जाते-जाते हे वर्ष बीस
काव्य साहित्य | कविता राजनन्दन सिंह15 Dec 2020
जाते-जाते हे वर्ष बीस
निज संग समेट बाधा छत्तीस
देते जाओ यह शुभाशीष
मंगलमय हो नववर्ष इक्कीस
तेरा आना दुखदायी था
क्रूर कोरोना तेरा भाई था
अदृश्य बहुत हरजाई था
जग गेहूँ भाँति दिया पीस
जग का पहिया तुमने रोका
तुम आपद थे या थे धोखा
या पाकर तुमने यह मौका
बींधा जन हृदय दिया टीस
पैदल कितने मज़दूर मरे
जो जीवित रहे मजबूर पड़े
सब देख रहे थे दूर खड़े
तुम करते रहे ग़म की बारिश
हो इस हानि की भरपाई
इस मन से लो तुम विदाई
देकर जाओ यह अरुणाई
रहे सुखद इक्कीस से उनतालीस
जाते-जाते हे वर्ष बीस
निज संग समेट बाधा छत्तीस
देते जाओ यह शुभाशीष
मंगलमय हो नववर्ष इक्कीस
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंकल
- अंतराल
- अदृश्य शत्रु कोरोना
- आज और बीता हुआ कल
- ईश्वर अल्लाह
- उत्पादन, अर्जन और सृजन
- उत्सर्जन में आनन्द
- उपेक्षा
- एक शब्द : नारी
- कर्तव्यनिष्ठता
- क्षेत्रियता की सीमा
- गेहूँ का जीवन मूल्य
- गौ पालकों से
- घर का नक़्शा
- घोंसला और घर
- चुप क्यूँ हो
- जब से बुद्धि आई है
- जाते-जाते हे वर्ष बीस
- झूठ का प्रमेय
- तरक्क़ी समय ने पायी है
- तुम कौन हो?
- तुम्हारी ईमानदारी
- तुम्हारी चले तो
- दिशा
- दीये की लौ पर
- देश का दर्द
- नमन प्रार्थना
- नारी (राजनन्दन सिंह)
- पत्थर में विश्वास
- पुत्र माँगती माँ
- प्रजातंत्र में
- प्रतीक्षा हिन्दी नववर्ष की
- प्राकृतिक आपदाएँ
- प्रार्थना
- बोलने की होड़ है
- मन का अपना दर्पण
- महल और झोपड़ी
- महा अफ़सोस
- मूर्खता और मुग्धता
- मूर्ति विसर्जन
- मेरा गाँव
- मेरा घर
- मेरा मन
- मैं और तुम
- मैं और मेरा मैं
- मैली नदी के ऊपर
- यह कोरोना विषाणु
- यह ज़िंदगी
- राजकोष है खुला हुआ
- लुटेरे
- शत्रु है अदृश्य निहत्था
- शब्दों का व्यापार
- सच्चाई और चतुराई
- सरदी रानी आई है
- सीमाएँ (राजनन्दन सिंह)
- सुविधामंडल
- स्मृतिकरण
- हर कोई जीता है
- ग़रीब सोचता है
- ज़िंदगी (राजनन्दन सिंह)
- ज़िंदगी के रंग
- ज़िंदगी बिकती है
हास्य-व्यंग्य कविता
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कविता
नज़्म
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}