होलिका दहन
काव्य साहित्य | कविता अलका प्रमोद3 May 2012
मद में सत्ता की हिरणा ने, दिया था धोखा निज बेटे को ।
पर ईश्वर ने जला होलिका, बचा लिया था सत्य धर्म को ॥
आज तो नित्य अनेकों हिरणा, धरम में आग लगाते हैं ।
पाने केा निज स्वार्थ की सत्ता, रिश्तों को झुठलाते हैं॥
बिठा होलिका की गोदी में, अपनों को झुलसाते हैं ।
रंग बिरंगा तन को रंग कर, कलुषित मन को छिपाते हैं ।।
कहाँ छिपा बैठा है नटवर, जो प्रह्लाद बचाता था ।
कहाँ गया जो जला होलिका, धर्म विश्वास दिलाता था।।
शायद रुठ गया है भगवन, हमको उसे मनाना है ।
छिपा हमारी अंतस में है, ढूँढ के बाहर लाना है।।
बदले में लकड़ी के जो हम, अधम की होली जला सकें।
छोड के नफरत के रंगों को, रंग प्रेम का लगा सकें ।।
फागुन तो सच्चे अर्थों में, मिल कर तभी मनाएँगे।
होगी होली तभी सार्थक, जो प्रल्हाद बच पाएँगे।।
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