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हिंदी उपन्यासों में समलैंगिकता : स्त्री की नज़र से 

मुनष्य अपनी कुछ विशेषताओं के कारण अन्य प्राणियों से विशेष कहलाता है। इनमें से एक विशेषता है, उसका चिंतनशील होना। इसी चिंतन के बल पर मनुष्य ने हज़ारों सालों के विकासक्रम में आदिमानव से आधुनिक मानव की यात्रा पूरी की है। मनुष्य प्रकृति पुत्र अवश्य है किंतु वह सदैव कुछ नया, कुछ विशेष, कुछ असाधारण करने के प्रयास में लगा रहा। इसी का परिणाम कभी-कभी यह भी होता है कि वह कुछ ऐसे कार्यो में संलिप्त हो जाता है जो प्रकृति के सामान्य प्रचलित नियमों से मेल नहीं खाते। ऐसा ही एक कार्य है – समलैंगिक संबंध बनाना।

समलैंगिकता का अर्थ है– समान लिंग के दो मनुष्यों का एक साथ रहकर शारीरिक एवं योनी संतुष्टि प्राप्त करना। जैसा ऊपर कहा जा चुका है विषम लिंग के प्रति आकर्षण और उससे शारीरिक योनिक संतुष्टि प्राप्त करना एक सहज, स्वाभाविक एवं प्राकृतिक क्रिया है। इसके विपरीत समलिंगी अर्थात पुरुष का पुरुष के प्रति और स्त्री का स्त्री के प्रति शारीरिक एवं योनिक आकर्षण, असहज अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक है।

समलैंगिकता की अवधारणा भारतीय चिंतन परंपरा से मेल नहीं खाती। हमारे यहाँ मनुष्य को प्रकृति का पुत्र माना गया है। इसलिए धरती, भारत, प्रकृति आदि माँ के रूप में वर्णित किया गया है। ऐसे में पुत्र का अपनी माँ के विरुद्ध आचरण ताज्य, अशोभनीय तथा अस्वीकार्य माना जाता है। यह भी सही है कि प्रत्येक मनुष्य में स्त्री और पुरुष दोनों तत्त्वों का कुछ न कुछ अंश होता ही है। इसी आधार पर भारत में अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है। जीवन में भी हम देखते है कि किसी-किसी पुरुष में स्त्रियोचित गुण पाये जाते है। ऐसे मनुष्यों को कभी-कभी विषम लिंगी के प्रति आकर्षण न होकर समलिंगी के प्रति आकर्षण हो जाता है। उदाहरण के लिए ऐसा पुरुष पुरुष होते हुए भी अपने स्त्रियोचित गुण के कारण किसी दुसरे पुरुष के प्रति आकर्षित हो सकता है। उसके साथ शारीरिक संबंध बनाकर अधिक संतुष्टि महसूस कर सकता है। ऐसी स्थिति किसी स्त्री के साथ भी हो सकती है। इस तरह की मानसिक दशा वाले स्त्री-पुरुषों की अपने ही समान लिंगी के प्रति योनिक इच्छा पूर्ति की भावना समलैंगिकता कही जा सकती है।

कभी-कभी अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे मनुष्य भी जन्म लेते हैं जो प्राकृतिक रूप से ही पुल्लिंग या स्त्रीलिंग [नर-मादा, पुरुष-स्त्री] किसी एक वर्ग में नहीं रखे जा सकते। वे पुरुष या स्त्री किसी एक रूप में, अपने एक विषमी लिंगी को न तो शारीरिक-योनिक संतुष्टि प्रदान कर सकते हैं न ही गर्भधारण कर या करवा सकते हैं। ऐसे मनुष्यों को भारतीय परपंरा में किन्नर, हिजड़ा, बीचका, छक्का आदि संबोधनों से संबंधित किया जाता है और, अंग्रेज़ी में इसके लिए थर्ड जेंडर शब्द प्रचलित हो गया है। उल्लेखनीय बात यह है कि संस्कृत व्याकरण में पुल्लिंग, स्त्रीलिंग के अतिरिक्त नंपुसक लिंग की मान्यता भी रही है। किंतु यह अवधारणा प्राणीवाचक शब्दों के स्थान पर प्रयोग न करके उन निर्जीव वस्तुओं के लिए प्रयोग की जाती थी। जितना व्याकरणिक लिंग स्पष्ट नहीं होता था।

