अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इमारत जो ढह गई

मास्टर श्याम शर्मा को स्टाफ़ वाले प्राचीन अवशेष समझते थे। वह स्कूल का आख़िरी अवशेष था जो ग्रामीण परिवेश से रूबरू कराता। वह स्कूल की आख़िरी मज़बूत कील थी, जो समय के साथ कमज़ोर अवश्य हुई परंतु जंग से दूर। जिसके लिए स्कूल के दिन कम बचे थे। उसे प्राचीन विचार का व्यक्ति माना जाता। उसने भी दूसरों की तरह इसी मिट्टी में हाथ-पाँव मारे परंतु किसी की आँख की ओर नहीं फेंकी। उसे ज़माने की हवा नहीं लगी। अगर लगती तो स्कूल को अपना घर नहीं समझता। अपने बालकों को पब्लिक स्कूल में भेजता। स्कूल के अध्यापकों को इस बात से परेशानी होती कि यह अपने बालकों को यहाँ क्यों लाता है? इन्हीं की वज़ह से सारा दिन पचना पड़ता है। सरकारी स्कूल तो वह स्थान है जहाँ आने के बाद कोई काम नहीं करना पड़ता। अगर बालकों को ज्ञान प्राप्त करना होगा तो एकलव्य की तरह ख़ुद ही प्राप्त कर लेंगे। अगर उन्हें नहीं पढ़ना है तो हम लाख कोशिश करें, वो अनाड़ी ही रहेंगे।

ज्ञान बाज़ार की वस्तु नहीं है परन्तु स्वार्थवश इसका बाज़ारीकरण हो गया, श्याम शर्मा को इस बात से परेशानी होती थी। आख़िर जो ज्ञान का वट वृक्ष है उसे दीमक क्यों चट कर रही है? जिन्होंने कभी शिक्षा का महत्व नहीं जाना, वे जनता के पैसों से शिक्षा का कारोबार करते हैं।

अंग्रेज़ी के अध्यापक बंशीधर की श्याम शर्मा से कम ही बनती। सामने बोलने की हिम्मत नहीं होती। जो सामने बोल नहीं सकते वो पीठ का पीछे बोलते हैं।

"जब श्यामजी रिटायर हो जाएँगे तो क्या स्कूल नहीं चलेगा?"

"क्या स्कूल एक व्यक्ति के सहारे चलता है? सब अध्यापक काम करते हैं। फिर भी गाँव वाले, सरपंच सब श्यामजी की प्रशंसा करते हैं। यहाँ हम झख मारने थोड़े ही आते हैं। क्या यह झुकी कमर और कमज़ोर नज़र ही सब कुछ कर रही है?"

दूसरे अध्यापक ने कहा, "शर्माजी की वज़ह से स्कूल अच्छा चल रहा है। हर साल नामांकन बढ़ता है। रिज़ल्ट अच्छा रहता है।"

"क्या हम नहीं पढाते? हम भी काम करते हैं।"

"शर्माजी जिस उम्र में इतना काम करते हैं, उतना काम हम इस उम्र में नहीं कर पाते।"

"मैं ज़्यादा तो नहीं कहता जिस दिन रिटायर हो जाएँगे तुम्हें अहसास हो जाएगा कि हम भी पढ़ाते हैं। देखना स्कूल फिर भी चलता रहेगा।"

"कहने और करने में फ़र्क होता है बंशीधरजी।"

शर्माजी को रिटायर हुए छः माह ही हुए थे कि स्कूल का नज़ारा ही बदल गया। जो मास्टर समय से पहले आते थे और समय के बाद जाते थे, उन्होंने घड़ी ही बदल ली। स्कूल की पढ़ाई की किसी को फ़िक्र नहीं। अब देश का फ़िक्र करने लगे। अबकी बार किस पार्टी के नक्षत्र अच्छे चल रहे हैं। किस की नैया डूबेगी। जनता की बागडोर कौन सम्भालेगा? पढ़ाई की जगह मुद्दों ने ले ली। पढ़ाई के कालांश कम हो गए खेल के बढ गए। शर्माजी ने बीच-बीच में अध्यापकों को आगाह किया कि ग्रामवासियों की नज़र में स्कूल का शैक्षिक वातावरण कमज़ोर हो रहा है। बच्चों पर ध्यान दो। जबाब मिलता सरकार ने जिस काम के लिए हमें नियुक्त किया है उस काम को ईमानदारी से कर रहे हैं। शर्माजी ने कहा फिर बच्चों की शिक्षा स्तर कमज़ोर क्यों हो रहा है। शिक्षा की बुनियाद अध्यापक के समर्पण और विश्वास पर टिकी होती है; तुम दोनों खो रहे हो। अगर ऐसा ही रहा तो ये बिल्डिंग ही शेष रहेगी।

सुधार की चाहत रखने वाले दूसरों से प्रेरणा लेते हैं। विनाश करने वालों को शुभचिंतक ही बैरी नज़र आता है। हर अभिभावक अपने बालक को अच्छी शिक्षा देना चाहता है। जहाँ ज्ञान में कंजूसी होती है वहाँ ज्ञान पाने वाले भी नहीं मिलते। जब स्कूल में नामांकन नाम मात्र का रह गया, स्कूल को दूसरे स्कूल में "मर्ज" कर देने का आदेश हुआ।

अध्यापकों की आँख खुली - इस इमारत को ढहने से कैसे बचाया जाए?

जो इमारत खंडहर हो जाती है, वह ढहती है खंडहर का पुनःनिर्माण नहीं होता।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं