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जात-पांत और छुआछूत  पर प्रहार करता गुरु गोबिन्द सिंह का युद्ध-दर्शन

शान्ति की कितनी भी कामना क्यों न की जाए, युद्ध मनुष्य की नियति है। इसके बिना वह कभी जिया नहीं, न ही इसके बिना वह कभी जी सकेगा। पश्चिमी देशों में युद्ध के मनोविज्ञान पर बहुत काम किया गया है। हमारे देश में इस दृष्टि से विशेष चिन्तन नहीं हुआ। इस देश में भी बड़े-बड़े युद्ध हुए। महाभारत का युद्ध तो मानव इतिहास की अद्वितीय घटना है। शायद उस युद्ध में हुए विनाश का व्याघात इतना प्रबल था कि इस देश की पूरी मानसिकता युद्ध-कर्म से विरक्ति अनुभव करने लगी। हमारा सम्पूर्ण चिन्तन आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, माया और सृष्टि की उत्पत्ति की गुत्थियों को सुलझाने की ओर मुड़ गया। यह चिन्तन बढ़ते-बढ़ते इस स्थिति तक पहुँचा जहाँ सारा संसार और उसके सभी कार्य-कलाप मिथ्या दिखने लगे, केवल ब्रह्य ही एकमात्र सत्य रह गया।

इस देश में सुगठित होकर युद्ध-दर्शन का विकास न हो पाने का एक प्रमुख कारण यह है कि यहाँ जीवन-मृत्यु की सभी समस्याओं का अनतर्भेदन व्यक्तिमुखी हुआ, समाजमुखी नहीं। आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्रों के विविध आयामों पर चिन्तन-मनन करते हुए इस देश में अनेक शास्त्रों की रचना हुई, किन्तु युद्ध-दर्शन पर कोई उल्लेखीनीय शास्त्र नहीं रचा गया। मनुष्य का इतिहास युद्धों से भरा हुआ इतिहास है। धार्मिक परिवेश में इस कर्म की भरपूर निन्दा हुई है और मनुष्य को इस कर्म से विरत करने के बहुत से प्रयास हुए हैं, किन्तु धर्म-क्षेत्र में इस कर्म को मान्यता भी भरपूर प्राप्त हुई और युद्ध-कार्य को कभी धर्मयुद्ध, कभी जिहाद और कभी क्रूसेड के नाम से धार्मिक-नैतिक स्वीकृति निरन्तर मिलती रही है।

युद्ध का अपना एक कौशल है, इससे आगे बढ़कर उसका एक पूरा दर्शन है। युद्ध एकांकी संक्रिया न होकर सामूहिक कर्म है। युद्ध-कर्म पूरे समाज के साथ जुड़कर ही पूर्ण होता है। इस देश में धर्म पर बहुत कुछ सोचा और लिखा गया। मोक्ष की कामना से हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं। परन्तु मुझे ऐसा कोई ग्रन्थ याद नहीं आता, जो युद्ध-कला और युद्ध दर्शन की व्यापकता को समाहित करता हो। इस वर्ग में परम्परा के रूप में शस्त्र पूजा अवश्य होती थी, किन्तु उसके लिए भी यह मात्र एक रूढ़ि बनकर रह गई थी। संसार के विभिन्न भागों में किस प्रकार के नए अस्त्र-शस्त्र बन रहे हैं, और किस प्रकार उन्हें प्रयोग में लाया जा रहा है इस विषय में इस देश में कभी गहरी रुचि व्यक्त नहीं की गई।

यह भी सच है कि गीता में कुरुक्षेत्र की समर-भूमि में अर्जुन के मन में युद्ध के प्रति आई हुई विरक्ति को दूर करते हुए श्रीकृष्ण उसे युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं और कहते हैं कि यदि धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति खोकर पाप को प्राप्त होगा-

अथ चेत्त्वमिमं धम्र्य संग्रामं न करिष्यसि
ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि

युद्ध एक पूरा दर्शन है, जीवन-दृष्टि है, इस बात को सम्भवतः सबसे पहले गुरु गोविन्द सिंह ने तीन सौ वर्ष पहले आत्मसात किया था। उन्होंने अनुभव किया था कि कृपाण हाथ में लेकर युद्धभूमि में जाकर शत्रु से भिड़ जाना ही पर्याप्त नहीं है। यह काम तो इस देश की क्षत्रिय जातियाँ सदियों से करती आ रही थीं। आवश्यकता यह थी कि युद्ध-कर्म को किस प्रकार लोगों की मानसिकता का हिस्सा बना दिया जाए, उनके लिए यह एक पूरा जीवन-दर्शन बन जाए। सबसे बड़ी बात यह कि इस कर्म में केवल दस प्रतिशत लोगों की नहीं शत प्रतिशत लोगों की भागीदारी कैसे प्राप्त की जाए।

गुरु गोविन्द सिंह के युद्ध-दर्शन का पहला सूत्र था लोगों के अन्दर सदियों से जड़ जमाए बैठी हीन भावना को दूर करना। उन्होंने निश्चय किया कि वे छोटी समझी जाने वाली जातियों को बड़प्पन देंगे। जिनकी जाति और कूल में कभी सम्मान नहीं आया, ऐसे कीड़े समझे जाने वाले लोगों को मैं शेर बनाऊँगा। इनके सामने तुर्कों के झुंड हाथियों की तरह भागेंगे। इन्हें मैं सरदार बनाऊँगा। तभी मेरा गोविन्द सिंह नाम सार्थक होगा। पंथ प्रकाश के रचयिता के शब्दों में-

जिनकी जाति और कुल माहीं।
सरदारी नहि भई कदाहीं।
कीटन तै इनको मृगिंदू।
करो हरन हित तुरक गजिंदू।
इन ही को सरदार बनावों।
तबै गोविन्द सिंह नाम सदावों।

यह विचार कर के बैसाखी वाले दिन गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ का निर्माण किया-

इहु विचार कर सतगुरु पंथ खालसा कीन।
भीरू जातिन के तई अती बड़प्पन दीन॥

प्राचीन पंथ प्रकाश के रचयिता भाई रतन सिंह भंगू ने अनेक जातियों के नाम गिनाए हैं जो सदियों से राजनीति से दूर थे, जिन्होंने सपने में भी पातशाही के बारे में नहीं सोचा था। ऐसे लोगों को गुरु गोविन्द सिंह ने अपने साथ जोड़ा, इन्हें सिंह बनाया, इनके हाथ में अस्त्र-शस्त्र दिए और इनके मन में यह विश्वास उत्पन्न किया, कि वे संसार की बड़ी-से-बड़ी शक्ति से टकराने का दावा कर सकते हैं। यह बहुत बड़ा चमत्कार था। गुरु गोविन्द सिंह ने यह चमत्कार कर दिखाया।

उस समय की समाज-व्यवस्था में यह बात बड़ी अनहोनी जैसी थी। उच्च वर्ण के लोगों ने यहाँ तक कि उनके सम्बन्धियों ने भी, उनकी इस नीति का विरोध किया था। दशम ग्रन्थ में पंडित केशो राम को उसकी आपत्तियों का उत्तर देते हुए गुरु गोविन्द सिंह ने कहा था- मैंने अपने सभी युद्ध इन लोगों की सहायता से ही जीते हैं। मेरे सभी कष्ट इन्हीं की कृपा से दूर हुए हैं। इन्हीं की कृपा से मेरा इतना सम्मान है, नहीं तो मेरे जैसे करोड़ों लोग इस दुनिया में हैं-

युद्ध जिते इनही के प्रसादि इनही के प्रसादि सु दान करे।
अघ अउघ टरै इनही के प्रसादि की कृपा पुन धाम भरे॥
इनही के प्रसादि सु बिदिया लई इनही की कृपा सभ शत्रु मरे।
इनही की कृपा तै सज हम हैं नहि मो सो गरीब करोर परे॥

ग़रीब और दलित लोगों को इतना सम्मान अपने युग में गुरु गोविन्द सिंह ने ही दिया था। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा था- मुझे इन्हीं की सेवा करना अच्छा लगता है, इन्हीं को दान देना भला लगता है, इन्हीं को दिया हुआ आदन ही आगे चलकर फलदायी होगा, शेष तो सब कुछ फीका है। इसलिए मेरा घर, मेरा तन-मन, सिर और धन सब इन्हीं का है-

सेव करी इनही की भावत अउर की सेव सुहात न जी को।
दान दयो इनही को भलो अरू आन को दान न लागत नीको।
आगे फलै इनही को दयो जग में जस अउर दयो सभ फीको।
मो गृह मो तन से मन ते सिर लउ धन है सब ही इनही को॥