मनुष्यों में समलैंगिकता की अवधारणा को पुष्ट, प्रचलित एंव प्रसारित करने का श्रेय पाश्चात्य जीवन पद्धति, मूल्यों और मानसिकता को है– पश्चिम में व्यक्ति-स्वातंत्र्य के प्रभाव स्वरूप व्यक्तिगत इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा मान्यताओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है। वहाँ ‘व्यक्ति के लिए समाज है समाज के लिए व्यक्ति नहीं’ जैसे विचार स्वीकृत हैं। व्यक्ति समाज की परवाह न करते हुए अपनी मन-मर्ज़ी से जीवन जीने में विश्वास करता है। यही कारण है कि समलैंगिकता जैसी अप्राकृतिक, असामान्य तथा विकृत अवधारणा को कुछ लोगों ने न सिर्फ़ अपनाया अपितु इसे एक आँदोलन का रूप देकर समलैंगिक समुदाय को समाज में मान्यता प्रतिष्ठा तथा अधिकार दिलाने का भी प्रयास किया। वहाँ समलैंगिकता शर्मनाक या बुरी बात न मानकर इसे व्यक्तिगत अस्मिता और अस्तित्व का प्रश्न बनाकर प्रस्तुत किया। समलैंगिकता की अवधारणा चूँकि प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है इसलिए इसे किसी भी दृष्टिकोण से मानव जाति के लिए हितकर नहीं माना जा सकता है। अप्राकृतिक-शारीरिक-योनिक संबंध एड्स जैसी भयंकर बिमारियाँ को जन्म दे सकते हैं, समाज में समाज में गृहस्थ-आश्रम को खंडित कर सकते हैं। संतान-उत्पत्ति तो संभव ही नहीं है। इससे तो मानसिक कुंठाएँ, अवसाद जैसी विकृतियाँ ही जन्म लेंगी। 

पिछले लगभग सौ डेढ़ सौ वर्षों में भारतीय समाज पर पश्चिम का रंग बहुत तेज़ी से चढ़ा है। इसके परिणामस्वरूप वहाँ की अनेक विकृतियाँ यहाँ भी जड़ पकड़ने लगी हैं। उन्हीं में से एक समलैंगिकता। साहित्यकार समाज से ही कच्चा-माल लेता है और अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करता है। कुछ कथा लेखिकाओं ने अपनी किसी न किसी रचना में समलैंगिकता का दबे स्वर में संकेत दिए है –

