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जीवन का गणित

एक समय हम सभ्य नहीं थे
फिर भी ढँकते ये तन
पत्तियों और जानवरों की खालों से।
लिपिबद्ध एक भाषा न होने के बावजूद
टूटी-फूटी बोलियों और इशारों में ही सही
समझते थे हम दूसरों की आँखों की भाषा
उनकी बातों तकलीफ़ों को बिल्कुल सही-सही...
रहते थे तत्पर हमारे दोनों हाथ
किसी के सुख-दुःख और हेर-ग़ैर में वक़्त-बेवक़्त...
किताबें-स्कूल और सीखने-सिखाने के
कोई साधन न होने के बावजूद
जानते थे हम -
अनुभूति, अपनापन और कृतज्ञता की परिभाषाएँ...
आज हम सभ्य हैं
किन्तु हम तन नहीं ढँकते
आज एक दूसरे की मदद करना तो दूर
काटते हैं एक-दूसरे की जड़
दूसरों की सुखों से घटता है हमारी ख़ुशी का ग्राफ
और ख़ुशगवार हो जाता है हमारे मौसम का मिज़ाज
पड़ोसी को विपत्तियों में घिरा देखकर...
सीखने-सिखाने के तमाम साधनों के बावजूद
हम नहीं जानते आज
सदाचार, नैतिकता और भाईचारे का अर्थ...
आज हमारा हृदय
दुःखी नहीं होता दूसरों की दुःखों-तकलीफ़ों से
न ही पिघलता है हमारा दिल
प्रेम स्नेह की ऊष्मा से...
आज लगे हैं हम सुलझाने में
अपने जीवन का गणित
जिसमें हो अपने हिस्से में सिर्फ़ लाभ ही लाभ...

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