गुरु गोविन्द सिंह ने छोटे और हीन समझे जाने वाले लोगों के मन में जिस आत्मविश्वास का संचार किया था, उनमें अपने अधिकारों के प्रति जो जागरूकता उत्पन्न की थी और जिस शोषणविहीन समतावादी समाज की संकल्ना की थी, आधुनिक भारतीय समाज उसे ही प्राप्त करने के लिए दिखता है। तीन सौ वर्ष पूर्व खालसा पंथ के निर्माण की पृष्ठभूमि में यही परिकल्पना कार्य करती दिखाई देती है। इस कार्य के लिए उन्होंने सन् 1699 की बैसाखी के दिन देश-भर में फैले हुए लोगों का एक विशाल सम्मेलन बुलाया और उसमें एक कड़ी परीक्षा द्वारा पाँच व्यक्तियों का चयन किया। इन पाँच व्यक्तियों में एक खत्री, एक जाट, एक धोबी, एक कहार और एक नाई जाति का था। यह भी संयोग था और यह कि इनमें एक पंजाबी, एक पश्चिमी उत्तर-प्रदेश का, एक गुजराती, एक उड़िया और एक कर्नाटक का था।

गुरु गोविन्द सिंह ने इन्हें पंज प्यारे कहा। इनके नामों के साथ सिंह शब्द जोड़ दिया। इनकी सहायता से लोहे के कढ़ाव में, लोहे के खंडे के स्पर्श से, गुरुवाणी का पाठ करते हुए और गुरु-पत्नी द्वारा इस जल में मिलाए गए मीठे बताशे से एक अमृत तैयार हुआ।

उस दिन लगभग बीस हज़ार व्यक्तियों ने इस अमृत का पान किया। इनमें से ऊँच-नीच और बड़े-छोटे की भावना समाप्त हो जाए इसलिए गुरु गोविन्द सिंह ने स्वयं इनके हाथ से लेकर अमृतपान किया। हीनता की ग्रन्थि को नष्ट करने का यह अद्भुत उपाय था कि स्वयं गुरु अपने शिष्यों के सम्मुख अंजुलि फैलाकर घुटनों के बल बैठ गया।

मुग़लों के शासनकाल में आम हिन्दुओं को पगड़ी बाँधने, शस्त्र धारण करने और घोड़े पर चढ़ने की अनुमति नहीं थी। गुरु गोबिन्द सिंह ने इस शाही हुक्म को चुनौती देते हुए उन्हें केश रखने, पगड़ी बाँधने, शस्त्र धारण करने और घोड़े पर चढ़ने की आज्ञा दी।

आम लोगों के अन्दर बैठी हुई हीन भावना को एक मुख्य कारण यह भी था कि ये लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी से ऐसे काम कर रहे थे जिन्हें छोटा या हीन कर्म माना जाता था। जो जिस जाति में पैदा हुआ वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही जाति-कर्म करने को अभिशप्त रहा। गुरु गोविन्द सिंह ने निश्चय किया कि मैं इनकी हीन भावना को दूर करने के लिए  इनका वर्गान्तर दूर कर दूँगा। मैं इन्हें क्षत्रिय कर्म ग्रहण करने की प्रेरणा दूँगा। ये शस्त्रधारी सिंह हो जाएँगे। मैं इन्हें शिकार खेलना सिखा दूँगा और इन्हें जंग करने की शिक्षा दूँगा। पंथ प्रकाश में ज्ञानी ज्ञान सिंह ने इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है-

ताँते इनके जाती करम।
छुड़वा भरो क्षत्री धरम।
सिंह नाम शस्त्री जब थैहें।
पाण वीर रस की चढ़ जैहें।
खेलन इन्हें अधिकार सिखाईऐ।
सिख मत जंग करन की दईऐ।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध की इस रचना में एक घटना का उल्लेख किया है। एक दिन गुरु गोविन्द सिंह के सम्मुख कुछ सिखों ने आकर पुकार की कि तुर्क हमें बड़ा दुख देते हैं। आपके लिए हम जो सुन्दर वस्तुएँ और भेंट लेकर आते हैं, मार्ग में हमसे छीन लेते हैं। हममें इतनी सामर्थ्य नहीं कि हम उनसे बच सकें। हे सदगुरु, आप इसका कोई उपाय बताइए-

इक दिन संगत आइ पुकारी।
तुरक देत दुःख हम को भारी।
सुन्दर वस्तु, आप हित जो है।
कार भेंट दसबंध जुहो है।
घर ते संगत लै के आवत।
मग में तुरक छीन लै जावत।
नहि इतफाक हमारे में है।
जिस बल हम उन तै बच जैहे
करो उपाए सतगुरो सोई।
जो तुम करयो चहो सो होई॥

गुरु गोविन्द सिंह ने कहा- तुम अपने हाथ में शस्त्र लो और उनका सामना करो।

यह सुनकर वे लोग बड़े अधीर होकर कहने लगे- मुग़ल-पठान बड़े वीर हैं, शस्त्र-विद्या के ज्ञाता हैं। हम तो उनके सामने बालकों की तरह हैं। हम मोठ- बाजारा खाते हैं, वे शराब-कबाब उड़ाते हैं। हम बकरी, चिड़िया, तीतर के समान हैं, वे बाज और भेड़िए की तरह हैं। हम उनसे कैसे लड़ सकते हैं? उन्हें देखकर तो हम थरथर काँपने लगते हैं-

सुन सिख बोले होइ अधीर
मुगल पठानादिक बड़ बीर॥
सस्त्र विद्या के सो ज्ञाता।
हम उन आगे बाल अज्ञाता।
मोठ बाजरी हम नित खैहे।
सोऊ शराब-कबाब उडै़ हैं।
बकरी, चिड़िया, तीतर, सम हम।
बाज बघयाड़न तै सो नहिं कम।
उनसे लड़न तो किम हो है।
सम्मुख बात आत नहि को है।
पेख उनै हम थरथर कपै।
जो सो चहित देत हम सपै।

यह सुनकर गुरु गोबिन्द सिंह ने सोचा, ये लोग तुर्काें से इतना क्यों डरते हैं। एक तो ये लोग ग़रीब हैं, दूसरे इनके नाम भी बहुत दब्बू क़िस्म के हैं। तीसरे इनकी छोटी जाति का अहसास इनमें हीनता की भावना पैदा करता है। उन्होंने सोचा कि इनसे पुराने जाति-कर्म छुड़वाकर इनमें क्षत्रियों का तेज भरना चाहिए। जब इन्हें ‘सिंह’ नाम मिलेगा तो इनमें वीर रस का संचार होगा। इन्हें शिकार खेलना चाहिए, इन्हें युद्ध करना आना चाहिए-

इह सुन सतगुरु ऐस विचारी।
एहु दबै रहे उनै अगारी।
इक तो करम गरीबी के हैं।
दूसर नाम निकारो से हैं।
तीसर जाति कमो जट बणीए॥
नाई छीवै झीउर गणीए।
रोड़े खत्री सैणी खाती।
बणजारे आदिक बख्याती॥
ताँते इनके जाती करम।
छुड़वा भरो क्षत्री धरम।
सिंह नाम शस्त्री जब थैहे।
खेलन इन्हें शिकार सिखाईऐ।
सिख मत जंग करन की दईऐ॥

उन्होंने यह भी निश्चय किया कि वे बड़े लोगों को छोड़कर नीच समझे जाने वाले लोगों को मान सत्कार देंगे, वैसे ही जैसे सोने की अँगूठी बड़ी उँगलियों को छोड़कर छोटी उँगली में पहनाई जाती है-

पुन सभ जन की लघु उँगरी
तज बड़ीअन तिह पावत मुंदरी।

गुरु गोविन्द सिंह ने इस प्रकार युद्ध-कर्म को केवल क्षत्रिय वर्ग तक ही सीमित नहीं रखा। इस कार्य में उन्होंने उन वर्गों को भी शामिल कर लिया, जिन्होंने कभी इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि समाज उन्हें योद्धा और वीर सैनिक के रूप में भी देखेगा।

