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इत्र की शीशी

उसके जाने के बाद बहुत देर तक कमरे से ठीक वैसी ही ख़ुशबू आ रही थी, जैसी उसके कपड़ों से। तीनों बहनें उस विशेष ख़ुशबू से एकदम प्रसन्न हो गयी थीं, ये उनका सुगंध की दुनिया से पहला परिचय था। दृश्य, ध्वनि और स्वाद के आनंद से तो वे अवगत थीं, पर गंध भी इस तरह ताज़गी और आनंद का एहसास कराती है, ये आज ही पता चला। सुमन ने जब पेन उठाया तो ख़ुशी से चहककर कहा– “पेन से भी बहुत ख़ुशबू आ रही है।“ तीनों बहनों को जैसे ख़ुशी का ख़ज़ाना मिल गया था, तभी दादी ने ख़ुशी के गुब्बारे में पिन चुभोते हुए कहा- “पेन को फेंक दो, बिस्तर की चादर धुलने के लिए दे दो, और सब मिलकर अभी तुरंत कमरा धो दो।“ तीनों उदास होकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं, क्योंकि वे भली-भाँति जानतीं थीं कि इस लुटते ख़ुशी के ख़ज़ाने को बचा पाने में वे तीनों ही असमर्थ हैं। माँ से भी मदद की कोई उम्मीद नहीं, क्योंकि बाक़ी मामलों में माँ दादी से असहमत हो भी जाती हैं, लेकिन जहाँ भी लड़कियों को क़ाबू में रखने की बात आती है, तो वे दादी की ही सुनती हैं, साथ ही यह कहना नहीं भूलतीं कि सब पिता के सिर चढ़ाने का नतीजा है, वरना वो सबको दिखा देती की बेटी पाली कैसे जाती है, और कैसे उन्हें साँचे में ढाला जाता है? नीलू ने मन ही मन सोचा- पेन को वह खिड़की के नीचे गिरा देगी और बाद में उठा लेगी, कल स्कूल में सहेलियों से उस सुगंध को साझा करेगी, क्योंकि वे सब अपनी हर ख़ुशी, दुःख, अनुभूति, भोजन व सामान सदैव साझा करती हैं। ये तो अच्छा ही हुआ कि पिता जी घर पर नहीं थे, और उस अप्सरा जैसी युवती ने एक काग़ज़ और क़लम देने को कहा ताकि वह उनके लिए नोट लिखकर छोड़ सके। अभी तक नीलू उनके सौन्दर्य और मीठी आवाज़ के प्रभाव से मुग्ध सी है। नीलू ने गहरी साँस ली, जैसे उस सुगन्ध को अपने भीतर पूरी तरह से भर लेना चाहती हो, ताकि कमरा धुल जाने के बाद भी ख़ुशबू से वंचित न होना पड़े। आज तक ऐसी ख़ुशबू से सामना नहीं हुआ था, और आज जब ख़ुशबू स्वयं चलकर उनके घर आ गयी है, तो दादी वह भी छीन लेना चाह रही है। पर माँ और दादी ने पिता से नज़रें बचाकर ये घुट्टी तो पिला ही दी थी कि बड़ों की बात माननी ही पड़ती है, और उसी प्रशिक्षण का प्रभाव था कि वे दादी की अवज्ञा नहीं कर सकती थीं, इसलिए दादी की हुक्म का पालन हुआ। घर की सफ़ाई करती हुई नीलू यही सोच रही थी कि खिड़की से फेंका गया पेन कोई उठा न ले, और सहेलियाँ उस दिव्य-अनुभूति से वंचित न रह जाएँ। साफ़-सफ़ाई के बाद दादी ने चैन की साँस ली और कहा- “जिस-तिस को मत अंदर आ जाने दिया करो।”

नीलू फिर सोच में पड़ गई-

]“जिस-तिस?” यदि ये जिस-तिस है, तो परी किसे कहेंगे?

हिम्मत जुटाकर बोली- “दादी मुझे आपकी बात समझ नहीं आती है? उस दिन जब रमकलिया और उसके बेटे को मैंने सोफ़े पर बिठाया था, और उसके बेटे ने शूशू कर दिया तो आपने कहा था कि वे छोटे लोग हैं, उन्हें अंदर मत आने दिया करो। मैंने आपसे पूछा था कि छोटे लोग कौन होते हैं, तो आपने कहा था कि जिनके कपड़े गन्दे रहते हैं, और जिनके शरीर से बदबू आती है।“

“पर?”

“दादी?”

“आज क्या हुआ?”
“इनके शरीर से तो बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही थी, और कपड़े भी किसी रानी–महारानी जैसे थे। फिर इन्हें भी नहीं? अबसे दादी आप ही दरवाज़ा खोला करना और किसे अंदर आने देना है, किसे नहीं ध्यान रखना। आपके हुक्म पालन में हम तीनों ही थककर चूर हैं।“ दादी के चेहरे का भाव सख़्त होता देख नीलू दबे पाँव वहाँ से धीरे–धीरे दूसरे कमरे की ओर बढ़ गई।

इतने में पिताजी के मोटरसाइकिल की जानी– पहचानी आवाज़ सुनकर तीनों बहनें दरवाज़े की तरफ दौड़ीं। नीलू के मन में अभी भी पेन की चिंता थी, पर डर था कि अभी पेन लाने पर फिर से ख़ुशबू का झोंका आ जाएगा और दादी कोई न कोई सज़ा सुना देगी। दादी भी पता नहीं इतना शासन क्यों रखती है, हम तीनों पर।
पिताजी के घर में घुसते ही उन्होंने सवाल दागा- “वो चुड़ैल क्यों आई थी? यदि उसे तुझसे कोई काम है तो कचहरी जाकर मिला करे। ऐसी औरतों के घर में आने-जाने से लड़कियों के संस्कार ख़राब होते हैं।”
“अम्माँ कैसी बातें कर रही हैं? अपने मिश्रा जी की बेटी है वह। अपनी कंचन की बचपन की प्यारी सहेली। उसके लिए ऐसा कैसे बोल सकती हैं आप? आख़िर अपने गाँव की बेटी है। आप ही कहा करती हैं न कि बेटा होता है घर का और बेटी पूरे गाँव की।”
“मर गई अपने गाँव–समाज के लिए वह। पिता, चाचा, भाई, पति, ससुर, बेटा सबके लिए। ऐसी ही लड़कियाँ कुलबोरन होती हैं, दोनों खानदानों की नाक कटवा डाली। अब तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्तक़बा की रखैल है। ऐसी पापिन औरतों को तो सड़क के चौराहे पर फाँसी दे देनी चाहिए, न बेटे के लिए ममता न बाप – ससुर के इज्ज़त की चिंता?”

“अम्माँ बस करिए। बहुत अन्याय किया है उसके साथ उसके पति, सास-ससुर, ननद, देवर सब ने। तंग आकर अपनी जान बचाने के लिए उसे वह घर छोड़ना पड़ा। उन लोगों ने ही उस का बच्चा भी उसे नहीं दिया ताकि वह उनके चँगुल में सदा फँसी रहे। क्या मदद की भाई और पिता ने। अकेला मुश्ताक़ ही है, जिसने उसे उस नर्क से निकाला। ऊपर से, उसका पति तलाक़ भी नहीं दे रहा है, उन लालची भेड़ियों के लिए तो पूनम एक बाल्टी है, जिसके द्वारा वे मिश्रा जी के घर रूपी कुएँ को पूरा ही सुखा डालना चाहते हैं। मिश्राजी का मानना है कि बेटी का विवाह कर दिया, तो अब उसकी अर्थी ही ससुराल से निकलेगी, चाहे स्वाभाविक मौत हो या फिर हत्या। बेटी की ज़िन्दगी से बड़ी जब बाप की इज़्ज़त हो जाए तो बेटी के पास क्या रास्ता बचता है? क्या उसे ज़िंदगी की तलाश का भी अधिकार नहीं? ज़िंदगी खानदान और बड़े नाम की मोहताज नहीं, वह तो मोहताज है, साँसों की। साँस पर किसी जाति–धर्म का पहरा न कभी हो पाया है, न हो पाएगा।

“यदि मुश्ताक़ से उसे सहारा, सुरक्षा और प्रेम मिला, तो क्यों न रहे वह उस के साथ? उसे पूरा अधिकार है, उन लोगों से मुक्त हो, एक नई ज़िन्दगी शुरू करने का। अम्माँ पूनम बहुत अच्छी है, पर उसके पति को उसकी बिल्कुल क़द्र नहीं है।”

“बेटा लगता है उसकी मोहिनी मूरत का जादू तुझ पर भी चल गया है।”

“अम्माँ…!”

इतने ज़ोर से चीखे थे पिता जी कि तीनों बहनें काँप गईं।

“क्षमा चाहता हूँ अम्माँ। पर आपने बात ही ऐसी कर दी।”

पर दादी पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ, न तो पिता जी के चीखने का और न ही क्षमा माँगने का। वो तो अपनी रौ में बोलती ही चली जा रही थीं।

“बेटा अगर मुझे पता होता कि तू ऐसी कुलटाओं की तरफ़दारी करेगा, तो कभी तुझे वकालत की पढ़ाई नहीं करने देती। गाँव की पुरोहिती भी गई और जीवन भर का धरम भी गया।”

“अम्माँ वकील तो वो भी हैं जो पूनम के पति और सास–ससुर की तरफ़दारी कर रहे हैं। सही मायने में तो वही हैं वकील। अब समझ रहा हूँ कि मैं तो वकील बनने के लायक़ ही नहीं हूँ, क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ है मेरा स्वाभाव, जो किसी पेशे से मेल ही नहीं खाता। सच बताऊँ तो पुरोहिती भी मेरे बस की नहीं थी। इन रोज़गारों के बस नाम ही अलग हैं, होती तो सबमें झूठ की ही खेती है।”
“हाँ बेटा, आचार्य–पुरोहित और धर्म की रक्षा करने वाले झूठे और कुलटाओं का पक्ष लेने वाले सच्चे। मुझे सिखाने चले हो। घोर कलयुग। हरे राम! हरे राम! अपनी तीन–तीन बेटियाँ जवानी की दहलीज़ पर पाँव रख रही हैं, उनके संस्कार बिगड़ जाएँगे, कुछ तो होश करो। उस कलमुँही की तरफ़दारी का मतलब है– समाज से वैर। जाति से निष्कासन भी मिल सकता है, फिर कैसे करोगे इनका ब्याह? वैसे भी तुझे जात–धरम से क्या? आगे तेरी मर्ज़ी! मैं कौन सा यह सब देखने के लिए बैठी रहूँगी? इतना बोलकर दादी माला फेरने लगी। यह एक संकेत था कि वो अपना निर्णय सुना चुकी हैं आगे और बहस नहीं चाहतीं। पिता जी सोच में डूबे बैठे थे। स्वभाव से भी शांत और गम्भीर थे, माँ से असहमति भले हो जाती हो, पर उनका आदर बहुत करते थे। माँ की तरफ़ से बहस समाप्ति के संकेत को समझते हुए, चुप रह गए। पर यह शांति बाह्य थी, मन में विचारों का सैलाब उमड़ रहा था, और वे उसमें डूबते जा रहे थे।

नीलू की माँ थाली में भोजन ले आईं थीं, पिता ने पूछा, “बच्चों ने खाना खाया?”

इसपर माँ ने कहा, “बेटियों को इतना सर मत चढ़ाइए, कल को पराए घर जाएँगी। बाप की बिगड़ी हुई दुलारी बेटियाँ ही बाप की नाक कटा लेती हैं।“

“कैसी माँ हो तुम? अपनी बेटियों का लाड़-प्यार अच्छा नहीं लगता?”

“अच्छी माँ हूँ, तभी उनका भला सोच रही हूँ। बेटी और गाय खूँटे से बँधी ही भली होती हैं।“

“किस-किससे लड़ूँ मैं? और कैसे? अपनी पत्नी और माँ तक को अपनी बात समझा नहीं पाता, दुनिया को क्या ख़ाक समझा पाऊँगा।“

तब तक तीनों बेटियाँ पिता को घेर कर बैठ गईं थीं, और पिता जी कौर बनाकर नीलू को खिलाने लगे थे।

“और बिगाड़ो, मेरा क्या? जब नाक कटेगी तब पूछूँगी”

माँ बड़बड़ाती हुई चली गई थीं, पिता-जी तीनों बेटियों को खिला रहे थे।

तीनों बहनों ने पिता को बता दिया था कि वे बड़ी होकर क्या बनेंगी। नीलू ने कहा था डॉक्टर, रूपा ने साइंटिस्ट और सुमन ने अपने पापा की ही तरह ईमानदार वकील।

नीलू, रूपा और सुमन तीनों दादी के साथ लेटी थीं, रूपा और सुमन तो कब की सो चुकी थीं, पर नीलू को नींद नहीं आ रही थी। बात चाहे तिल भर भी छोटी क्यों न हो, माँ और दादी उसका संबंध हम तीनों बहनों के बिगड़ने से जोड़ देती हैं। ये औरतें होकर भी नहीं जानती कि जिन औरतों को समाज बुरा कह रहा है उनका यही कसूर है न कि उन्होंने मौत और ज़िंदगी में से ज़िंदगी को चुना।

∙∙∙

मोबाईल के रिंग टोन से यादों में खोई डॉ. नीलू चौंक सी गईं..... डॉ. अनुराग कॉलिंग। अनुराग का नंबर मोबाईल पर देखते ही नीलू खिल उठती थी, पर अभी यादों का ऐसा बवंडर आया था जिसमें नीलू डूब सी गई थी, होठों ही होठों में बड़बड़ाई... वह खोई हुई ख़ुशबू......आज मिल ही गई। पर अनुराग को कैसे पता चला कि मुझे यह पसंद है। चाह कर भी आज तक नहीं ख़रीद सकी थी, पहले माँ और दादी के डर से और बाद में जिस भी दुकान में ढूँढ़ने जाती, सैंकड़ों शीशियाँ सूँघ कर भी वह एहसास नहीं ढूँढ़ पाती, नाम तो पता था नहीं कि कह कर माँग ले। शीशी को ध्यान से देखने लगी, शायद उस पर लिखा हो, शीशी काफ़ी पुरानी लगी, लेबल का एक कोना फट गया था और जो दूसरा कोना बचा था उस पर उर्दू में कुछ लिखा था, मन में फिर छटपटाहट उठी-काश! फ़रहीन की वह कोशिश पूरी हुई होती। कितने जतन से उसने नीलू समेत दस सहेलियों को लंच आवर में टिफ़िन ख़त्म करने के बाद उर्दू सिखाना शुरू किया था, पर दूसरी क्लास में पढ़ने वाली चचेरी बहनों ने उसकी यह कोशिश देख ली थी और घर जाकर माँ को बता दिया था। अगले दिन से फ़रहीन ने अपनी क्लास बंद कर दी, और बहुत पूछने पर कारण बताया और साथ ही यह मजबूरी भी कि यदि चाची की बात नहीं मानूँगी तो वो मुझे वापस गाँव भेज देंगी, और मेरी पढ़ाई रुक जाएगी। फ़रहीन को ख़ुशी देने वाली हर गतिविधि उसकी चचेरी बहनें रुकवा देती थीं, सबसे पहले उसका खेल बंद हुआ था, उसके खेल छोड़ देने और अकेले उदास बैठे रहने पर इन दस सहेलियों ने भी खेल से संन्यास ले लिया था, और फ़रहीन का मन लगाने के लिए पूरे लंच आवर में उसके साथ बैठने लगी थीं। सहेलियों के इस ग्रुप को स्कूल में ‘एकादशी’ नाम दिया गया था, नीलू आज तक नहीं जान पायी कि नामकरण किसने किया था पर शिक्षकों को भी इस बात का पता था। फ़रहीन गर्मी के दिनों में खाली समय में क्रोशिया और धागे से कुछ बुना करती और ठंड में ऊन-क्रोशिया या ऊन-सिलाई से स्वेटर-टोपी वगैरह बुनती रहती थी। उसने एक दिन भावुक होकर कहा था- “अब्बा के गुज़र जाने के बाद तो मैं ही माँ और भाई-बहन का सहारा हूँ। स्कूल से जाने के बाद और सुबह आने से पहले घर का सारा काम मैं ही करती हूँ, ताकि चाची मुझ पर पसीजती रहें, और मुझे अपने घर में रहने दें। इतवार को अपनी बुनी हुई चीज़ें दुकानदार को दे आती हूँ, जो पैसे देता है, रख लेती हूँ।

रोज़ आधी रात तक जाग कर बुनती हूँ, मुझे पता है वह इन सामानों पर जितना कमाता है उसकी चौथाई से भी कम रक़म मुझे देता है, पर क्या करूँ। समान ख़ुद से बेचूँगी तो स्कूल छूट जाएगा। उनमें से भी आधे पैसे चाची रख लेती है और एक चौथाई मैं अपना ख़र्च चलाने के लिए रखती हूँ और दूसरी एक चौथाई माँ को भेजने के लिए जोड़ती हूँ। हर महीने की एक तारीख़ को माँ आती हैं और वो जोड़े हुए रुपए मैं उन्हें दे देती हूँ। वो कहती हैं कि उन्हें मुझ पर नाज़ है। मैं कुछ नहीं कह पाती, बस यह सोच कर रह जाती हूँ - एक तरफ़ मेरी चचेरी बहनें हैं और दूसरी तरफ़ मैं। वो सुख भोगने के लिए जन्मी हैं और मैं दुख। मेरे साथ नौकरानी जैसा बर्ताव करती हैं, जबकि दोनों मुझसे छोटी हैं। चाचा के सामने चाची मुझे गालियाँ देती हैं और चाचा कुछ नहीं कहते, वही चाची माँ के सामने मेरी तारीफ़ें करती है, मैं फिर भी कुछ नहीं कहती। मैं हर क़ीमत पर अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती हूँ, पता नहीं कब चाची घर से निकाल दे और पढ़ाई छूट जाए।“

फ़रहीन का स्कूल आना अचानक बंद हो गया था, दसों सहेलियों को नीलू के पते पर ही सामूहिक पत्र मिला था, जिसमें उसने लिखा था- “तुम सहेलियाँ मेरे जीवन की पहली उपलब्धि हो, पहली कमाई हो, आगे देखती हूँ ख़ुदा मेरी झोली में क्या-क्या देता है? मन में भरोसा है हम दुबारा मिलेंगे। नीलू वो ख़ुशबू वाला पेन जो नमूने के लिए तूने दिया था कि ऐसी ख़ुशबू मिले तो मेरे लिए ले आना, वो अब तेरी निशानी बनकर है मेरे पास। हाँ यदि यह ख़ुशबू मिली तो मैं पार्सल करूँगी। बार-बार तो नहीं लिख पाऊँगी क्योंकि चाची ने माँ का कान ऐसा भरा है कि माँ ने मुझ पर चौबीस घंटे का पहरा रखा हुआ है। पहला आश्चर्य इस बात का है कि इतनी सेवा के बाद भी मैं चाची के लिए एक बोझ ही रही और दूसरा कि माँ को मुझसे ज़्यादा चाची की बातों का भरोसा है। बहुत मुश्किल से ये पत्र लिख पा रही हूँ। जब भी निराश होती हूँ, तुम लोगों को याद करके मन को समझाती हूँ कि अभी मेरे जीवन में आशा है।

शब्बा ख़ैर!

कॉलबेल की आवाज़ से नीलू हड़बड़ा गयी, खिड़की से झाँक कर देखा अनुराग ही था, दरवाज़ा खोलते ही अनुराग ने कहा – “नीलू, ठीक तो हो न! रो रही हो, क्या हुआ?”

अचानक नीलू को एहसास हुआ कि फ़रहीन की याद में उसके आँसू बह निकले थे, कॉलबेल बजने पर वह ऐसी हड़बड़ाई कि आँसू पोंछना भूल गई थी।

“तुम बैठो, मैं अभी हाथ-मुँह धोकर आती हूँ।“

नीलू ने वापस आकर देखा कि अनुराग के चेहरे पर बेचैनी के भाव साफ़ दिख रहे हैं। किचेन की तरफ़ मुड़ी ही थी कि अनुराग ने कहा- “पहले इधर आओ नीलू, बर्थडे गर्ल मुस्कुराती हुई अच्छी लगती है। तुमने सुबह कहा था कि यदि शाम में संभव हुआ तो डिनर करवाओगी। तुम तो कह कर भूल गयी पर मैं ऐसे सुनहरे अवसर सुन कर नहीं भूलता। फोन करके जानना चाहा पर तुमने फोन ही नहीं उठाया। अब आ ही गया हूँ तो बता दो कि मेरा डिनर संभव है या नहीं?”

“अनुराग तुम मेरी बातों को इतना सीरियसली मत लिया करो। आज कुक नहीं है, और चावल-आटा भी ख़त्म है। अब मैं सामान लाऊँ, फिर खाना बनाऊँ इतने में बारह बज जाएँगे। छोटा शहर है, कोई ढंग का रेस्ट्राँ नहीं है। हम दोनों को सभी जानते हैं इसलिए बाहर जाकर किसी छोटे से होटल में खा भी नहीं सकते।“

“अच्छा मुझे डिनर का न्यौता देकर कुक को छुट्टी पर भेज दिया, और घर का राशन पड़ोसियों को बाँट दिया। मेरी छोड़ो, ख़ुद क्या खाओगी, डॉ. नीलू? ऐसे मनाती हो तुम अपना जन्मदिन! यार! मैं क्यूँ पागल हुआ जा रहा हूँ तुम्हारे बर्थडे के लिए। डॉ. नीलू! मुझे नहीं पता था कि आपका निमंत्रण ऐसा होता है। सुबह विश किया, तो तुम्हारे चेहरे पर कोई भाव ही नहीं। अपने जीवन की सबसे अनमोल चीज़ आज तुम्हें गिफ़्ट कर दी पर तुम्हारी ओर से एक थैंक्स भी नहीं; मुझे तो लगता है तुमने गिफ़्ट खोलकर देखा भी नहीं।“

नीलू के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई; जब अनुराग को ग़ुस्सा आता है तो वह उसे डॉ. नीलू कहता है।

“सुनिए डॉ. अनुराग! अपना बर्थडे कोई ख़ुद नहीं मनाता, उसके दोस्त व रिश्तेदार मनाते हैं। मम्मी-पापा व बहनों ने फोन पर विश कर दिया, आपने भी सुबह गिफ़्ट देकर विश कर दिया। जिस वक़्त आपने विश किया, एक सीरियस पेशेंट का ऑपरेशन करने ओटी में जा रही थी, इसलिए परेशान थी। कुक अचानक गायब हो गया बिना कुछ बताए, तो इसके लिए मैं ज़िम्मेदार नहीं, मोबाईल वो रखता नहीं कि फोन करके पूछ लूँ, और जहाँ तक राशन की बात है, वो इसलिए नहीं चेक कर पाई क्योंकि आपके गिफ़्ट को देखकर मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ। मैं नहीं जानती थी, आप मुझे इतना समझते हैं।“

“ये आप-आप क्या लगा रखा है?”

“शुरुआत तो तुम्हीं ने की है।“

“मुझे ग़ुस्सा आ गया था।“

“और मुझे प्यार आ रहा है।“

“ये तुम कह रही हो नीलू? मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है। जानती हो? पिछले बारह साल से तुम्हें ये कहने की हिम्मत जुटा रहा हूँ, पर आज तक नहीं कह पाया, पर वही बात आज तुमने कह दी। ई.एन.टी. में सिर्फ इसलिए आया कि तुम इसमें आ रही थी। मैं धन्य हो गया नीलू।”

“अनुराग! अब बस करो, तुम्हें कोई ग़लतफ़हमी हो गई है, मैं थोड़ी देर पहले अपनी सहेलियों को याद कर रही थी और अभी मम्मी-पापा और बहनों को, प्यार आने से मेरा मतलब है, उन सब पर प्यार आ रहा है।”

“कितना झूठ बोलोगी नीलू? तुम्हारी आँखें मैं पढ़ रहा हूँ, आज से नहीं, फ़र्स्ट इयर से ही। यदि मैं ने पहले थोड़ी हिम्मत जुटा ली होती तो अब तक हम दो बच्चों के माता-पिता बन चुके होते।”

“अनुराग! तुम जानते हो, जब तक मेरी बहनें अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जातीं, मैं विवाह नहीं करूँगी, ये मेरी प्रतिज्ञा है स्वयं से।”

“ नीलू! जब तुमने यह प्रतिज्ञा ली थी, तुम्हारे जीवन में मैं नहीं था, मैं तुम्हारे हर निर्णय का स्वागत करूँगा।”

“हाँ तो मेरा निर्णय है कि मैं अपनी प्रतिज्ञा पर क़ायम रहूँगी।”

“सुध-बुध खोने की प्रतिज्ञा पर?”

“क्या?”

“नीलू, अभी थोड़ी देर पहले तुमने कहा था कि मेरे गिफ़्ट को सूँघकर सुध-बुध खो बैठी हो, सच्ची नीलू?”

बिना कुछ बोले नीलू ने हाँ में सिर हिलाया।

“मतलब नानी ठीक कहती थी, मेरी माँ की कोई ग़लती नहीं थी, सारा असर इस इत्र का ही था, जिसके असर में उन्होंने सुध-बुध खो दिया। पर दादी कहती थी- माँ बुरी लड़की थी। ज़रूर नानी की ही बात सच होगी। एक बात पूछूँ नीलू?”

“पूछो”

“इत्र सूँघने के बाद क्या तुम्हारा मन हुआ कि सारी दुनिया छोड़कर मेरे पास आ जाओ?”
“हाँ”

“सच कह रही हो?”

“हाँ, बिल्कुल सच।”

“सचमुच! एक छोटी सी शीशी की पेंदी में बची थोड़ी सी इत्र ने तुम्हारी सुध-बुध छीन ली, फिर वो तो यह इत्र बनाता था, उसका शरीर, उसका घर सबसे यही ख़ुशबू आती होगी और उसका दिल-दिमाग़ कितना सुगंधित रहा होगा, जिसमें इस इत्र को बनाने का नुस्खा उपजा होगा। दूसरी तरफ़ मेरे पिता जिन्हें सिर्फ़ नोटों की गंध मालूम थी।
“पर मैं? बचपन से एक ही गंध मालूम थी, माँ की, पर जिस दिन से माँ ये इत्र लगाने लगी, मेरी माँ खो गई। फिर कभी नहीं मिली, धीरे-धीरे माँ की स्वाभाविक गंध को भूल गया, और यह शीशी उनकी अमानत समझकर सँभाल ली, माँ की और कोई निशानी मेरे पास नहीं। उनके गहने कपड़े बुआ ने ले लिए, सेंट की शीशी उन्होंने यह कह कर छोड़ दी कि ये मुसलमान मर्दों की साज़िश है, सेंट के जादू से हिन्दू की बहू-बेटियों को अपने वश में कर लेते हैं।”

“अनुराग! तुम्हारी माँ का नाम पूनम तो नहीं था?”

“तुम्हें कैसे पता नीलू?”

“यह दुनिया गोल है अनुराग?”

“पर अब तक तुमने मुझसे यह सब छिपाया क्यों था, और कन्वोकेशन पर जिस मम्मी से मिलवाया था वो?”

“सब नाटक है नीलू, जिसे समाज के लोग मर्यादा और न जाने क्या-क्या कहते हैं? बस चारों ओर झूठ का जाल। सौतेली माँ को माँ बोलना सिखाया गया, और अपनी माँ के जीते जी उन्हें मरा हुआ बताने को सिखाया गया। मैं दब्बू हूँ नीलू, निरा डरपोक।

“माँ के खो जाने के बाद मन में जो डर समाया तो आज तक उससे निकल नहीं पाया हूँ। किसी को समझा नहीं पाया कि मेरी माँ ग़लत नहीं थीं। इत्र वाला मुश्ताक़ जादूगर नहीं एक भला इंसान है।

“मेरा साथ दोगी नीलू, मेरी ताक़त बनोगी, बोलो नीलू। जब से तुमको देखा, मुझमें फिर से एक असुरक्षा भाव जगने लगा है, कहीं इसे भी कोई मुझसे दूर न कर दे। नीलू इत्र की वो शीशी इसीलिए मैंने तुम्हें दी है, ताकि कोई और तुम्हें इत्र की शीशी देकर मुझसे दूर न कर दे।“

अनुराग ने नीलू के हाथों को अपने हाथों में ले लिया था, और नीलू की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।

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