हम आम आदमी
काव्य साहित्य | कविता लक्ष्मीनारायण गुप्ता7 Dec 2014
वही वही मकड़ जाल
बुनते हैं सुबह शाम
हम आदमी है आम
उठने से सोने तक
कहता हूँ मरा मरा
जानूँ न समझूँ राम।
अन्यों को देख देख
मुँह में न थमे लार
तृषा को नहीं लगाम।
मानव है बगुले सा
रूप धर योगी का
जोड़ता है धन-धाम।
दोष क्यों देते हमें
कुसंस्कारित कर रहे
कलियुग के तामझाम।
रूप आम के तमाम
दशहरी, तोतापरी
चौसा, नीलम, बदाम।
खास लोगों के लिये
कटते पिटते है हम
बने रहते गुमनाम।
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