हम नहीं कहते, कविता कहती है
काव्य साहित्य | कविता सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'23 May 2017
हम नहीं कहते, कविता कहती है
जब वार किसानों पर होते हैं?
श्रमिक मज़दूरी को रोते हैं
बु्ज़दिल, मुसटंडे, साँड बने जब
पके खेत झोपड़ियाँ जलाते
ग़रीब किसानों को धमकाते
चोरी-चोरी पेड़ काटते
विरोध करो तो धमकाते हैं
कहने को हट्टे्-खट्टे
हरामखोर खोटे सिक्के?
घर बाहर देहरी के दुश्मन
उन्नति से जिनकी है अनबन
जब नहीं लगी कोई ठोकर
नहीं होना है कुछ रो-रोकर
कोई तो आगे आये
विवेकानन्द सा पाठ पढ़ायें
दयानन्द सी ज्योति जलायें
अन्धकार से जिनका आलम्बन
खुल जायें गाँठें दुखभन्जन
सरकारी ट्यूबबेल पर कब़्ज़ा
कैसी लोकलाज और लज्जा?
गाँवों की कौन करेगा रक्षा
गाँवों को छोड़ भाग रहे बुद्धिजीवी!
मिली नौकरी अच्छी शिक्षा?
चाहे जहाँ रहो गाँव के लोगों !
भूल न जाना अपनी मिट्टी
लिखते आज तुम्हें यह चिट्ठी,
रोको अत्याचार जो होता
निर्बल लोग सताये जाते
प्रगति की कौड़ी न वे जाने
हम आपस में लड़ शक्ति गँवाते।
निर्धनता से निर्बल हो जाते
आपस में हमको लड़वाकर
शक्तिवान ही लाभ उठाते
एजेण्ट बनाकर वे अपनों को
खेत हमारे वे ले जाते!
अपनी मिट्टी में रहकर हम लुट जाते हैं
हमारी ज़मीन के मालिक वे बन जाते हैं।
समाधान बेरोज़गारी, ग़रीबी का है
सहकारिता-लाभ आपस में मिल रहने का है
श्रमदान हमारा अस्त्र बड़ा है
जब तक पड़ोस घर साफ़ नहीं है
अपना घर भी गन्दा है
यदि पड़ोसी भूखा है,
नहीं बड़े सभ्य कहलाओगे
अपने मन मिट्ठू भले बने हो
पर नायक न कहलाओगे?
धरती बोझ तुम्हारा सहती,
उसको क्या दे पाओगे?
दूजों से जीत बहुत देखी,
कब अपने हृदय जिताओगे?
गाँवों की सत्य व्यथा दस्तक देती है!
हम नहीं कहते, कविता कहती है।
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