युद्ध एक सामूहिक क्रिया है। वह एकाकी कार्य नहीं है। हमारे देश में जो लोग युद्ध कर्म को अपना जातीय गुण मानते थे, वे भी व्यक्तिगत वीरता को बहुत महत्त्व देते थे। किन्तु इस कार्य में वीरों की नहीं, वीर सैनिकों की आवश्यकता होती है। रणभूमि में व्यक्ति नहीं, सेनाएँ युद्ध करती हैं और अन्त में कोई व्यक्ति, वह कितना ही बड़ा पराक्रमी योद्धा क्यों न हो, विजयी नहीं होता, उसकी सेना विजय प्राप्त करती है। गुरु गोविन्द सिंह ने इस सत्य की पहचान की और अपना ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया की किस प्रकार समाज के सभी वर्गों की भागीदारी प्राप्त करके पराक्रमी सेना का निर्माण किया जाए।

समाज में चाहे जितनी ऊँच-नीच और छुआछूत की भावना हो, एक योद्धा निजी तौर पर चाहे जितना इस भावना से ग्रसित हो, किन्तु सैन्य संचालन में ये बन्धन पूरी तरह त्याज्य होते हैं। सेना में सभी सैनिक सामूहिक रूप में जीते हैं, सामूहिक रूप में खाते-पीते हैं। सामूहिक रूप से प्रशिक्षण लेते हैं और सामूहिक रूप से युद्ध करते हैं।

किन्तु कठोर जाति-नियमों के कारण इस देश में सामूहिक भावना का अभाव था। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ‘मिलिट्री हिस्ट्री आॅफ इण्डिया’ में लिखा है कि “हिन्दू धर्म का दर्शन उदात्त हो सकता है, किन्तु वह पूर्ण सामाजिक एकता तथा अनुयायियों की समानता की सीख नहीं देता। जात-पांत और छुआछूत की भावना को हिन्दू सैनिक युद्धभूमि में भी अपने साथ रखते थे। पृथ्वीराज चौहान और शहाबुद्दीन गौरी के मध्य हुए युद्ध में राजपूत सेना की हार का एक कारण यह भी था कि शहाबुद्दीन की सेना ने राजपूतों पर बहुत सुबह आक्रमण कर दिया था। राजपूत युद्ध से पहले भोजन नहीं कर सकते थे। उन्हें भूखे पेट लड़ना पड़ा था। कठोर जाति-नियमों के कारण वे युद्धक्षेत्र में ही कुछ खा-पीकर तरोताज़ा नहीं हो सकते थे।

पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफ़गानों और मराठों के मध्य हुए युद्ध में भी मराठों की हार का एक कारण यह था कि हर मराठा सैनिक अपने घोड़े की काठी के नीचे अपनी रोटी सेंकने के लिए अपना अलग तवा रखता था और छूआछूत का पूरी तरह पालन करता था।

गुरु गोबिन्द सिंह ने इस नीति को पूरी तरह बदल दिया। गुरु नानक के समय से ही सिखों ने लंगर की प्रथा द्वारा खान-पान में से सभी प्रकार का भेदभाव नष्ट किया जा चुका था। गुरु गोविन्द सिंह ने पाहुल की प्रथा में सभी सिखों को एक ही पात्र से अमृत पिलाया और स्वयं भी पिया।

सेना में भरती होने वाले प्रत्येक सैनिक को एक सौगन्ध लेनी होती है, जिसमें वह अपने उद्देश्य और आदर्श को दोहराता है। अमृतपान की प्रथा एक सौगन्ध थी, जिसमें दीक्षित होते समय प्रत्येक सिख अपने अन्दर की कुछ रूढ़ मान्यताओं के नष्ट करने की घोषणा करता था। ये थीं- धर्मनाश (वर्णाश्रम धर्म से मुक्ति), कर्मनाश (कर्मकांड से मुक्ति), भरम (भ्रम) नाश (अंधविश्वासों से मुक्ति), कुलनाश (उच्च कुल या वर्ण में जन्म लेने की भावना से मुक्ति) और कृतनाशा (हीन समझे जाने वाले कामों से मुक्ति)।

गुरु गोबिन्द सिंह जानते थे कि एक अच्छा सैनिक युद्ध में तभी पूरी तन्मयता और उत्साह से भाग लेता है जब उसे यह विश्वास होता है कि वह किसी महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए युद्ध कर रहा है और इस कार्य में ईश्वर उसका सहायक है। इस्लामी दुनिया के ‘जिहाद’ और इंसाई संसार के ‘क्रूसेड’ में युद्ध को धर्मभावना के साथ जोड़ा जाता है।

गुरु गोबिन्द सिंह ने भी अपने अनुयायियों में यह विश्वास भरा कि वे जो कार्य कर रहे हैं, वह ईश्वरीय कार्य है। ‘वाहिगुरु जी का खालसा-वाहिगुरु जी की फतेह’ जैसे उद्घोष की पृष्ठभूमि में यही भावना है- खालसा वाहिगुरु की रचना है और वाहिगुरु की सदैव विजय होती है। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘चित्रिय नाटक’ में अपने जीवन का मन्तव्य स्पष्ट करते हुए कहा था-

धर्म सचावन संत उबारन
दृस्ट सभन को मूल उपारन
चाही काज धरा हम जनमं
समझु लेहु साधू सब मनमं

धर्म की स्थापना, सन्त पुरुषों का उद्धार और दुष्टों का समूल नाश करने के लिए मैंने जन्म लिया है। इसलिए गुरु गोबिन्द सिंह के लिए युद्ध केवल एक सामान्य कर्म नहीं था, वह धर्मयुद्ध था। धर्मयुद्ध की आकांक्षा से प्रेरित होकर ही उन्होेंने यह आयोजन किया था। अपनी रचना ‘कृष्णावतार’ में उन्होंने इस भाव को पूरे आग्रह से स्पष्ट किया था- मैंने भागवत के दशम सकन्ध को जन-भाषा में अन्य किसी भाव से प्रेरित होकर नहीं लिखा है। हे प्रभु, मेरे मन में तो केवल धर्मयुद्ध का चाव है-

दसम कथा भागौत की भाषा करी बनाइ,
अवर वासना नाहिं प्रभु धरम जुद्ध को चाइ।  
 

अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने वीर-काव्य का सृजन किया और देश के अनेक भागों से आए अपने दरबार के कवियों से करवाया। उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों को जनभाषा में रूपान्तरित किया और करवाया। चंडी, राम, कृष्ण तथा अन्य अवतार कथाओं की रचना के पीछे उनका एक ही उद्देश्य था कि सदियों से दासता, निर्धनता और उत्पीड़न झेलती हुई जनता में उत्साह और वीरता की ऐसी ज्योति जगाई जाए जिससे वे अन्याय, अत्याचार और नित्य नए आक्रमणों का न केवल सामना कर सकें बल्कि उन्हें रणभूमि में परास्त कर सकें।    इस दृष्टि से दुर्गा की कथा ने उन्हें सबसे अधिक आकर्षित और प्रभावित किया।

लोगों में वीर-भाव का निर्माण करने के लिए आम जनता में उन दिनों प्रचलित नाम- खैराती, फकीरा, घसीटा, निचकू, रूलदू, मंगतू आदि बदलकर उन्हें अजीत सिंह, जुझार सिंह, रणजीत सिंह, रणवीर सिंह, शेर सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह जैसे नाम दे दिए। उन्होंने केवल आम लोगों के ही नाम नहीं बदले, वरन् परमात्मा के भी वैष्णव परम्परा वाले कोमल नाम- हरि, बनवारी, गोपाल, केशव, माधव, वंशीधर, रणछोड़, रास-बिहारी के स्थान पर काल, महाकाल, सर्वकाल, सर्वलोह, चक्रपाणि, असिपाणि, खड्गकेतु, दुष्टहंता, अरिदमन जैसे युद्ध-प्रकृति के नामों से पुकारा। शस्त्रधारी होना तो ईश्वर का विशेष गुण ही है स्वयं अस्त्र-शस्त्र ही ईश्वर के प्रतीक हैं। शस्त्रों की स्तुति में गुरु गोबिन्द सिंह ने ‘शस्त्रनाम माला’ जैसे ग्रन्थ की रचना की। ‘विचित्र नाटक’ ग्रन्थ का प्रारम्भ ही वे खड्ग की स्तुति से करते हैं-

नमस्कार स्त्री खड्ग कउ करौ सुहित चित लाइ।
पूरन करौ गिरंथ इह तुम मोहि करहु सहाइ॥

काल के रूप में उन्होंने ईश्वर के वीर रूप और उग्र रूप की प्रतिष्ठा की। डमरू बजाये हुए, फणिधर के समान फुफकारते, बाघ के सामन दहाड़ते, दामिनी के समान हँसते, रक्त पीते हुए, अष्टायुध धारण किए, सिंह पर सवार अपनी दाढ़ में सभी को चबाते हुए भयावह रूप का चित्रण उनके साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है। उदाहरणस्वरूप उनकी रचना ‘अकाल स्तुति’ में काल का यह रूप द्रष्टव्य है-

डाँवरू डवंकै बबर बवंकै भुजा फरंकै तेज बरं।
लंकुडिया फाधै आयुध बाँधे सैन विमदेन काल असुरं॥
अस्टायुध चमकै भूषण दमकै अति सित झमकै फूंक फणं।
जै जै होसी महिषासुर मर्दन रम्मक पर्दन दैत जिणं॥

गुरु गोबिन्द सिंह की आत्मकथा ‘विचित्र नाटक’ से काल के इस रौद्र रूप का उल्लेख मात्र उदाहरण के लिए प्रस्तुत है, अन्यथा ऐसे रूप-चित्रों का दशम ग्रन्थ में कोई अभाव नहीं है-

करं बाम चापियं कृपाणं करालं।
महातेज तेजं बिराजै बिसालं॥
महादाढ़ दाढ़ सु सोहं अपारं।
जिनै चरवीयं जीव जग्यं हजारं॥
डमा डम्भ डमरू सितासेत छत्रं।
हहाहूम हासं झमा झम्म अत्रं॥
महाघोर सबदं बजै संख ऐसे।
प्रलैकाल के काल की ज्वाल जैसे॥

युद्ध का दर्शन मृत्युभय से मुक्त हुए बिना सार्थक नहीं हो सकता। एक सैनिक यदि मृत्यु से डरेगा तो वह सैनिक-कर्म का ठीक से निर्वाह नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि भयमुक्त हुए बिना तो संसार में मात्र जीवित रहने के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है वह भी सार्थक रूप से नहीं हो पाता। गुरु नानक ने इस सच को अपनी वाणी में उजागर करते हुए कहा था- यदि तुम जीवन-संग्राम रूपी पे्रम का खेल खेलना चाहते हो तो अपने सिर को हथेली पर रखकर मेरे पास आओ। इस मार्ग पर पैर बढ़ाने की शर्त यह है कि बिना किसी दुविधा के सिर अर्पित करना होगा-

जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ।
सिरू धरि तली गली मेरी आउ॥
इतु मारगि पैर धरीजै।
सिर दीजै काणि न कीजै॥

पाँचवें गुरु अर्जुन देव ने भी कहा था- पहले मरना स्वीकार कर लो, जीवन की आशा छोड़ दो, सबके पैरों की धूल बन जाओं, तभी मेरे पास आओ-

पहिलां मरणि कबूल करि जीवन की छड़ि आस।
होउ सभनि की रेणका तउ आउ हमारे पासि॥

गुरु गोबिन्द सिंह ने एक ऐसा युद्ध दर्शन विकसित किया जिससे पीड़ित, दलित और निरीह तथा निरुपाय बना भीरू समाज अपनी कायरता त्याग कर, भयमुक्त होकर रणभूमि में जूझने की आकांक्षा लेकर समाज में फैले हुए छुआछूत, जात-पांत और ऊँच-नीच के भाव को तिलांजलि देकर एक नए प्रकार के अनुशासन में ढलकर अपने समय की  सबसे बड़ी राज-शक्ति को चुनौती देने के लिए उठ खड़ा हुआ। इसी दर्शन का प्रभाव था कि मात्र एक सदी में अबाध गति से आती हुई आक्रान्ता शाक्तियों का मार्ग अवरुद्ध ही नहीं हुआ, बल्कि उन्हें खदेड़कर देश से बाहर निकाल दिया गया।

डॉ. छोटे लाल गुप्ता, 
सहायक प्रोफ़ेसर बी आर अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय 
मुजफ्फरपुर, मो0-9085210732
 

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टिप्पणियाँ

डॉ.शैलजा सक्सेना 2019/08/15 07:15 PM

आपका यह लेख बहुत अच्छा और जानकारी पूर्ण है। आपने इस विषय पर पर्याप्त पढ़ा है और गुना है। भारतीय इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण चिंतन पक्ष को सबके सामने लाने पर बहुत बधाई। आप की एक बात पर शंका है, आपने लिखा कि भारत में युद्ध दर्शन पर कोई किताब नहीं लिखी गई। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन से अगर आप तुलना कर रहे हैं तो एक हद तक आपकी बात सत्य है अन्यथा मेरे मत में ’गीता’ को वह स्थान दिया जा सकता है।

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