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जल कहाँ से लाएँगे

आज मनुष्य कितना लोभी हो चला है, 
अपने भौतिक सुख के लिये, 
धरती का ही शोषण कर रहा है।
एक तरफ़ वृक्ष काट कर –
श्वास तंत्र को हानि पहुँचा रहा है,
वहीं दूसरी ओर कूड़े करकट से, 
नदियों को दूषित कर रहा है।
 
एक तरफ़ जल अभाव से 
पशु, पक्षी, प्राणियों का जीवन 
ख़तरे में आन पड़ा है,
वहीं दूसरी ओर बढ़ती औद्योगिक एवम्‌ 
व्यावसायिक गतिविधियों ने जैसे –
जल को विलुप्त करने का ही ठान लिया है।
 
एक तरफ़ कहने को धरती के 
दो-तिहाई हिस्से में जल भरा है,
वहीं दूसरी ओर उस हिस्से से पूछो जो –
सूख-सूख  रेगिस्तान हुआ, और 
वहाँ हर दिन एक घर 
प्यास से क़ब्रिस्तान हुआ है।
 
एक तरफ़ प्रदूषित जल से 
कृषि भूमि की उर्वरता नष्ट हो रही है,
वही दूसरी ओर कुएँ, नदियाँ, बावड़ीयाँ सूख रहीं,
भूगर्भीय जल का स्तर तेज़ी से घटता जा रहा है।
 
आँकड़े भी कहने लगे हैं, 
चिल्ला चिल्ला कर –
अब भी समझो और 
बचा लो जल को ख़त्म होने से,
अन्यथा रह जाओगे झूठी शान भँवर में,
धरती पर बंजर का मंज़र होगा।
 
आने वाले चंद दशकों में 
त्राहि-त्राहि मचने वाली है,
वो लम्हा दूर नहीं जब, 
हलक़ के नीचे दो बूँदों का उतारना भी
मुश्किल से नसीब होगा।
 
तुमने विकास की दौड़ और 
अनावश्यक जल उपयोग से,
जल को बहुत व्यर्थ बहाया है,
अमूल्य जल स्रोतों को 
विषाक्त करने के साथ, 
देश की गंगा को भी 
दूषित कर डाला है।
 
तुम्हारे स्वार्थरूपी, लापरवाह स्वभाव ने 
देखो क्या कोहराम मचाया है,
जल है तो कल है कि विचारधारा...
अब बहुत दूर रही — 
कल जल होगा कि नहीं . . .
इस चिंता ने मन को विचलित किया,
बहुत मुश्किल से ख़ुद को सँभाला हुआ है।
 
अब भी वक़्त है – 
सँभल जाओ मेरे देशवासियों,
वरना कल जल ना होगा,
वृक्ष, हरियाली सब नष्ट होगी,
हर तरफ़ सूखे का 
हृदयविदारक दृश्य होगा।
 
उठो, जागो, आओ एक नई प्रातः के साथ, 
एक नई सोच का निर्माण करें,
जल को ना दूषित होने देंगे,
ना ही व्यर्थ बहाएँगे, ये मन मे ठान लें।
 
अब भी ना जागे तुम तो, 
बहुत देर कर बेठोगे, 
क्या अनर्थ कर डाला हमने, 
जब तक ये बोध जागेगा,
तब तक तो पानी की प्यास बुझाने हेतु , 
इन्सान- इन्सान का ख़ून ही पीने लगेगा।
 
फिर होगा पानी खून से महँगा, 
हर गली मोहल्ले में 
इंसानियत शर्मसार होगी, 
बेचेंगे गहने जवाहरात, 
प्यास बुझाने हेतु,
पानी के लिये हर जगह 
मारामारी, चीख़ पुकार होगी।
 
खेत खलियान सब उजड़े-उजड़े, 
वृक्ष मुरझा-मुरझा गिर पड़ेंगे,
कुएँ, तालाब, बावड़ियाँ सब सूखे मिलेंगे, 
सोचो खाने को अन्न कैसे उगेंगे।
 
फिर जागेगी वेदना अंतर्मन की, 
फिर हम आँखों से नीर बहाएँगे,
रख के हाथ माथे पर बैठे कहेंगे, 
आज पीने को जल कहाँ से लाएँगे।

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