उपन्यासों में भी तीव्र गति से समलैंगिक काम-संबंधों का चित्रण होता जा रहा है। इन महिला उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में इस समस्या को दिखाने का प्रयास किया है। उपन्यास ‘कुमारियाँ’ में समान लिंग के प्रति आकर्षण होने की व्यथा को अभिव्यक्त किया है। लेखिका कृष्णा अग्निहोत्री ने नायिका की वेदना को चित्रित किया है। नायिका गुड्डी अपने ही परिवार से लगातार अपमान और तिरस्कार झेलती रहती है। गुड्डी किसी लड़के से प्रेम करती है। शारीरिक संबंध बना माँ बनने वाली होती है। पिता ने गुड्डी पर मानसिक दबाव बना उसका गर्भपात करवा देते हैं। गुड्डी पिता के इस व्यवहार से परेशान हो उन्हें कष्ट देती रहती है। पिता को गुड्डी का घर से बाहर एवं किसी लड़के से मिलना बिल्कुल पसंद नहीं है। गुड्डी को चेतावनी दी जाती है कि वह अगर किसी लड़के से मिलेगी तो उसकी सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा। गुड्डी अपनी मानसिक एवं शारीरिक वेदना को अपने मित्र सरिता को बता हल्का महसूस करती है। गुड्डी और सरिता एक दूसरे के इतने नज़दीक आ जाते हैं कि उनमें किसी भी प्रकार की कोई दूरी नहीं होती। काम-संबंधों का ऐसा आकर्षण कि दोनों अपनी मर्यादा ही भूल गई हों गुड्डी दिन-रात सरिता का आना चाहती है। पिता को भी किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं होती थी। उन्हें प्रतीत होता है कि दोनों लड़कियाँ ही तो हैं। गुड्डी अपने काम वृद्धि के संबंध में अपनी आपबीती कहती है- “लड़के की जगह लड़की के साथ घूमने-फिरने में पिता को आपत्ति ना थी, लेकिन सरिता के बिना, रात न बिता पाना और आँखों के नीचे गड्ढे गुड्डी और सरिता के समलैंगिक काम-संबंधों का भांडा फोड़ देते हैं।”1 गुड्डी का शुरू से ही काम-संबंधों के प्रति आकर्षण था। किसी-न-किसी लड़के के संसर्ग में बनी रहती थी। कामवासना की पूर्ति न होते देख वह समलैंगिक काम-संबंधों के प्रति अग्रसर होती है। 

उपन्यास "श्मशान चम्पा" में शिवानी ने पुरुष वर्ग के प्रति समलैंगिक यौनाचार को दिखाने का प्रयास किया है। नायक तनवीर अपनी इच्छा से अपनी पसंद की लड़की से विवाह करता है। विवाह के कुछ समय उपरांत ही पुरुष वर्ग के प्रति उसका आकर्षित होना दिखाई देता है। तनवीर अपने आपको लड़की की शेप में ढालना शुरू कर देता है। तनवीर की मित्र-मंडली रात में पार्टियों में उसको साथ में लेकर जाती है। जुही तनवीर के बदलते स्वभाव के कारण चिंतित है। तनवीर रोज़-रोज़ रात को कहाँ ग़ायब हो जाता है। जुही तनवीर की रोज़ की क्रिया-प्रतिक्रिया देख सवाल-जवाब पूछने के लिए मजबूर हो जाती है। तनवीर जुही को समझाते हुए अपनी बात रखता और कहता है- “मुझे माफ करना जुही सोचा था तुमसे शादी कर अपनी ज़िंदगी को भूल जाऊँगा, पर अब देखता हूँ कि वहाँ पहुँच गया हूँ, जहाँ से चाहने पर भी अब मैं नहीं लौट सकता।”2 तनवीर अपनी पुरानी ज़िंदगी में दुबारा चला जाता है जहाँ वह समलैंगिकता से ग्रस्त था। शादी से पहले उसका संबंध उसके मित्रों से था। लड़की बनते-बनते कब यह पूरी तरह लड़की बन गया, उन्हीं की तरह व्यवहार सजना-सँवरना रोज़ की ज़रूरत बन गई; तनवीर को पता ही नहीं चला। जुही तनवीर की बातों को सुनकर सन्न रह जाती है। घर-परिवार को तनवीर की बिलकुल चिंता नहीं। जुही अपने आप में घुटती चली जाती है। समाज परिवार को पता चलेगा तो वह हमारा बहिष्कार कर देंगे। यही सोच-सोच कर वह परेशान होती है। घर में भाभी तनवीर की हरकतों को देख जुही पर व्यंग्य कसते हुए कहती है कि “क्यों जी, तुम लड़की हो या लड़का? तनवीर मियाँ के दोस्तों के मासूम जनाने चेहरे देख-देख कर हमें डर लगता है कि कहीं तुम भी उन्हीं में से एक न हो।”3 जुही भाभी के लगातार भी व्यंग्यों से परेशान हो तनवीर से इसका उत्तर जानने की कोशिश करती है। तनवीर जुही को नहीं समझा पा रहा है कि वह किन अलगावों के भँवर में फँसा हुआ है। तनवीर समस्याओं के आगे घुटने टेक देता है। जुही मानसिक एवं शारीरिक वेदना से पीड़ित है। 

आधुनिक समाज में जहाँ प्रेम-संबंधों में परिवर्तन आया वहीं युवक-युवतियों की विचारधारा में भी बदलाव आया। स्त्री-स्त्री के संबंध में लेखिका उषा-प्रियंवदा ने अपने ‘अंतर्वशी’ में लिखा है कि स्त्री-पुरुष के संबंधों में आई नीरसता के कारण कड़वाहट उत्पन्न हो जाती है। नायिका वाना संबंधों में आए बिखराव को सहन नहीं कर पाती और अपनी वेदना को अपनी मित्र क्रिस्त्रीन विदेशी महिला है, को बताती है। वह भी संबंधों में मिलती अर्थहीनता के भाव से पीड़ित है। वाना और क्रिस्त्रीन अपनी-अपनी संवेदना और वेदना को व्यक्त करते-करते इतने नज़दीक आ गए हैं। वाना को अब शिवेश की कमी नहीं खलती थी। वाना ने अपने चारों ओर क्रिस्त्रीन का आवरण ओढ़ लिया है। वाना अपने सुख-दुख को बाँटते-बाँटते अपने तन को भी बाँटने लगी है। क्रिस्त्रीन समझाते हुए कहती है- “मुझसे कहो न वाना। क्या दुख साल रहा है।”4 वाना अपनी दुखित भावों को व्यक्त करते हुए पति शिवेश के प्रति अपनी उदासीनता को अभिव्यक्त करती है। वाना को क्रिस्त्रीन का साथ इतना अच्छा और सुखद लगता है कि वह अपनी संवेदनाओं को व्यक्त कर अपनी आत्मपीड़न भी बता देती है। क्रिस्त्रीन भी वाना के प्रति आकृष्ट है। क्रिस्त्रीन के बढ़ते झुकाव के आगे वाना अपने आप को कमज़ोर और असहाय महसूस करती है। वाना क्रिस्त्रीन के आगे अपनी भावना को नहीं छिपा पाती और कहती है- “जैसे मैं टुकड़े होकर बिखर रही हूँ। मेरा सारा जीवन विकेंद्रित हो गया है क्रिस मुझसे कुछ सँभाले नहीं सम्हलता।”5 वाना क्रिस्त्रीन में इतनी खो गई है कि अपनी सभी मान मर्यादा खो बैठी है। वाना अचानक अपने आप को सँभालते हुए कहती है- “वाना क्रिस्त्रीन के दिल की धड़कन सुन रही है, उसकी बाँह क्रिस्त्रीन की कमर घेरे हुए है। यह जो वाना निर्वस्त्र, अकुंठित, लज्जाहीन, अतृप्त और जागृत क्रिस्त्रीन से सट कर लेटी है, शिवेश की पत्नी नहीं है। वह केवल वाना है और वह क्रिस्त्रीन की बाँहों में सिमटकर उसे रात भर प्यार करने के लिए प्रशिक्षित है।”6 यहाँ संबंधों का नया रूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। पुरुष प्रेम-संबंध में कड़वाहट आने से स्त्री-स्त्री के संपर्क में जा नए संबंधों को जन्म दे रही है। विदेशी महिला क्रिस्त्रीन का इन संबंधों के प्रति ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होती। क्रिस्त्रीन ऐसा संबंध स्थापित कर रही है जो समाज की दृष्टि मान्य से नहीं है। वाना क्रिस्त्रीन को खुलकर समर्पित करती है पर कहीं न कहीं उसे यह अहसास भी होता है; वह ग़लत कर रही है। वाना क्रिस्त्रीन को अपनी बदली हुई स्थिति को चित्रित करती है। क्रिस्त्रीन भी वाना के बदले  व्यवहार से परेशान दिखाई देती है। क्रिस्त्रीन चिंतित हो कह उठती है – “वाना कुंठित हो जाती है। इस क्षण की वर्जना का उसे पूरा एहसास है, पर कहीं एक स्तर पर उसने यह सब स्वयं छल है, उसने क्रिस्त्रीन प्रत्युतर मात्र नहीं दिया है, उसे प्यार किया है, खुलकर, डूबकर फिर वाना एकाएक सब कुछ गोप्य, वर्जनीय को अलग हटा देती हैं- वह धीरे से उठ कर बैठ जाती है और चादर खींचकर ढक लेती है।”7 इस संदर्भ में समलैगिकता के धरातल पर जो अनुभूति वाना को महसूस होती है। वह उसे अपने पति शिवेश से भी नहीं मिलती। शिवेश ने वाना के मन के साथ-साथ उसकी भावनाओं को भी अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। वाना इन बेड़ियों को तोड़कर स्वच्छंद हवा में साँस लेना चाहती है। दम तोड़ती सभ्यता-संस्कृति में अपने आपको अब नहीं झोंकेगी।

