जवाँ भिखारिन-सी
काव्य साहित्य | कविता आचार्य संदीप कुमार त्यागी ’दीप’31 May 2008
भूखी थी दुत्कार खा गई, और अनचाहा प्यार पा गई।
जवाँ भिखारिन बनी ज़िन्दगी क़दम क़दम पर मार खा गई॥
पेट पालने के चक्कर में पलने लगा पेट में कोई,
पल पल पीती घूँट ज़हर के भूखी प्यासी खोई खोई।
रोई चीख़ी सन्नाटों में गहरी-सी चीत्कार छा गई॥
जितने जिस्म बिके दुनिया में बदमाशों के बाज़ारों में
हाथों हाथ ख़रीदे रौंदे कुचले सब इज़्ज़तदारों ने ।
आज शरीफ़ों की महफ़िल में कहकर गश लाचार खा गई॥
नहीं भरोसा कुछ साँसों का, अरमानों की इन लाशों का,
बोझ नहीं अब उठता हाय! प्यासी से ख़ाली गलासों का ।
पानी फिर भी झरे आँख से लगता फिर फटकार खा गई॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनुपमा
- अभिनन्दन
- उद्बोधन:आध्यात्मिक
- कलयुग की मार
- कहाँ भारतीयपन
- जवाँ भिखारिन-सी
- जाग मनवा जाग
- जीवन में प्रेम संजीवन है
- तुम्हारे प्यार से
- तेरी मर्ज़ी
- प्रेम की व्युत्पत्ति
- प्रेम धुर से जुड़ा जीवन धरम
- मधुरिम मधुरिम हो लें
- माँ! शारदे तुमको नमन
- राष्ट्रभाषा गान
- संन्यासिनी-सी साँझ
- सदियों तक पूजे जाते हैं
- हसीं मौसम
- हिन्दी महिमा
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं