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जब हम बच्चे थे

दादी कि कहानियों में 
परियों का मेला था, 
जब हम बच्चे थे 
माँ कि लोरियों में,
रात का अँधेरा था,
जब हम बच्चे थे 
ना कोई हवस थी,
ना कोई ग़म था
पीपल के छाँव में 
साथ तेरा-मेरा  था, 
जब हम बच्चे थे।

 

तब गग़ भी था 
लम्हों के लिए 
अब ग़म है जैसे 
सदियों के लिए 
बिन पूछे ही लोग  
स्नेह  दिखाते थे
हम एक रूठते थे
और दस मनाते थें 
अब तो रूठने से 
डर लगता है 
अकेले ख़ुद के  
बाजुओं में,
टूटने से डर लगता है।
बेफ़िक्री शाम थी 
बेझिझक सवेरा था, 
जब हम बच्चे थे।

 

मन में कोई   
सवाल न था
तब अच्छे बुरे का 
ख़याल न था
सारी उलझनें   
दूर रहती थीं,
अपना बुरा     
हाल न था।
भावनाओं के आँगन में 
ख़ुशियों का डेरा था, 
जब हम बच्चे थे।

 

तब हम थे और 
काग़ज़ कि कश्ती थी
झूठी आनबान में 
सारी दिशायें हँसती थीं 
तब कितने ख़ुश थे हम,
और कितनी मस्ती थी!
अब दिन के उजालो में, 
होठों से हँसी छलकती है 
रात कि तन्हाई  में  
नैनो  से  नदी बरसती है 
ऐ जिंदगी!
तू अब कितनी 
बदली-बदली सी लगती है 
तब शाम के बोझिल पलकों में,
नींदों का डेरा था 
जब हम बच्चे थे।

 

तब काग़ज़ की कश्ती पे,
दो जहान उठाते थे
पेड़  की शाखाओं पे,
अपना बोझ ढाते थे 
तब हम ग़ैरों के भी,
काँधों पे मुस्कुराते थे।

 

अब कोई मेरा साया नहीं 
अपना और  पराया  नहीं   
जीवन की सूनी बाँहों में,
कोई भी समाया नहीं।
कभी ग़ैरों के आँगन की 
हम ख़ुद रौनक़ बन जाते थे 
जब हम बच्चे थे।

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टिप्पणियाँ

suman kumar 2019/11/29 02:03 AM

very good aapne bahut achha likha hai.

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