जीवन मूल्यों में विप्लव हो
काव्य साहित्य | कविता डॉ. रमा द्विवेदी23 May 2017
इतना भी संत्रास न दो,
कोमलता जग से मिट जाए।
जीवन मूल्यों में विप्लव हो,
शिव का सिंहासन हिल जाए॥
जब-जब नारी हुई कुपित,
सिंहासन भी बदल गए हैं।
इंसानों की बात ही क्या,
स्वयं राम वनवास गए हैं॥
मद तेरा इस कदर बढ़ा कि,
नशा और भी तुझे चाहिए।
कामुक शक्ति बढ़ाने को,
वन-जीवों का भी संहार चाहिए॥
बर्बरता का नंगा नाच कर रहे,
तुमने हर हद तोड़ है डाली।
दुधमुँहों तक को न छोड़ा,
उनकी भी हत्या कर डाली॥
चेतो-चेतो अब भी चेतो,
वर्ना बचने का पाओगे न कहीं ठौर?
पौरुष दिखलाने के मार्ग कई,
पर तुम तो कुछ कर रहे और?
ऋषी -मुनियों ने रची ऋचाएँ
पर, तुमने वासना के इतिहास रचाए।
जब आती है मौत सियार की ,
तब वे दौड़ नगर में आएँ॥
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