों को बहुत संघर्ष करने पड़े। आर्थिक स्थिति सुधारने के साथ-साथ अपनी भावी सन्तानों को अपनी मूल जड़ों से जोड़े रखना, एक बहुत ही चुनौती भरा काम है। भारत की भूमी से वो दूर तो रहे पर दिलों भारत ही बसा रहा। यह उनके अनथक प्रयत्ननों का ही फल है कि आज आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में उनकी तूती बोलने लगी है। दुनिया के हर हिस्से में इन भारतवंशियों की सन्ताने, कहीं किसी देश की प्रधान मन्त्री हैं तो कहीं राष्ट्रपति, कहीं संसदों में जन प्रतिनिधि की भूमिका निभा रहे हैं और कहीं डाक्टर, वकील, इंजीनियर और व्यवसाय में उच्चतम शिखर पर हैं। यूँ तो सदियों से विदेशों में रहने से, विदेशों की भाषा और सभ्यता का प्रभाव पड़ना स्वाभिक ही है, पर बहुत कुछ नहीं भी बदला है। वो आज भी अपने पूर्वजों से मिले भाषा के कुछ अंश, संस्करों और भारतीय संस्कृति को संजोए हुए हैं।

भारतवंशी लोग, विश्व में जहाँ भी गये हैं और बसे हैं, वहाँ हिन्दी भी बोली जाती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के बहाने अब सभी एकत्रित होने लगे हैं। विदेशों में हो रहे “विश्व हिन्दी सम्मेलन”, महोत्सव तथा की और आयोजन इस बात के गवाह हैं कि आज भी प्रवासी भारतीय अपनी मातृभूमि से एक गहरा भावनात्मक लगाव, एक अटूट रिश्ता रखते हैं। भारतीय संस्कृति का सूर्य कभी नहीं छुपा है। छुपे भी तो भला कैसे? यह तो धरती है ऋषि मुनियों की, सूर्य वंशी राजा राम की, और आज उसके वंशज पूरे विश्व में फैले हुए हैं। जह यहाँ अमेरिका में सुबह का सूर्य उगता है, मैं दिया जलाने के बाद, भारत में अपने पापा को फोन करती हूँ, तो पापा पूछते हैं, “उठ गए बेटे?” और बातचीत के अन्त में मैं कहती हूँ, “अच्छा पापा आप चिन्ता न करो, सो जाओ।“ जैसे मैं वादा करती हूँ “पापा आप निश्चिन्त हो सो जाओ, मैं जाग रही हूँ। मैं हूँ ना अपनी संस्कृति की रक्षा करने के लिए। अपने मन मन्दिर का दिया जलाए, मैं तैनात हूँ यहाँ। मातृभूमि से दूर हूँ तो क्या हुआ, मैं अपना भारत अपने साथ ही लाई हूँ।“ और फिर, रात सोने से पहले मैं पापा के उठने का इंतज़ार करती हूँ और मेरे फोन की घंटी सुनते ही वो बोलते हैं, ’सो जाओ बेटे, अब बहुत देर हो गई है।“ और जब वहाँ सुबह का दिया जलत है, यहाँ मैं सो जाती हूँ। ऐसा लगता है, जैसे पापा मेरे हाथ से मशाल थाम लेते हैं और मुझे सुला कर अपने कर्तव्य में जुट जाते हैं। भारतवंशी, जो दुनिया के विभिन्न देशों में फैले हैं, हर पल, किसी न किसी कोने में, कोई बेटी या बेटा, अपने माँ-बाप या भाई-बन्धुओं से, अपनी भारतीय संस्कृति की मशाल जलाए रखने का आदान प्रदान करता है। यह तो एक अखंड जोत है।

यह जोत कभी भी न बुझे इसलिए आवश्यक है, नई पीढ़ी को सही शिक्षा देने की। उन्हें अपनी मूल जड़ों से जोड़े रखने की। तथा बचपन से ही उन्हें अपनी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का ज्ञान देने की। माना प्रवासी भारतीयों की नई पीढ़ी को उक्‍त देश में पैदा होने के कारण वहाँ की नागरिकता जन्म से ही मिल गई, या किसी भी विधी से उन्होंने, उक्‍त देश की नागरिकता प्राप्त कर ली, तो क्या वे केवल उसी देश के ही नागरिक हैं? नहीं, वे इस बात से इन्कार कर सकते हैं कि वे भारतीय नहीं रहे। कुछ भी हो, भारतीय शब्द तो उनके साथ जुड़ा ही रहेगा, यह अटूट सत्य है। वह इंडो-अमेरिकन या इंडो-कनेडियन आदि ही कहलाएँगे। यह बात नई पीढ़ी को समझना बहुत ही आवश्यक है। अपने मूल देश को, अपनी सही पहचान को, अपने रिश्तेदारों को केवल भाषा के ज्ञान से ही जाना जा सकता है। और भारत की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी ही एक ऐसी कड़ी है जो विश्व में फैले, भारत के विभिन्न प्रदेशों से आए भारतीयों को आपस में जोड़ सकती है उन्हें अपने बिछुड़े हुए समूचे भारत से। भारतीय संस्कृति की परम्परायें, अध्यात्मिक आदर्श, भारतीय संस्कृति केवल हिन्दी के माध्यम से ही व्यक्त होती है। यूँ तो प्रत्येक देश और प्रदेश की अपनी कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की सांस्कृतिक विरास्त संस्कृत भाषा में सुरक्षित है और उस विरासत का बड़ा भाग हिन्दी भाषा के माध्यम से ही पहुँचाया जा सकता है। अपने पूर्वजों के विचारों, शिक्षाओं, भावों तथा मूल्यों को अपनी भाषा द्वारा ही समझा जा सकता है। यहाँ एक कहानी याद आती है, जो मेरी नानी ने सुनाई थी। बचपन में अक्सर नाना-नानी कहानियाँ सुनाया करते थे। जब साँझ ढले सब मिल कर बैठ जाते थे, पंचतन्त्र की कहानियाँ, अमर कथाएँ, रामायण और महाभारत, आज़ादी की लड़ाई के किस्से, बड़े-बड़े नेताओं की बातें, रोज कुछ ना कुछ नया ही सुनते थे। वो मानसपटल पर आज भी उसी तरह अंकित है। क्योंकि बाल मन तो कच्ची माटी की तरह होता है। जैसा चाहे हम उसे ढाल दें। कहानी इस तरह थी: “एक औरत जिसे अपने बाग के पेड़ पौधों से बहुत प्यार था, एक दिन अचानक वह बिमार पड़ जाती है। बिमारी में उसे बहुत चिन्ता होती है कि उसके पेड़ पौधे बिना पानी के सूख जाएँगे। उस का बेटा माँ को आश्वासन दिलाता है और रात-दिन बाग की देखभाल करने में जुट जाता है। माँ बेटे की लगन देख कर बहुत खुश थी। लेकिन जब वह स्वस्थ हो कर बाहर बाग में आई तो उसने देखा की सभी पेड़ पौधे सूखने लगे थे। बेटे से पूछने पर पता चला कि दिन भर पत्तों और डालियों को पानी से साफ करता रहता था। तब माँ ने समझाया कि जड़ों को पानी देना ही असली सेवा है।“ आज मैं इस कहानी के सही अर्थ लगा पाती हूँ। ऐसा ही कुछ हो रहा है आधुनिक युग में। आज माँ-बाप, दादा-दादी या नाना-नानी और तो और बच्चे भी, सभी इतने व्यस्त हो गये हैं कि किसी के पास समय ही कहाँ रहा है। सुबह और शाम का भी अन्तर नहीं रहा। घर घुसते ही टी.वी. पर कोई हिंसा भरी फिल्म, या अश्लीलता भरे दृश्य या क्मप्यूटर पर चैटिंग शुरू हो जाती है। पूर्व अब पश्चिम की चकाचौंध की तरफ़ आकर्षित हो, बड़ी तेज गति से बढ़ रहा है, और मूल्यों में कमी आ रही है। पर उसी समय यह भी सत्य है कि पश्चिम, पूर्व की तरफ़ और तेज गति से बढ़ने लगा है। परिवारों के टूटने से असुरक्षा की भावना से ग्रस्त, असन्तुष्ट नौजवान पीढ़ी, दिशाहीन, किसी मंज़िल की तलाश में भटक रही है। आक्रोश की भावना ही हिंसा को जन्म देती है। बड़े लोग सोचते हैं कि हमने बच्चों की सुख सुविधायें दे कर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, यह ठीक उसी तरह से है जैसे बिमार औरत के बेटा, पेड़ों के पत्तों और डालियों को पानी से साफ करने में समय बर्बाद कर देता है। वह समझता है कि उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। जब कि जड़ें पानी के बिना सूख जाती हैं। हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ ही समाज रूपी वृक्ष की जड़े हैं। जिन्हें व्यवहारिक रूप में लाना, जीवन में अपने प्रेम से सींचना बहुत ही आवश्यक है। यदि इन में सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सक्षम कुशलता नहीं होगी तो वे भारत की सांस्कृतिक विविधताओं को कैसे समझ पाएँगे। अतः हिन्दी की शिक्षा के माध्य से ही हम भावनात्क एकता को विकसित कर, पारिवारिक मूल्यों को समझ सकते हैं और परिवारों सुदृढ़ बना सकते हैं।

