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इतिहास बनाम हिंदी वीरकाव्य

काव्य और इतिहास दोनों ही मानव जीवन को समझने में परस्पर सहायक हैं। काव्य अपने युग के इतिहास से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। काव्य अथवा साहित्य की कोई भी विधा हो, वह अपने युगीन प्रवृत्तियों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी युग की प्रवृत्ति अपने समकालीन इतिहास को व्यक्त करती है। साहित्य प्रवृत्तियों के माध्यम से किसी युग के इतिहास को समझने में सहायक होती है। संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशी भाषओं के साहित्य में मिथकीय चेतना के साथ साथ इन ऐतिहासिक तथ्यों की भी भरमार है। साहित्यिक ग्रंथों में व्याप्त मिथकीय एवं ऐतिहासिक तथ्य इतिहास-लेखन की कच्ची सामग्री के रूप में हैं। इन सामाग्रियों को अनेक भ्रामक कारणों से अब तक नाकारा जाता रहा है।

साहित्य के आधार पर भारत वर्ष का इतिहास अब तक नहीं लिखा गया है। यह ठीक है कि जैसे अन्य देशों में इतिहास लेखन की परंपरा प्राचीनकाल से रही है, वैसी परंपरा भारत वर्ष में नहीं रही। भारत वर्ष का इतिहास आधुनिक भारतीय इतिहासकारों की वैचारिक उपज है।  भारतीय इतिहासकारों ने पुरातात्विक स्त्रोतों के साथ-साथ कुछ साहित्यिक ग्रंथों (प्राचीन काल के संदर्भ में) से भी सहायता ली है। इस दृष्टि से अनेक साहित्यिक ग्रंथों का अध्ययन हुआ है; पर यह कार्य अभी भी नगण्य है। अतएव इतिहासकारों ने साहित्यिक ग्रंथों की उपेक्षा की है; किन्तु इन ग्रंथों से इतिहास पर कुछ नया प्रकाश पड़ सकता है और इस दृष्टि से इतिहास लिखा जाना चाहिए, इस दिशा में अब तक कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ है।

हिंदी वीरकाव्यों का संबंध इतिहास से है। इन वीरकाव्यों के नायक ऐतिहासिक पुरुष हैं। अतः ये वीरकाव्य, काव्य और इतिहास का समन्वय है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इन काव्यों की विषय-वस्तु ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित है। वीरकाव्यों का विश्लेषण ऐतिहासिक आलोक में किया जाना चाहिए। हिंदी साहित्य के इतिहास में इन वीरकाव्यों का उचित मूल्यांकन नहीं हुआ है। वीरकाव्यों का मूल्यांकन साहित्यिक आधार पर किया गया है और इस अर्थ में वीरता के आदर्श के अनुकूल जो काव्य खरा उतरा है, उसे साहित्येतिहास में स्थान मिला है। 

हिंदी साहित्य के इतिहास में उल्लिखित वीरकाव्यों के मूल्यांकन का आधार साहित्यिक है; पर इसका विश्लेषण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किया गया है। अत: इन वीरकाव्यों को विश्लेषित करते समय साहित्येतिहासकारों एवं आलोचकों का ध्यान वीरकाव्यों के ऐतिहासिक पक्ष की ओर भी गया है। साहित्येतिहासकारों और आलोचकों ने इन वीरकाव्यों का विवेचन करते समय इसे इतिहास के मूल सामाग्री के रूप में नहीं देखा है। वे इन काव्यों को अन्य ऐतिहासिक काव्यों के आधार पर परखते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इन काव्यों को इतिहास की मूल सामग्री मानते हुए इसका अध्ययन नहीं हुआ है। इस दृष्टि से इन ग्रंथों का विश्लेषण सिर्फ़ उनके प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता के प्रश्न तक ही केन्द्रित है। इतिहास-लेखन की मूल सामग्री के रूप में, ये काव्य कितने उपादेय हैं? इन्हें प्रामाणिक मानना चाहिए या नहीं? प्रामाणिकता के आधार क्या होने चाहिएँ? आदि प्रश्न स्पष्टत: शोध का विषय हैं, साथ ही साथ ये प्रश्न विवादित भी हैं; पर इस बात को नाकारा नहीं जा सकता है कि इन काव्यों में इतिहास की मूल सामाग्री उपलब्ध नहीं हैं।

    आधुनिक इतिहासकारों का इतिहास-दर्शन के संबंध में जो मत है, वह हिंदी वीरकाव्य के कवियों का नहीं था; पर उनका कोई मत ही नहीं था, यह बात भी सही नहीं है। आधुनिक इतिहासकारों ने इन काव्यों को ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं माना है क्योंकि वे इनके इतिहास दर्शन से सहमत नहीं हैं। इतिहास दर्शन के इन मन-मतांतरों के बीच तालमेल नहीं बैठा पाने के कारण हमारे बहुत से प्राचीन ग्रंथ उपेक्षणीय हैं। इन्हीं उपेक्षणीय ग्रंथों में हिंदी वीरकाव्य भी सम्मिलित है। माना कि इन वीरकाव्यों में उपलब्ध ऐतिहासिक वृत्ति भ्रांतियों से भरा है किन्तु वह सर्वथा त्याज्य नहीं है। उन काव्यों में  युग विशेष से संबंधित ऐतिहासिक दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है और इस दृष्टिकोण ने युग विशेष को प्रभावित किया है। आज आवश्यकता उनके दृष्टिकोण को समझने और उनके द्वारा लिखे गए ऐतिहासिक काव्य की नये सिरे से मूल्यांकन करने की है। इस मूल्यांकन से विगत वर्ष की उपलब्धियों के साथ ही साथ उस युग भी सीमाओं का भी ज्ञान होगा। यह ज्ञान न सिर्फ वर्तमान बल्कि भविष्य को सँभालने में भी सहायक होगा। 

वीरकाव्य का अध्ययन करना अपने अतीत को ही पुनर्निरीक्षण करना है। हिंदी वीरकाव्य इस दृष्टि से आज भी उपेक्षणीय है। उपेक्षणीय इस अर्थ में है कि इन काव्यों में उपलब्ध इतिहास के मूल तथ्यों का अब तक पूरा-पूरा उपयोग नहीं हो पाया है। इस संदर्भ में डॉ. राजमल बोरा लिखते हैं – “...वीरकाव्य हमारे लिए इतिहास की मूल सामग्री प्रस्तुत करते हैं और यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इनका विश्लेषण प्रस्तुत करें, तो इससे भारतीय इतिहास और संस्कृति का वैज्ञानिक विवेचन संभव है।”1

    वीरकाव्यों के लेखक अपनी रचनाओं में काव्य-नायक की जिस यथा-स्थति का विवरण प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर उस कालखंड की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि स्थति-परिस्थिति को परखा जा सकता है; पर यह स्पष्ट है कि इन वीरकाव्यों का संबंध काव्य-नायक की समकालीन राजनीतिक घटनाओं से अधिक है। यहाँ यह कह देना भी आवश्यक है कि “भारत वर्ष का ज्ञात इतिहास पराजयों का इतिहास है। जिसे इतिहास के नाम पर हम पढ़ते आये है, वह लगातार आने वाले आक्रमणकारियों का इतिहास है। ...इन आक्रमणकारियों ने निष्क्रिय अपरिवर्तनशील समाज की निश्चेष्टता की मदद से अपने साम्राज्य कायम किए। इन आक्रमणकारियों का सामना भारतीय नरेशों ने किया है। हिंदी के वीरकाव्यों में जिन भारतीय नरेशों को काव्य का आधार बनाया गया है, वे नरेश बाहर से आने वाले आक्रमणकारियों का विरोध करने वाले हैं। पराजित होने पर भी इन नरेशों ने संघर्ष जारी रखा है। राजनीतिक दृष्टि से हार स्वीकार करने पर भी इन्होंने अपने सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा की है। इन मूल्यों की रक्षा में कितनों ने अपने प्राण दिए हैं। भारत वर्ष का इतिहास त्याग और बलिदान दोनों का इतिहास भी है। इस ओर प्राय: कम ध्यान दिया गया है। इसका कारण यह रहा है कि इतिहास पढ़ते समय हमारी दृष्टि आक्रमणकारियों के इतिहास की ओर रही है और यह दृष्टि रहना स्वाभाविक भी था क्योंकि वे दिल्ली के शासक रहे हैं। आक्रमणकारियों के इतिहास को छोड़कर भारत के अनेक राजवंशों का इतिहास देखा जाए तो शौर्य एवं वीरश्री की अनेक गाथाएँ देखने को मिलेंगी। आवश्यकता इन्हें देखने की है।”2 

भारत वर्ष का इतिहास अनवरत संघर्षों का इतिहास रहा है। वीरकाव्यों के नायक अपने युग के संघर्षों में भाग लेते रहे हैं। ऐसी स्थति में इन वीरकाव्यों का विश्लेषण ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि  परिप्रेक्ष्य में करना चाहिए। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं होगा कि इन वीरकाव्यों में उपलब्ध वीरता का आदर्श काव्य-नायक के समकालीन इतिहास-बोध एवं व्यवहारिकता के आधार पर निश्चित नहीं हुआ है। इन वीरकाव्यों के नायक अपने समकालीन समय से कम एवं अतीत की गौरव गाथाओं से अधिक प्रभावित हुए हैं । कवि भूषण कृत निम्न काव्य-पंक्तियों में इन परिदृश्य को देखा जा सकता है – 
                            दशरथ राजा राम भौ बसुदेव के गुपाल।
                            सोई प्रगट्यौ साहि के श्रीसिवराज भुआल॥
                            उदित होत सिवराज के मुदित भए द्विज-देव।
                            कलियुग हट्यो मिट्यो सकल म्लेच्छन को अहमेव॥3 

हिंदी वीरकाव्यों के कवियों और उनके काव्य-नायकों का अपने समकालीन समय से दुराव एवं प्राचीनता से अधिक लगाव के कारण ही समकालीन ऐतिहासिक तथ्यों को मिथकीय आवरण में प्रस्तुत किया गया है। समसामयिक इतिहास-बोध एवं व्यवहारिकता के अभाव के कारण इन कवियों एवं इनके आश्रयदाता में संकुचित राष्ट्रीयता या क्षेत्रीयता की भावना प्रबल रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग में अखिल भारतीय स्वरूप के जागरण की  जो अलख जगी थी, वह हिंदी साहित्य के रीतिकाल में मंद गति से बहने लगी थी और अंतत: 1857 ई० तक पहुँचते-पहुँचते खर्राटे लेने लगी। दूसरी बार यह चेतना पुन: 1857 ई० में दिखाई देती है। इस दूसरी चेतना से प्रभावित विविध काव्य ग्रंथों में भी वीरकाव्य की मौजूदगी है; पर उसमें संकुचित राष्ट्रीयता या क्षेत्रीयता की बदबू नहीं, बल्कि एक अखिल भारतीय स्वरूप की अवधारणा एवं राष्ट्रीयता की खुशबू है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि रीतिकालीन और आधुनिक कालीन वीरकाव्यों में जिस बदबू और ख़ुशबू का ज़िक्र है, वह युगीन परिस्थितियों की देन है। कुछ वैचारिक द्वन्द्व होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि आधुनिक कालीन वीरकाव्यों में जिस अखिल भारतीय स्वरूप की अवधारणा एवं राष्ट्रीयता की चर्चा है, उसका बीजरोपण अशोक, अकबर, महाराणा प्रताप एवं शिवाजी जैसे महान व्यक्ति के व्यक्तित्व में देखा जा सकता है।

संदर्भ:

1.   हिंदी वीरकाव्य; डॉ. राजमल बोरा, पृ० – 13
2.   हिंदी वीरकाव्य; डॉ. राजमल बोरा, पृ० – 195
3.   भूषण ग्रंथावली; विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पृ० - 130

     

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टिप्पणियाँ

A Singh 2019/05/15 06:03 PM

Well done and carry on

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