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जागो पलाश!

सोई धरती जब जागी  
कुछ यूँ बोली – 
बहुत सहा आघात शिशिर का
उठूँ, शबनम से मुख अपना धो लूँ 
हिम से लड़ उसको विगलित कर 
जीवन को रसमय कर दूँ। 
आएँगे ऋतुराज और झाँकेंगीं जब
किरण सखियाँ कोमल 
अकेला नव विहान क्या–क्या कर लेगा! 
मैं भी तो कुछ उसका साज–शृंगार करूँ,        
सोचा जब ऐसा उसने, जाग उठी चेतना उसमें  
निश्चय अटल देख धरती का – 
उगते सूरज ने उसके मन की बात सुनी 
और धरती के रग–रग में ऊर्जा भर दी , 
हरसाई धरती- कम्पन, ठिठुरन, भय–लाज भुला 
वह तो घूँघट – खोल हँसी    
फैली हरियाली, रोमांचित हुई धरा 
मंद – मदिर हवा गतिमान हुई।     
सूने तरुवर में राग भरा, 
             अमराई झूमी कोकिल कूकी 
ताल–तलैया, नदियाँ-झरने 
मन की कहने- उमड़ चले , 
बीथिका सजी, हरित पाँवड़े बिछे  
बौराये अलि, तितलीदल सारे    
बसंतोत्सव मनाने निकल पड़े।
फूलों ने मधु आसव ढाला  
पी–पी आसव तितली–दल, भौंरे ख़ूब छके ,   
फिर भौंरों को जाने क्या सूझा!   
कमलों के कोमल आसन पा 
वे रात बिताने वहाँ रुके ,   
कमलों ने भी उनको मान दिया। 
धीरे से आ किरणें झाँकीं 
कमलों के पट पर थाप पड़ी 
फिर खोल अधर रक्तिम- कोमल 
धीरे से कमल भी हरसाया, 
नद–धाराओं में अजब किलोल भरा 
थिरक उठीं वे गोल–गोल, धीमे–धीमे। 
सोये पाखी भी जाग उठे 
कलरव से गूँजा नीलम नभ   
नाच उठे तितली–भौंरे, मानों 
हो रहा हो रंगारंग कार्यक्रम।    
कोहरे का था न काम वहाँ,   
संत समाज का ही था मान वहाँ
रंगों का अद्भुत संगम था 
पक्षियों का मधुर तराना था।    
              रोके न रुका मन–पाखी भी       
उड़ चला देखकर खुला गगन     
बागों में महुआ महक उठा   
बौरों की कलगी से अमराई सजी   
डालों पे कोकिल कूक उठा,  
सेमल हँसकर यों बोला –
जागो पलाश! आये ऋतुराज ,   
तुम भी आओ! प्रियकन्त आज 
मिलकर देखेंगे वसंतोत्सव ,  
यह दाह विरह का अनल सदृश   
रह – रह पुकारता तुम्हें आज –    
आओ प्रिय! दोनों मिलकर गायेंगे बसंत राग। 
 

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