विश्वशान्ति और विश्व बन्धुत्व के लिए यह अति आवश्यक है कि परिवारों के महत्व को समझा जाए। परिवार में ही बच्चा प्यार, आदर, शान्ति, एकता, आपसी मेलजोल, सहानुभूति, करुणा, संवेदना, सहनशीलता, क्षमा, निष्ठा, विश्वसनीयता, अनुशासन, ईमानदारी, उत्तरदायित्व, धार्मिक पवित्रता और शिष्टाचार आदि के अद्‍भुत सद्‌गुण सीखता है, जो न सिर्फ उसे सम्मान दिलाते हैं, बल्कि, उसे एक अच्छा इन्सान भी बनाते हैं। एक खुशहाल परिवार ही स्वस्थ समाज का निर्माण करता है। अच्छा समाज ही विश्व का सही प्रतिबिम्ब है। भारतीय सांस्कृतिक मूल्य केवल शानित पर ही आधारित हैं। यहाँ सुबह का आरम्भ ही “ॐ शान्ति” के पाठ से होता है। जहाँ अभिवादन भी हम विन्रम भाव से हाथ जोड़ कर, पाँव छू कर, और गले मिलकर आशीर्वादों की बौछार से ही करते हैं। रिश्तों की गरिमा, क्या है, यह हम ही जानते हैं, जहाँ सुख दुख में समस्त कुटुम्ब साथ मिल हँसता और रोता है। जहाँ अमावस की अन्धेरी रात को दिवाली के दीयों से रौशन किया जाता है। जहाँ बुराइयों को दशहरे के दिन जलाकर, अच्छाइयों की विजय पताका लहराई जाती है। जहाँ जाति, रंग, धर्म, वैर-विरोध सब भूल कर होली के बहाने, प्रेम के रंगों में रँगे, सब गले मिल जाते हैं। जहाँ आज भी एक परिवार की बेटी, पूरे गाँव की बेटी और इज्जत मानी जाती है। जहाँ आज भी बेटा, चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, अपने बाप के सामने नशा तो क्या, ऊँची आवाज़ में बात करने से घबराता है। जहाँ महेमान भगवान का रूप है और आदर सत्कार से उसे आश्रय मिलता है। बजुर्गों को वृद्धाश्रमों में नहीं भेजते, बल्कि उनकी छत्र छाया में हम आशीर्वाद पाते हैं। आज यही मान्यताओं की, परम्पराओं और संस्कारों की समाज में अत्यन्त आवश्यकता है। जब हम बातें करते हैं इन मानवीय मूल्यों की, मानवीय मूल्य कोई दवा नहीं हैं जो कैप्सूल में डाल कर निगल लिये जाएँ। आज आवश्यकता है नई पीढ़ी को मार्ग दर्शन की। हम, यानि कि अपनी पीढ़ी की यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। हम, केवल हम ही हैं एक सेतू, पुरानी और नई पीढ़ी में, जो बाँध सकते हैं, पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण को एक भाषा की डोर में। हम ही हैं जो बिठा सकते हैं, सामंजस्य, पुरातन और नूतन में। ञान का पाठ, जो हमने अपने बड़ो से पाया था, वही पाठ हमने अपने बच्चों और बच्चों के बच्चों को पढ़ाना है। अब हमें अपने बचपना में मिले प्यार का कर्ज़ चुकाना है।

आज समस्त विश्व हिन्दी भाषा के महत्व को और भारतीय संस्कृति के मूल्यों की विशेषताओं को समझने लगा है। तभी तो अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति महामहिम जार्ज बुश ने अमेरिका की जनता को हिन्दी सीखने का परामर्श दिया है। विश्व शान्ति और समृद्धि में भारतवंशियों को एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। भारत में बसे भारतवंशी और प्रवासी भारतीय मिलकर दुनिया की चुनौतियों का सामना करने की पूरी क्षमता रखते हैं। हम अपने आने वाले वंशजों को, शान्तिमय, खुशहाल वातावरण देना चाहते हैं। हम सभी आशान्वित हैं और इस दिशा में प्रयासरत हैं एक उमंग के साथ, संपूर्ण उत्साह के साथ हमें इस कार्य को और भी तेजी से बढ़ाना है। यह आज हम सब की जिम्मेदारी है और इस जिम्मेदारी को बाखूबी हमें निभाना है। और हिन्दी भाषा ही एक सेतू है जो मानवीय मूल्यों द्वारा विश्व में शान्ति और बन्धुत्व ला सकती है।

कतरा कतरा बिखरे टुकड़ों को जोड़ती हूँ,
कुछ कणों और कुछ क्षणों को जोड़ती हूँ।
कुछ धर्मों और कुछ महजबओं को जोड़ती हूँ,
चाहती हूँ जोड़ना, देशों और प्रदेशों को।
हिन्दी भाषा की डोर से सभी बंध जाएँ,
विश्व में अमन शान्ति का ध्वज फहराएँ।
यह स्वप्न है मेरा, अवश्य सच हो जाएगा,
यह मुश्किल तो है, पर असम्भव तो नहीं॥

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