जैसे तुम, वैसे हम
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम15 Aug 2021 (अंक: 187, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
जून एंड के बदले जुलाई एंड में अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के हो-हल्ला करते मानसून भाई साहब आए और आते ही इस नाले में बाढ़ तो उस नाले बाढ़। यहाँ तबाही तो वहाँ तबाही। इसका मकान ढहाया तो उसका गिराया। इसको बहाया तो उसको रुलाया। ये सड़क यहाँ से तोड़ी तो वो सड़क वहाँ से तोड़ी। ये पुल गिराया तो वो पुल चरमराया। इसकी कार नाले में बहाई तो उसके ट्रक पर ल्हासा गिराया। इसके मकान का डंगा गिराया तो उसके घर में दरारें आईं। जंगल में वन माफ़िया से बचे पेड़ गिराए तो कइयों की छतें उड़ाईं। और तो और, धाकड़ भाई साहब ने नगरपालिका की चमचमाती सड़कें दो मिनट में धूल-धूसरित कर दीं। सड़क विभाग के ठेकेदार की बाँछें यह देख खिल गईं। आह! मज़ा आ गया! वाह! मज़ा आ गया। हे मानसून! तू देर से आया, पर तबाही लाया। अब अगले मानसून तक बीसों उँगलियाँ घी में तो सिर कड़ाही में। जय हो! मानसून हो तो ऐसा हो! वो क्या कि टप-टप बरसते रहे! पक्की तो छोड़ो, कच्ची सड़क तक न उखड़े। वाह! पता ही नहीं चल रहा कि ये मेरी ही बनाई सड़क है या सिंचाई विभाग वालों का तालाब। पक्का काम हो तो ऐसा! इधर पेमेंट हुई तो उधर वही काम फिर शुरू। देखते ही देखते शहर तालाब हो गया। मुरझा आपदा महकमा देखते ही देखते महका गुलाब हो गया। हे मानसून! तू धन्य है। तेरे घर देर है, पर अँधेर क़तई नहीं। जब बरसता है तो सीधा छप्पड़ फाड़ कर बरसता है। नहीं तो चुप।
भाई साहब के आते ही गलियों का कचरा सड़कों पर घूमने लगा। महीनों से मानूसन के आने के इंतज़ार में साफ़ की जा रही शहर की नालियों का पानी नालियों के बदले घरों के द्वारों पर दस्तक देने लगा। शहर का सारा चार महीने से उठाया जा रहा कूड़ा कचरा वापस फिर सड़क पर ला गिराया कमबख़्त भाई ने। उफ़्फ़! ये शहर वाले भी न! कितना कूड़ा कचरा कमाते हैं।
तभी भाई साहब ज़रा, ज़रा साँस लेने को रुके तो मैंने उनसे पूछा, "अरे भाई साहब आप? मैं तो समझा था कि जल प्लावन हो रहा है।"
"हाँ मैं ही पर, क्यों?"
"नहीं, बस यों ही! अब ज़रा रेस्ट कर लेते तो। लोकतंत्र में इतनी मेहनत मशक़्क़त ठीक नहीं। बीमार-शीमार हो गए तो . . . तुम अभी आए और आते ही . . . थोड़ी इधर की गप्पें-शप्पें मारो, चाय-शाय पिओ, पकौडे़-शकौड़े खाओ, उसके बाद फिर . . . "
"यार ! पहले ही बहुत लेट हो गया हूँ। अब पिछला टाइम भी तो कवर करना है न! इसलिए प्लीज़!" मानसून ने कहा और फिर गरजने की तैयारी करने लगा तो मैंने भाईजी से कहा, "भाई साहब! ज़रा साँस तो ले लो। पूरे सावन का पानी आज ही बरसाना है क्या? जो ऐसा करोगे तो अगले महीने क्या करोगे?"
"अगले महीने की अगले महीने देखी जाएगी। अच्छा, एक बात बताओ? तुम्हारे घर बाई आती है कि नहीं?"
"हाँ! आती तो है पर तुम ये क्यों पूछ रहे हो?" लगा बंदा मेरा चरित्र खोलने पर तो उतारू नहीं हो गया कहीं। चाँद पर थूकते हुए जाता क्या है?