उपन्यास ‘परछायों का समयसार’ में लेखिका कुसुम अंसल ने नायिका के सशक्त रूप का चित्रण किया है। नायिका अपने पति शैलेन्द्र से बहुत प्यार करती है। पति और पापा समान ससुर का ध्यान रखती है। पति शैलेन्द्र के साथ शादी के बाद सिंगापुर चली जाती है। एक दुर्घटना में नताशा की ज़िंदगी ही बदल जाती है। शादी के कुछ महीने बाद ही पति शैलेन्द्र का अक्सीडेट में रीढ़ की सारी हड्डियाँ टूट जाती हैं। इलाज के चलते नताशा ने अस्तपताल को ही अपना घर बना लिया था। रात-दिन बेंच पर पड़-पड़ पति के ठीक होने की दुआएँ माँगा करती थी। दिन-महीने और कैसे साल में बदल गए ध्यान ही नहीं रहा। अस्तपताल में डॉ. सिस्टर डौरोथी, नर्स और नताशा शैलेन्द्र के प्रति जी-जान से लगातार प्रयास कर रहे थे। नताशा के अलावा सबको ज्ञात था कि शैलेन्द्र फिर से पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाएगा। इन दिनों सिस्टर डौरोथी नताशा के काफ़ी क़रीब हो गई थी। सिस्टर डौरोथी नताशा को समझाते हुए कहती है - “ट्राई नताशा ‘सैक्स’, इट्स ए नीड। ज़रूरत है जिस्म की, जैसे पेट को दाल-रोटी। जो नहीं मानते, वह हिपोक्रेट हैं नताशा। समाज से डरते हैं, पर हम नहीं डरते।”8 नताशा सिस्टर डौरोथी की बातें सुन अंचभित हो गई थी। सिस्टर नताशा के समीप आ उसे अकेलेपन के भयावह सच से रु-ब-रु करवाते हुए कहती है- “नताशा तुम बहुत लोनली हो गयी हो न। मैं तुम्हारी उदासी दूर करना चाहती हूँ। अकेले जीना बहुत मुश्किल होता है। मैं तुम्हें आनंद की नयी परिभाषा समझाना चाहती हूँ सेफ़-सैक्स।”9 नताशा को डौरोथी की बातें समझ में तो आ रही थी। मन अनेक संकोचों से उथल-पुथल हो रहा था। एक बार सिस्टर डौरोथी के निमंत्रण पर उसने अस्तपताल के कॉटेज में जाकर सिस्टर डौरोथी ऐलिजा के संबंधों को देखा था जो कि परेशान करने वाला था – “उसका द्वार अधखुला था। इस कारण में बेझिझक बिना खटखटाए भीतर चली आई। यह एक बड़ा सा कमरा था, जिसकी खिड़की खुली थी। उसके जाली के परदे से छनते सूरज के प्रकाश से कमरा रोशन था। पलंग भी बिछा था और खूँटियों पर कपड़े टँगे थे, परंतु मैंने जो देखा, वह मुझे झकझोर गया।”10 नताशा सिस्टर डौरोथी के बारे में क्या सोचती थी। सिस्टर को यह सब करते देखा तो उसकी आँखें फटी की फटी रही गईं – “सिस्टर डौरोथी की आँखें बंद थीं, परंतु उनकी उंगलियाँ ऐलिजा की खिसकी हुई स्कर्ट में सक्रिय थीं। अजीब-सा चीत्कार अजीब-सी गंध। मैं सारे दृश्य में भौचक्की खड़ी थी। आश्चर्य, उन्हें अपने डूबे हुए आल्हादित उन क्षणों में मेरे आने का, मेरी उपस्थिति का, ज़रा-सा भी भान नहीं हुआ था। मैंने घबराकर परदा छोड़ दिया। मुड़कर भागने लगी।”11 नताशा को उन दिन सिस्टर डौरोथी की अतृप्त मानसिकता का रूप ज्ञात हुआ। नताशा को बार-बार डौरोथी किसी-न-किसी बहाने से बुलाने का क्रम करती पर नताशा कोई कारण कह अपनी जान छुड़ा लेती। एक दिन सिस्टर डौरोथी ने नताशा का रास्ता रोक कर मन से अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करते हुए कहती – “नहीं, नताशा एक बार देखो! कल सैटरडे है, तुम आओ, साथ में चाय पीते हैं। मैं अपनी कॉटेज मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी, ओ.के।” नताशा पति की बीमारी से तो बहुत परेशान थी। इलाज में असफलता मिलने के कारण हिम्मत भी टूट गई थी। ऐसे समय में सिस्टर डौरोथी का शारीरिक-संबंधों के प्रति नए दृष्टिकोण को समझना बहुत मुश्किल था। 

अत: कहा जा सकता है कि आधुनिक समाज में जहाँ एक और समलैगिकता ने अपने पैर चारों तरफ पसार लिए हैं वहीं दूसरी ओर महिला साहित्यकार भी इससे अछूती नहीं रह पाई हैं। महिला उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में खुलकर तो नहीं पर धीमे स्वर में इन संबंधों की बात कही है। लेखिका उषा प्रियंवदा ने अपने उपन्यास में समलैगिकता का खुलकर चित्रण किया है। महिला अब स्वतंत्र है वह जिससे चाहे वैसे संबंध रख सकती है। समाज और परिवार साथ दे सकता है तो ठीक है वरना वह अपने अनुसार ही जीवन यापन करती है। लेखिका शिवानी ने डरे दबे-स्वर में इसका चित्रण किया है तो वही कुसुम अंसल ने अपने उपन्यास में समलैगिकता के प्रभाव से कोई नहीं बच पाया है चाहे शादीशुदा हो या अकेलेपन की व्यथा से पीड़ित अन्य पात्र। आज समाज में समलैगिकता संबंध आम हो गए है। किसी से भी आप कुछ नहीं कह सकते। लोकतंत्र में सबको जीवन जीने की आज़ादी है फिर वह जैसे मर्ज़ी जिए।  

संदर्भ-सूची 

1. कृष्णा अग्निहोत्री –कुमारिकाएँ. पृ. 185
2. शिवानी – श्मशान चम्पा.पृ.107-108 
3. वही-पृ. 108
4. उषा प्रियंवदा-अंर्तवंशी. पृ. 99
5. वही-पृ. 99
6. वही- पृ.105
7. कुसुम अंसल-परछाइयों का समयसार.पृ. 155 
8. वही-पृ-155
9. वही-पृ.94
10. वही-पृ.94 
11. वही-पृ.155

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