होली की हुल्लड़ियाँ - 2 पकबान
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक पवन शाक्य21 Oct 2007
१
आज मगन मन हो गया, देख रसोई ठाट,
थाल भरे पूड़ी-कचौड़ी, ऐस्से, गुजियाँ, चाट,
ऐस्से, गुजियाँ, चाट, लार मुँह में भर आवे,
सूँघ रसोई गंध, मेरो मन अति ललचावे।
कहें ‘पवन’ कविराय, चैन मन को नहिं आबत,
कैसे मन समझाऊँ? कुलाँचे पेट लगाबत।
२
थाल भर कर आ गया, जितने थे पकबान,
दोनों हाथों भर लिये, अच्छे सब सामान,
अच्छे सब सामान, कि खाकर पेट भर गया,
खट्टे-मीठे चाट संग फिर पानी पिया।
कहें ‘पवन’ कविराय, कि भगदड़ पेट में मच गयी,
उठने लगी डकार, बात कछु ज्यादा बढ़ गयी।
३
अब होबै अति सम्मान, जो होली मिलने जाऊँ,
खाने के आग्रह को, कैसे मैं ठुकराऊँ,
गुड़-गुड़ होबै पेट, डकारन जी घबरावै,
चैन भयो बेचैन, हमारो पेट पिराबै।
कहें ‘पवन’ कविराय, कि रंग में भीगे-भीगे,
हो गई यारो शाम, मगर हम ढीले-ढीले।
४
होली के रंग खेलि कें, ठण्डो भओ हुड़दंग,
ऐस्से, गुजियाँ खाय कें, पेट हो गया तंग,
पेट हो गया तंग, और गर्मी अति भारी,
नहीं मिलो पचबाला घर में, भई मुसीबत भारी।
कहें ‘पवन’ कविराय, रात में पाँच बार उठ भागे,
तहूँ न पायो चैन, सुबह कूँ उल्टी करिबे भागे।
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