" वह क्या करती है?"
"सात के बदले आठ बजे हाँफती हुई दौड़ी-दौड़ी आती है। घंटे का काम बीस मिनट में कर ये गई कि वो गई। फ़र्श पर एक झाड़ू इस कोने मारा तो एक झाड़ू उस कोने। एक गीला पोंछा इस कोने मारा तो एक उस कोने . . . जहाँ झाड़ू लग गया, वहाँ लग गया। जहाँ नहीं लगा, वहाँ नहीं लगा। बस, सारे कमरे घूम गई।"
"गुड! और तुम दस के बदले बारह बजे ऑफ़िस जा क्या करते हो? ख़ुदा के लिए पहली बार सच बोलना। जबसे नौकरी लगे, तबसे कभी टाइम के ऑफ़िस गए?"
सवाल खुदा का था तो सच बोलना ही पड़ा, "नहीं," मैंने सिर खुजलाते कहा और इधर-उधर देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा। वैसे, आजकल सब देखते तो सब हैं, पर कहते कुछ नहीं। सब सुनते तो सब हैं, पर बोलते कुछ नहीं।
"तो दस के बदले बारह बजे जाकर तुम क्या वहाँ क्या हो? सच बोलना किसीको नहीं बताऊँगा।"
"बारह बजे जाकर पिछला टाइम कवर करने के लिए फटाफट एक फ़ाइल इधर फेंकी तो दूसरी उधर। एक काग़ज़ आँखें मूँद इस फ़ाइल लगाया तो एक काग़ज़ उस फ़ाइल। इसका लैटर इधर छुपाया तो उसका उधर।"
"और फिर . . . देखो, अबके भी सच बोलना। अपने बारे में अपने से सच कहने, सुनने पर किसी और को शांति मिले या न पर अपनी आत्मा को बहुत शांति मिलती है। अपने पास आत्मा न होने के बावजूद भी।"
"सारा काम निपटा दो बजे बैग उठाया और टेढ़े-मेढ़े हो लिए गुनगुनाते हुए बाज़ार की तरफ़।"
"बस, मेरे भी तुम्हारे तरह ही हाल हैं। पहले लेटे रहे और फिर लगे धड़ाधड़। जिस तरह तुम्हारी सरकार चार साल हाथ पर हाथ धरे गप्पें मारती रहती है और चुनावी साल आते ही साल भर में पाँच साल के तय शिलान्यास, उद्घाटन पूरे करने को पगलाती है, उसके-इसके साथ रहते-रहते ऐसी ही कुछ कुछ नेचर मेरी भी हो गई है।
जिस तरह बीच रास्ते पड़ते साली के घर रुका ट्रेन का ड्राइवर, साली के घर का टाइम कवर करने को अगले स्टेशन पर सही समय पर पहुँचने के लिए ट्रेन का हवाई जहाज़ बनाता है, ताकि साली के साथ बिताया टाइम कवर हो जाए, ठीक उसी तरह मैं भी अब पिछला टाइम टारगेट कवर करने के साथ तुम्हारी तरह सोच रहा हूँ कि अगला काम भी साथ ही साथ निपटाता चलूँ ।
मित्र! तुम्हारी ऑफ़िस में जवाबदेही फ़िक्स हो या न, पर मुझे तो ऊपर वाले को बूँद-बूँद का हिसाब देना पड़ता है कि वहाँ से सीज़न में जितना पानी बरसाने को मिला है उतना मैंने बरसाया कि नहीं। ये तुम्हारा ऑफ़िस तो है नहीं कि साल का ऊपर से खाने को जितना बजट मिला, उसमें से जितना खाया गया, उतना खाया गया, बाक़ी कर दिया सिर झुका कर साल के अंत में सरेंडर! बस, इसीलिए ये सब . . . ," मानूसन भाई साहब ने कहा और फिर इतनी ज़ोर से गिड़गिड़ाए कि जनता तो जनता, मानसून आने पर, मानसून में जनता की आपदा के बहाने रंग जमाने वाले भी उसके पाँव में गिड़गिड़ाने लगे।
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पाण्डेय सरिता 2021/08/16 11:19 PM
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति